गुरुवार, 2 जुलाई 2009

माओवादियों का ‘मिशन दिल्ली’ !

छत्तीसगढ़ की राजधानी से कोई तीन- साढ़े तीन सौ किलोमीटर आंध्र प्रदेश की तरफ जाने पर नक्सलवाद की असल कहानी सामने आती है। ये इलाका कहलाता है बस्तर यानी रामायण काल के दण्डकारण्य का हृदय प्रदेश। नक्सली इसे आज भी दण्डकारण्य ही कहते हैं। और कहते हैं कि जैसे भगवान राम ने वनवासियों की मदद से सेना बनाई थी, वैसे ही ये भी वनवासियों की मदद से अपना मिशन फतेह करना चाहते हैं। यहां अगर आप पहली बार जा रहे हैं और इलाके में किसी को नहीं जानते तो आपकी जान ख़तरे में है। और, मुख्य सड़क या सड़क किनारे बने कस्बों से उतर कर सात- आठ किलोमीटर अंदर की तरफ चले गए तो आपके लौट कर मुख्य सड़क पर आने की भी कोई गारंटी नहीं। ये नक्सलियों का इलाका है। नक्सली जो अब खुद को माओवादी कहलाना ज़्यादा पसंद करते हैं। माओ त्से तुंग कौन थे, उनकी बताई क्रांति के तीन पड़ाव कौन से हैं? इन सब बातों से देश के नक्सलियों का अब ज़्यादा लेना-देना बचा नहीं है। उनका नक्सलवाद जानता है तो बस एक बात 2015 तक भारत के बड़े भू भाग पर अपनी सरकार कायम करना। इसकी शुरुआत हो भी चुकी है। खुद छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक ये बात स्वीकार कर चुके हैं कि नक्सली देश के बड़े हिस्से पर कब्जे की योजना पर काम कर रहे हैं। नक्सली इन इलाकों में समानांतर सरकार चलाने की तरफ कदम भी बढ़ा चुके हैं।
ये सरकार कैसी होगी, इसका स्वरूप क्या होगा और इसकी कार्यपद्धित क्या हो सकती है? ये जानना है तो बस्तर आइए। छत्तीसगढ़ के बस्तर। वो छत्तीसगढ़ जिसकी सरकार को भाजपा आदर्श सरकार के तौर पर पूरे देश के सामने प्रचारित करती रही है। लेकिन, ये ‘आदर्श’ सरकार भी नक्सलवादियों की समानांतर सरकार के सामने मौन है। इस ‘आदर्श’ सरकार के मुखिया और मंत्री भले अतीत में सलवा जुड़ूम की कुछ सभाओं में जाकर और फिर वनवासियों और आदिवासियों में नक्सलियों के खिलाफ उभरे इस जन आंदोलन को समर्थन की बात ढोल बजाकर कहते हों, लेकिन हक़ीक़त यही है कि नक्सलवाद का ख़ात्मा कोई नहीं चाहता। आख़िर इसी के नाम पर तो नक्सल प्रभावित राज्य केंद्र से मोटी रकम वसूलते रहे हैं। न कोई स्पष्ट रणनीति और ना ही कोई ठोस कार्य योजना। ले देकर बस्तर में कुछ दिखता है तो बस नुकीले तारों से घिरे पुलिस थाने और नक्सलियों के इशारे पर चलती स्थानीय मशीनरी।
बस्तर के बेलाडिला में दुनिया का सबसे उम्दा लौह अयस्क पाया जाता है। बेलाडिला की पहाड़ियों पर घूमते हुए बदलते भारत के लिए ज़रूरी इस्पात को देश के इस सबसे पिछड़े इलाकों की छाती चीरकर निकालती मशीनें दिखती हैं। बताते हैं कि एक एक मशीन पच्चीस करोड़ की है। और, लौह अयस्क को ढोने वाले डंपर की कीमत करीब चार पांच करोड़ रुपये। बेलाडिला की पहाड़ियों पर जिस दिन मैं पहुंचा उस दिन एनएमडीसी की खदानों में काम बंद था, पूछने पर पता चला कि स्थानीय आदिवासियों ने हड़ताल का ऐलान किया है। देश की शान समझे जाने वाली एनएमडीसी, उसके कर्मचारियों की सुरक्षा में तैनात केंद्रीय सुरक्षा बलों और स्थानीय पुलिस के जवान किसी की हिम्मत नहीं कि इस ऐलान के बाद खदान से एक टुकड़ा भी लौह अयस्क का निकाल सकें। कुछ कुछ जम्मू कश्मीर जैसे हालात। दुर्गम और ख़तरनाक मोड़ों से गुजरते हुए बेलाडिला की पहाड़ियों की चोटी पर सीआरपीएफ के बेस कैंप आकाश नगर पहुंचे तो वहां भी वैसा ही सन्नाटा। ख़ाकी ने खुद को सुरक्षा घेरे में कैद कर रखा था। पूरे बस्तर में कहीं भी किसी भी जगह एक भी पुलिस कर्मी सड़क पर गश्त करता नहीं दिखा। पुलिस थानों को देखकर साफ पता चलता है कि यहां ख़ाकी खुद खौफ़ज़दा रहती है, वो दूसरों की नहीं बस अपनी ही हिफाज़त कर ले तो बहुत बड़ी बात है।
बेडाडिला की इन पहाड़ियों के एक तरफ अगर मिलता है दुनिया का बेहतरीन लौह अयस्क तो दूसरी तरफ है केंद्र और राज्य की सारी विकास नीतियों की पोल खोलती आदिवासियों की बस्तियां। आने जाने के लिए ना कोई सड़क और ना ही मुसीबत के लिए घरवालों तक ख़बर पहुंचाने के लिए कोई मोबाइल नेटवर्क। पहुंचा जा सकता है तो बस पैदल, वो भी लगातार 24 घंटे पैदल चलने के बाद। यहां पैंट शर्ट पहने पहुंचा शख्स भी एक अजूबा है। जंगलों के बीच रहने वाले ये लोग आज भी शहरों से पहुंचे लोगों को देखकर भाग खड़े होते हैं। और, वो भी बच्चों को छोड़कर। फिर टुकुर टुकुर पेड़ों के पीछे से ये समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर ये शहरी चाहते क्या हैं। इंसान तो बस कहने भर को हैं। ना पीने को पानी और ना खाने को अनाज। नवरात्र या दूसरे व्रतों के दौरान हम और आप कुटू का आटा खाते हैं। ये वनोपज छत्तीसगढ़ की पहाड़ियों पर खूब होती है। काले तिल को अगर तिकोनी शक्ल में सोचें तो कुटू के बीज की शक्ल का अंदाजा आप लगा सकते हैं। रसहीन, स्वादहीन इसी कुटू के सहारे इन आदिवासियों की ज़िंदगी चलती है। सूर्योंदय से शुरू होने वाली ज़िंदगी सूर्यास्त होते ही थम जाती है। ना कहीं कोई ढिबरी ना चिराग। तेल क्या होता है, ये भी इन लोगों के लिए अजूबा है। और, इन्हीं आदिवासियों को ढाल बनाकर खड़ा हो रहा है नक्सलवादियों का मिशन दिल्ली।
चीन में क्रांति के वाहक माओ त्से तुंग ने क्रांति के तीन पड़ाव बताए। पहला भूख से बिलबिला रहे आदिवासियों और वनवासियों के समूह बनाना और उनका भरोसा हासिल करना। दूसरा दिखावे के लिए ही सही पर इनकी सहायता के लिए लोकप्रिय आंदोलन खड़ा करना और प्रचार में इन भूखे नंगों की मदद लेकर आंदोलन को मजबूत बनाना, इसका विस्तार करना। इसी दूसरे चरण में माओवाद छोटे छोटे सशस्त्र दलों के गठन की वक़ालत करता है। इन दोनों चरणों की कामयाबी के बाद माओवाद का अगला कदम होता है इन सशस्त्र दलों को गांवों में संगठित करना और वाजिब ताक़त हासिल करने के बाद शहरों की तरफ कूच कर देना। छत्तीसगढ़ में धमतरी के पास सिहावा के करीब 15 पुलिस कर्मियों की हत्या अगर कोई संकेत है तो छत्तीसगढ़ में नक्सलवादियों के शहरी बस्तियों तक पहुंचने में अब ज़्यादा वक्त नहीं बचा है। वैसे उद्योगपतियों से हफ्तावसूली तो शहरी क्षेत्रों में शुरू हो ही चुकी है। छत्तीसगढ़ के दो तिहाई से ज्यादा हिस्सों पर नक्सलवादियों का प्रभाव है, और इन इलाकों के जंगलों में अब सूबे के मुख्यमंत्री रमन सिंह की नहीं नक्सलियों की समानांतर सरकार चलती है। चाहे वो उत्तर में सरगुजा और कोरबा की एसईसीएल खदानें हों या दक्षिण में बस्तर की एनएमडीसी की खदानें, बिना नक्सलियों की इच्छा के यहां कोई ठेकेदार काम नहीं कर सकता। तेंदूपत्ता ठेकेदारों से सैकड़ों की वसूली अब पुरानी बात हो चुकी, बस्तर में अब वसूली लाखों में होती है वो भी खुले आम। छत्तीसगढ़ में मीडिया पर इस तरह की भी अघोषित पाबंदी है कि नक्सलियों के बढ़ते प्रभाव के बारे में वो कम ही लिखे। कभी सरकारी विज्ञापनों का लालच तो कभी नक्सलियों को महिमामंडित करने से रोकने के लिए बनाए गए कानून की धौंस दिखाकर नक्सलप्रभावित इलाकों के पत्रकारों को सरकारी महकमा अरदब में लेने की कोशिश करता रहता है। लेकिन, ये मूल समस्या का हल नहीं बल्कि बदबू देने लगी व्यवस्था पर टाट डालने की कोशिश भर है, लेकिन टाट के परदों से पाखाने की बदबू भला छुपी है कहीं?
वैसे चौंकाने वाली बात ये भी है चीन के माओ त्से तुंग को छोड़कर देश का नक्सलवाद अब क्यूबा के चे गुवेरा सरीखे चमत्कार की आशा करने लगा है। चे की रणनीति के तहत नक्सली अब पुलिस को सीधे चुनौती देते हैं, उन्हें हिंसा के लिए प्रेरित करते हैं और फिर पुलिस की तानाशाही के खिलाफ आदिवासियों को भड़का कर अपनी तरफ शामिल करते हैं। सिहावा कांड से नक्सलियों के पूरी तरह से चे गुवेरा की कार्यशैली से प्रभावित होने का पहला प्रमाण मिलता है। दिन ढलते ही दूसरे जिले की पुलिस तक अपना खबरी भेजकर नक्सलियों ने गलत जानकारी पहुंचाई। पुलिस वाले बिना ज़मीनी सूचना लिए या कोई रणनीति बनाए प्राइवेट वाहनों में सवार होकर जंगल के भीतर जा पहुंचे। जहां पुलिस वाले पहुंचे वो इलाका दूसरे जिले का था। दिखावे के लिए गांव वालों का झगड़ा दिखाया गया। पुलिस ने उचट रही हाट बाज़ार में जाकर वनवासियों को धमकाया डराया और काम पूरा हुआ समझ उसी रास्ते से लौट लिए, जिस रास्ते से वो आए थे, जबकि नक्सल विरोधी ऑपरेशन में लगे हर पुलिस कर्मी को ये स्पष्ट निर्देश हैं कि जंगल में जिस रास्ते से प्रवेश किया जाए, उस रास्ते कभी ना लौटा जाए।
लेकिन, ऐसा हुआ और नक्सलियों ने पूरी पुलिस पार्टी उड़ा दी। पुलिस पर हमले के बाद से इलाके में वन वासियों और आदिवासियों के खिलाफ पुलिस अभियान जारी है। दर्जनों लोग हवालात में हैं और बाहर बढ़ने लगा है पुलिस के खिलाफ असंतोष। और, यही तो नक्सली चाहते हैं। सिहावा जैसे हालात पश्चिम बंगाल में लालगढ़ से लेकर झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश तक माओवादियों ने जानबूझकर बनाए हैं। नेपाल से सटे उत्तर प्रदेश के जिलों से जो लाल गलियारा शुरू होता है, वो इन प्रदेशों से होता हुआ आंध्र प्रदेश के आगे तमिलनाडु से होता हुआ केरल तक पहुंचता है। 2003 में जब पीपल्स वॉर ग्रुप और माओवादी कम्यूनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी मिलकर जब सीपीआई- माओवादी हुए तो इन सूबों की पुलिस ने इसे बहुत हल्के में लिया। जबकि, ये माओवादियों की एक बहुत बड़ी योजना की शुरुआत का संकेत था। ये विलय हुआ था दक्षिण एशिया में सक्रिय सभी माओवादी गुटों को एक साथ लाने के लिए। इसी के साथ नक्सलवाद को आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और बिहार के कॉलेजों तक सक्रियता से पहुंचाया गया। नक्सलवाद से लैपटॉप और सेटैलाइट फोन रखने वाले लोग जुड़े और नेपाल से श्रीलंका तक माओवादियों का बेखटके आना जाना हो गया। और, नेपाल की चीन से बढ़ती नजदीकियों के बारे में तो प्रचंड के सत्ता में आने से पहले ही बातें होने लगी थीं। नक्सलवादी अपने पहले मकसद यानी दक्षिण एशिया के सभी माओवादियों को एक छाते के नीचे लाकर कोऑर्डिनेशन कमेटी ऑफ माओइस्ट पार्टीज़ ऑफ साउथ एशिया नामक संगठन बनाने में कामयाब रहे हैं, लेकिन दक्षिण एशिया की सरकारों के बीच तो दूर दिल्ली और नक्सलप्रभावित राज्यों के बीच भी ऐसी कोई कोऑर्डिनेशन कमेटी अब तक नहीं बन पाई है, जो नक्सलियों के खिलाफ साझा अभियान चलाने का इरादा रखती हो।
राज्यों की राजधानियों के एसी कमरों में बैठकर एंटी नक्सल ऑपरेशन चलाए जा रहे हैं। जंगलों में जवानों की जानें जा रही हैं। और, अफसरों के चेहरों पर शिकन तक नहीं है। नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास के नाम पर सरकारी रकम से ठेकेदार और अफसर किस तरह अपनी जेबें भर रहे हैं, इसे देखना हो तो अपनी जान जोखिम में डालकर बस्तर के किसी भी गांव की सैर कर आइए। राशन में 25 पैसे किलो की दर से मिलने वाला नमक वनवासियों तक नहीं बल्कि सीधे इलाके के कारोबारियों के पास पहुंचता है। और, खुले बाज़ार में यही नमक 3 से 4 रुपये किलो की दर पर खुलेआम बिकता है। बस्तर में ड्यूटी करने आए जवानों को मलेरिया तक से बचाने के इंतजाम नाकाफ़ी हैं। दिल्ली, मुंबई और दूसरे बड़े शहरों में रहने वालों को ये जानकर हैरानी हो सकती है कि बस्तर में आज भी मलेरिया ही सबसे बड़ी जानलेवा बीमारी है। सरकारी अस्पतालों की हालत ऐसी है कि बस पूछिए मत। जन्म पूर्व मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत से कई गुना है, जबकि कुपोषण के ताजा आंकड़े तो चौंकाने वाले हैं।
बस्तर के कई गावों में आज भी वनवासी और आदिवासी बस एक समय ही भोजन करते हैं। इस सबके बावजूद पटवारी हो या फिर वन विभाग का कर्मचारी वनवासियों को डराता धमकाता है। उनकी स्थानांतरण खेती की परंपरा को कानून के खिलाफ बताता है। वन्य कानूनों से अनजान आदिवासियों को फसलों को बर्बाद करने वाले सुअर को मारने तक में जेल भेजने की धमकी देना या फिर सरेआम पिटाई करना, ये सब वो बातें हैं जो नक्सलवाद को यहां पनपने में मदद देती हैं। नक्सली 10- 12 के गोल में आते हैं, ऐसे पटवारी या वन कर्मी से कान पकड़कर उठक बैठक कराते हैं और गांव वाले बोल उठते हैं- लाल सलाम। लेकिन, रत्ती रत्ती भरता ये गुस्सा नक्सलवाद की जड़ें फैलाने में मदद कर रहा है। ये जड़ें जंगलों की मिट्टी से निकलकर शहरों की बुनियादों को छूने लगी हैं। नक्सलवाद अब किसी एक राज्य की समस्या भर नहीं है, ये देश पर आई आफ़त है। दिल्ली की सरकार इसे जितना जल्दी समझ
ले उतना ही अच्छा, क्योंकि 2015 में अब साल ही कितने बचे हैं।
फोटो परिचय: बेहतरीन लौह अयस्क की खान बेलाडिला की सबसे ऊंची चोटी पर लेखक, पीछे विस्फोट के बाद धरती से बाहर आया लौह अयस्क दिख रहा है।
(इस लेख का संपादित स्वरूप 'नई दुनिया' के सभी संस्करणों में 26 जून को 'माओवादियों का ख़ौफनाक मिशन' शीर्षक से संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ। लिंक है - http://epaper.naidunia.com/Details.aspx?id=69682&boxid=27670770 )

6 टिप्‍पणियां:

  1. जब राजनेता अपनी कुत्सित महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इन्ही के आड़े धन कमाने तथा अपने प्रतिद्वंद्वियों को ठिकाने लगाने तक के लिए इन्हें संरक्षण देते रहें तो कैसे कल्पना की जा सकती है की यह समस्या कभी इन कर्णधारों को समस्या लगेगी.

    आपने जो भी कहा आपने आलेख में इससे न आमजन अनजान हैं न नेता....पर समस्या यह है की आमजन के पास वह सामर्थ्य नहीं की जुबान चलने के अलावा यह कुछ कर सके और सामर्थ्यवान इसके उन्मूलन की सोच ही नहीं रहे....

    लेकिन फिर भी ऐसे में इस तरह के आलेख एक सकारात्मक सोच और माहौल बनाने में सहायक तो हैं ही,क्या. पता अप्रत्यक्ष रूप से ही सही यह भी काम कर जाय....

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  2. उस इलाके की भयावह स्थिति को जानकर रोंगटे खडे हो गए .. वैसे झारखंड में भी स्थिति कुछ अच्‍छी नहीं .. यहां तो माओवादियों द्वारा किए गए बंद में खास खास रूट की ट्रेने तक भी कैंसिल रखनी पडती हैं ।

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  3. एक समय था कि जब
    भारतीय सँदेश चीन मेँ
    अपनाया गया और बौध्ध धर्म चीन मेँ स्थापित हुआ और आज चीन के माओ और चे की सीख लिये
    माओवादी ,
    एक लाल क्षेत्र खडा करने की योजना बना रहे हैँ !
    आलेख, आँखेँ खोलनेवाला है -
    सरकार की नीँद कब उडेगी ?
    तालीबान की तरह
    जब ये दस्ता निरँकुश हो जायेगा तब ?
    बेचारे आदीवासी भी बरबाद हो जायेँगेँ ...

    - लावण्या

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  4. पंकज जी बहुत बहुत बधाई .....संपादकीय पृष्ठ पर छपना बहुत बड़ी बात हटा है.....!!!

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  5. दिल दहलाने वाली पोस्ट....क्या सरकार ने नक्सलवाद से निपटने के लिए कभी गंभीरता से कोशिश करेगी..?

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