बुधवार, 29 अप्रैल 2009

बॉलीवुड का मर्सिया ?

साउथ अफ्रीका में चल रहे आईपीएल के जश्न के बीच देसी मनोरंजन उद्योग का मर्सिया भी पढ़ा जा रहा है। जी हां, भले क्रिकेट मैच के शोर में हिंदी सिनेमा का ये शोक गीत किसी को सुनाई ना दे रहा हो, लेकिन जिन्हें इस उद्योग की चिंता है, वो नब्ज़ पर लगातार हाथ रखे हैं। नब्ज डूब रही है और इसकी चिंता ना तो सरकार को है, और उन ना कॉरपोरेट घरानों को जिन्होंने पिछले दो तीन साल में हिंदी सिनेमा को रसातल में पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। और, अब इन्हीं कॉरपोरेट घरानों को आम आदमी की गाढ़ी कमाई से खरीदी जाने वाली टिकट में बराबर का हिस्सा चाहिए। ब्रेकिंग न्यूज़ ये है कि हिंदी सिनेमा का कारोबार इस महीने पिछले तीन साल के न्यूनतम पर पहुंच गया है, और इसके लिए ज़िम्मेदार है फिल्म निर्माताओं, वितरकों और मल्टीप्लेक्सेस के बीच चल रहा विवाद।

अंदरखाने की मानें तो मंदी के मार से परेशान हिंदी सिनेमा के कॉरपोरेट घरानों ने अपनी नाकामी का ठीकरा अब मल्टीप्लेक्सेस पर फोड़ने की तैयारी कर ली है। पहले तो इन प्रोडक्शन हाउसेस ने सितारों को उनकी हैसियत से दस गुने तक कीमतें अदा कीं और जब चार-पांच करोड़ में बनने वाली फिल्मों का बजट तीस-चालीस करोड़ तक जा पहुंचा तो इसकी वसूली की चिंता उन्हें सताने लगी। शुरू शुरू में इन फिल्मों की कमाई हुई भी, लेकिन पहले यशराज फिल्म्स का सिक्का खोटा निकलने और बाद में टी सीरीज़ को अपनी फिल्म में भारी घाटा होते ही इन्हें दिन में तारे नज़र आने लगे। अब हालात ये हैं कि फिल्म निर्माता मल्टीप्लेक्सेस की कमाई में आधा हिस्सा मांग रहे हैं और बड़ी बात नहीं कि कल को कोल्ड ड्रिंक और पार्किंग से होने वाली कमाई में भी हिस्सेदारी मांगने लगें। ये कुछ कुछ वैसी ही हालत है कि कोई अपना घर खुद लुटा दे और फिर पड़ोसी की रोटी पर नज़र गड़ा दे।

पिछले दो तीन सालों से हिंदी सिनेमा के पाताल में जाने की पटकथा लिखी जा रही थी। हिंदी सिनेमा में ऐसे लोगों की एक पूरी जमात जुट गई, जिन्हें फिल्म मेंकिंग का ‘क’ भी नहीं मालूम। मशहूर फिल्म कंपनी टीवी 18 के दफ्तर में एक कहानी के नरेशन के दौरान अपने एक मित्र निर्देशक की मनोस्थिति मुझे आज तक याद है। वहां कहानी पर कोई बात ही नहीं कर रहा था, सब बस ये पूछ रहे थे कि फलां रोल के लिए किस हीरो को ला सकते हैं, या फिर फलां रोल के लिए किस हीरोइन को ला सकते हैं। और, हीरो हीरोइन्स को भी कहानी से कहां मतलब रह गया था, वो पहला फोन जाते ही सबसे पहले बैनर का नाम पूछते रहे हैं। भूल गए ये लोग वो दिन सब अपना पहला ब्रेक पाने के लिए वो चप्पलें घिसते थे। हिंदी सिनेमा किस संकट से गुजर रहा है, इसका अंदाजा लगाने के लिए बस ये ही जानना काफी है कि देश के करीब ढाई सौ मल्टीप्लेक्स अपना शटर गिराने की तैयारी में हैं और ये बयान मल्टीप्लेक्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया की तरफ से आया है।

जिन्हें हिंदी सिनेमा की परवाह है, वो सब परेशान हैं। मल्टीप्लेक्सेस में 15 से लेकर 20 फीसदी सीटें ही भर पा रही हैं। अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि नई फिल्मों की रिलीज़ पर लगी एक तरफा रोक से कोई 200 करोड़ का घाटा मल्टीप्लेक्सेस को हो सकता है। लेकिन, निर्माता मस्त हैं। वो तो सोच रहे हैं कि इसी बहाने आईपीएल का तूफान गुज़र जाए और थोड़ी गर्मी भी कम हो जाए। चौंकाने वाली बात ये भी है कि पिछले छह महीने से हिंदी सिनेमा का कोई कायदे का नया प्रोजेक्ट शुरू ही नहीं हो पाया है और जो बड़े बड़े प्रोजेक्ट सितारों को मुंहमांगी कीमतें देकर शुरू किए गए थे, उनमें से तमाम बीच में ही रुक गए हैं। कश्ती मझधार में है, और माझी ने नाव से किनारा कर लिया है।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

छत्तीसगढ़

खुदा की कसम ये कश्मीर तो नहीं
लेकिन कश्मीर से कम भी नहीं...

रायपुर, १६ अप्रैल। सुबह दफ्तर पहुंचने के बाद लोक सभा चुनाव के पहले चरण के मतदान के दौरान आ रही ख़बरों के बीच भागदौड़ चल ही रही थी कि मुंबई से पुराने मित्र श्रीनिवासन रामचंद्रन, जिन्हें सब रामा के नाम से ज़्यादा जानते हैं, का एसएमएस आया, “सर आप संभलना, नक्सल से दूर रहो।” रामा मुंबई में रहते हैं और मुंबई समेत देश के दूसरे हिस्सों के लोग भी छत्तीसगढ़ को आज तक नक्सलवाद से अलग करके नहीं देख पाए। दोपहर तक हालांकि सूबे में नक्सली हिंसा से छह लोगों की जानें जा चुकी हैं, लेकिन इसके बावजूद आम लोगों का हौसला कम नहीं हुआ है। और, यही वो हौसला है जो बदलते छत्तीसगढ़ की पहचान बन चुका है।

अपनी पहली फीचर फिल्म के रिलीज़ होने के बाद अगली फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम करने के दौरान ही मेरा छत्तीसगढ़ आना हुआ। यहां आया तो इस सूबे को लेकर कोई खास तस्वीर दिमाग में मैंने पहले से खींची नहीं थी, क्योंकि अक्सर पूर्वाग्रह में रहते हुए आप चीज़ों को सही नज़रिए से देख नहीं पाते। लेकिन तस्वीर का असली रुख़ यहां आने के बाद ही देखने को मिलता है।

देश के तमाम राज्यों के भ्रमण के दौरान मैंने इनके आंतरिक अंचल देखे हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ की छटा इन सबसे निराली है। दिल्ली के एयरकंडीशंड स्टूडियो में बैठे न्यूज़ चैनल वालों को सिर्फ नक्सली हमलों की ब्रेकिंग न्यूज़ चलाने के अलावा यहां के दूसरे हिस्सों को भी देखना चाहिए। छत्तीसगढ़ भगवान राम की ननिहाल है और इसका दण्डकारण्य आज भी उतना ही मोहक है, जितना शायद त्रेता युग में रहा होगा। नक्सलियों का दबदबा जैसी बातें यहां कम ही होती हैं, और नक्सलियों की पकड़ अगर है तो बस बस्तर और कांकेर जैसी जगहों के उन दुर्गम इलाकों में, जहां अभी सड़क और संपर्क के साधन नहीं बन पाए हैं। सरगुजा का झारखंड से लगा इलाका भी कभी कभी अशांत हो जाता है, लेकिन सिर्फ इनके बूते ही छत्तीसगढ़ को ख़ारिज नहीं किया जा सकता।

देश का सबसे बड़ा जल प्रपात छत्तीसगढ के चित्रकोट में है, जिन लोगों ने भी इसे देखा है, वो इसकी खूबसूरती और इसके आसपास की प्राकृतिक सुंदरता से मोहित हुए बिना नहीं रह सके। कुछ कुछ नियाग्रा फाल सी बनावट लिए ये झरना सितंबर के आसपास अपने पूरे शबाब पर होता है, नदी भर के बहती है और झरना खुल के झरता है। छत्तीसगढ़ सरकार पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए खूब ज़ोर लगा रही है, लेकिन इसकी ताक़त एक दिशा में ना होने से ही शायद कोशिशों का असर हो नहीं पा रहा। एडवेंचर टूरिज़्म के यहां तमाम ठिकाने हैं, जहां वाटर स्पोर्ट्स से लेकर ट्रेकिंग, रॉक क्लाइंबिंग, पैरा सेलिंग और बंजी जंपिंग तक की जा सकती है। हाल ही में मैनपाट की यात्रा के दौरान कुछ ऐसे उत्साही लोग भी मिले, जिन्होंने अपने खर्च पर इस सबके लिए व्यस्था कर रखी है। जंगलों के बीच का शांत माहौल यहां किसी को भी लंबे अरसे तक बांधे रह सकता है। शांत, निर्जन और नि:शब्द जंगलों की खूबसूरती छत्तीसगढ़ की कुदरती ख़ासियत से और बढ़ जाती है। मध्यप्रदेश के पठारों के बाद धरती जब बंगाल की खाड़ी की तरफ बढ़ती है तो एक अनोखा सा ढलान इस सूबे में देखने को मिलता है। और, इस ढलान पर सूरज की रोशनी जब एक बिरले कोण से पड़ती है, यहां का पत्ता पत्ता बूटा बूटा कुछ ऐसे रौशन हो उठता है, जैसे मणिरत्नम की किसी फिल्म का कोई कैनवस।

(...जारी)

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

मेरी पहली बड़ी स्टोरी और राजेंद्र वढेरा...


रायपुर, 4 अप्रैल, 2009।
मुरादाबाद जैसे छोटे शहरों में क्राइम रिपोर्टिंग करते हुए कोई संवाददाता किसी भी तरह की कैसी बड़ी से बड़ी स्टोरी कर सकता है? यही कि कभी कोई आईएसआई के एजेंट की गिरफ़्तारी पर ख़बर मिल जाए या किसी नए प्रशिक्षु आईपीएस के चाल-चलन पर रिपोर्टर की नज़र पड़ जाए। लेकिन, मैं इस मामले में खुशकिस्मत रहा। प्रियंका गांधी को रॉबर्ट वढेरा भाए या रॉबर्ट को प्रियंका अच्छी लगीं, इस पर मीडिया में कभी कुछ ज़्यादा लिखा नहीं गया। लेकिन, रॉबर्ट के पिता राजेंद्र वढेरा ने कोई 15 साल से पहले पहली बार दोनों के रिश्तों का खुलासा किया था, और तब ये ख़बर “अमर उजाला” अख़बार के सभी संस्करणों के पहले पन्ने पर छपी थी। ये ख़बर पढ़कर दिल्ली के तमाम पत्रकार मुरादाबाद पहुंचे और इन्हीं में से एक भावदीप कंग का एक वाक्य मेरे कानों में बहुत दिनों तक घूमता रहा – “You are wasting your time in Moradabad.”

मेरे काम को किसी दूसरे पत्रकार से मिली वो पहली बड़ी तारीफ़ थी और आज अगर मैं एक न्यूज़ चैनल का मैनेजिंग एडीटर बन पाया तो उसके पीछे रॉबर्ट – प्रियंका की वो स्टोरी और उसके बाद भावदीप कंग के उस वाक्य का बड़ा हाथ रहा है। उस दिन से पहली रात का पूरा वाकया कुछ इस तरह रहा कि अपना पूरा काम निपटा कर आदतन मैं रात कोई 11 बजे मुरादाबाद के सभी पुलिस थानों को फोन कर रहा था कि कहीं कोई लेट नाइट क्राइम तो नहीं हुआ। इसी समय पता चला कि शहर के किसी घर के आगे ब्लैक कैट कमांडोज खड़े हैं। कोई वीआईपी जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क से चलकर दिल्ली जा रहा है और कुछ देर के लिए शहर के एक घर में रुका है। रात में तो ख़ैर ज्यादा इस बारे में कुछ पता चला नहीं लेकिन अगली सुबह मैं इस मामले की तह में जाने के लिए निकल पड़ा। दो तीन घंटे की खोजबीन के बाद जो सामने आया, उसे पकड़कर आगे बढ़ा तो राजेंद्र वढेरा के घर तक जा पहुंचा। शुरुआती ना नुकुर के बाद राजेंद्र वढेरा बात करने को तैयार हो गए।

राजेंद्र वढेरा ने अपने घर के बाहर ही सड़क किनारे एक फोल्डिंग चेयर डालकर मुझसे बात शुरू कर दी। उन्होंने खुलकर बताया कि अपनी पत्नी से उनके रिश्ते बस नाम भर के रह गए हैं। अपने परिवार के बारे में उन्होंने और भी तमाम जानकारियां दीं। दोनों बेटों रिचर्ड और रॉबर्ट के बारे में बताया। बेटी मिशेल के बारे में भी बातचीत की। लेकिन, उस दिन की मेरी पड़ताल सिर्फ प्रियंका और रॉबर्ट की दोस्ती को लेकर थी और राजेंद्र वढेरा ने तब बताया था कि दोनों की दोस्ती बैले डांसिंग के दौरान हुई। उस दिन के बाद जब तक मैं मुरादाबाद में रहा राजेंद्र वढेरा से मेरी बातचीत होती रही। देश के प्रधानमंत्री रहे एक शख्स की बेटी से अपने बेटे की दोस्ती पर उन्हें नाज़ रहा हो, ऐसी कोई बात कभी इस बातचीत के दौरान सामने नहीं आई। उनकी आवाज़ टूटे रिश्तों का बोझ ढो रहे एक ऐसे शख्स की आवाज़ लगती थी, जिसने अपने सपनों को अपने सामने तार तार होते देखा। फिर 2001 में बेटी मिशेल की एक कार दुर्घटना में मौत और दो साल बाद यानी 2003 में ही बेटे रिचर्ड वढेरा की मौत ने शायद राजेंद्र वढेरा को भीतर तक तोड़ दिया।
राजेंद्र वढेरा मेरे लिए कभी मेरी पहली ऑल एडीशन बाइ लाइन वाली ख़बर के सूत्र भर नहीं रहे। मुरादाबाद छूटने के बाद उनसे मेरी बातचीत भी कम होती गई, लेकिन इस बातचीत के दौरान कई बार उन्होंने ऐसी बातों की तरफ़ इशारा किया, जो सुर्खियां बन सकती थीं। लेकिन, उन ख़बरों की ना तो पुष्टि संभव थी और ना ही उनके सिरे तलाशने की मेरी तरफ़ से ही कोई जद्दोजहद की गई। आज सुबह अख़बार में राजेंद्र वढेरा के निधन की ख़बर पढ़कर उनका चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम गया। वही फोल्डिंग चेयर पर सफेद पाजामा और एक सामान्य सी शर्ट पहने बैठे राजेंद्र वढेरा का चेहरा।
राजेंद्र वढेरा अपने टूटे रिश्तों से लाचार थे। शायद, जो सुख पाने की लालसा में उन्होंने जवानी के जोश को दांव पर लगाया वो उम्र ढलने के साथ उनको शांति नहीं दे पाया। वो बातचीत में हताश लगते रहे, दिल्ली वो अक्सर आते जाते रहते थे, लेकिन दिल्ली ने भी शायद उनका दिल तोड़ा और इसी टूटे दिल के साथ वो दुनिया से विदा हो गए। राजेंद्र जी के निधन पर मुझे काफी अफसोस हुआ, मैं अख़बार पढ़ने के बाद देर तक दुखी भी रहा। लेकिन, वो मन्ना डे का गाया गाना है ना...कसमें वादे प्यार वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या, कोई किसी का नहीं ये झूठे नाते हैं नातों का क्या...।