रविवार, 29 नवंबर 2009

अजीजन मस्तानी और बहुरुपिया का प्रदर्शन एनआरआई फिल्म फेस्टिवल 2010 में 6 जनवरी को

पत्रकार से फिल्म मेकर बने पंकज शुक्ल की दो शॉर्ट फिल्में जनवरी में दिल्ली में होने जा रहे प्रवासी फिल्म समारोह यानी एनआरआई फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शन के लिए चयनित हुई हैं। इन फिल्मों के नाम हैं अज़ीजन मस्तानी और बहुरुपिया। ये दोनों फिल्में 6 जनवरी को सुबह 11 बजे इंडिया हैबिटाट सेंटर के गुलमोहर थिएटर में दिखाई जाएंगी। कुशाग्र क्रिएशंस के बैनर तले बनी इन फिल्मों के निर्माता शरद मिश्र हैं और इनकी परिकल्पना भी इन्हीं की। पंकज के अलावा मीरा नायर और निर्देशकद्वय राज निदिमोरु-कृष्णा डीके की भी दो दो फिल्में इस समारोह में शामिल की गई हैं।

एनआरआई फिल्म फेस्टिवल, दिल्ली में जिन अन्य फिल्मों को प्रदर्शन के लिए चयनित किया गया है उनमें निर्देशक मीरा नायर की फिल्में मॉनसून वेडिंग और द नेमसेक, निर्देशक बेन रेखी की फिल्म वॉटरबॉर्न, निर्देशक कबीर खान की फिल्म न्यूयॉर्क, निर्देशक दिलीप मेहता की फिल्म कुकिंग विद स्टेला, निर्देशक कुणाल रॉय कपूर की फिल्म प्रेसीडेंट इज़ कमिंग, निर्देशक पामेला रूक्स की फिल्म ट्रेन टू पाकिस्तान, निर्देशक नवदीप कंडोला की फिल्म फ्लाइंग सिख्स, निर्देशक राज निदिमोरू और कृष्णा डीके की फिल्में 99 और फ्लेवर्स, निर्देशक डॉ. निखिल कौशिक की फिल्म भविष्य, निर्देशक मनन सिंह कटोहोरा की फिल्म एक्स्ट्रोस्पेक्शन और निर्देशक नसरीन मुन्नी कबीर की फिल्म बिस्मिल्ला ऑफ बनारस शामिल हैं।

नई दिल्ली के इंडिया हैबिटाट सेंटर में तीन जनवरी से छह जनवरी 2010 तक चलने वाले इस फिल्म समारोह में दिए जाने वाले पुरस्कारों का विमोचन एक दिसंबर को होटल सम्राट में मॉरीशस के राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ ने किया। मॉरीशस की सरकार इस फिल्म समारोह को पूरा सहयोग भी दे रही है।

निर्देशक पंकज शुक्ल ने अपनी दो शॉर्ट फिल्मों के चयन पर खुशी ज़ाहिर करते हुए बताया कि इन दोनों फिल्मों से ही अप्रवासी भारतीयों और भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों को अपने देश के इतिहास और संस्कृति के बारे में अनदेखे और अनजाने तथ्यों से परिचित होने का मौका मिलेगा।

पंकज ने बताया कि फिल्म अजीजन मस्तानी कानपुर की एक गुमनाम स्वतंत्रता सेनानी अजीजन बाई के देश के प्रति समर्पण और उसके संघर्ष की कहानी है जबकि फिल्म बहुरुपिया देश की एक विलुप्तप्राय लोक कला की बानगी है। इन दोनों फिल्मों का निर्देशन करने के अलावा पंकज ने इन फिल्मों की पटकथा भी लिखी है।

(मीडिया खबर वेबसाइट पर इस खबर के लिंक पर जाने के लिए http://www.mediakhabar.com/topicdetails.aspx?mid=22&tid=1771 पर क्लिक करें)

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

स्माइल पिंकी को अलका सक्सेना का साथ



ऑस्कर विजेता डॉक्यूमेंट्री फिल्म स्माइल पिंकी का भारतीय टेलीविज़न पर कल शनिवार को बाल दिवस के मौके पर प्रीमियर होने जा रहा है। इस फिल्म को सबसे पहले देखने का का मौका पाएंगे बिहार के दर्शक, जहां कटे होंठ और तालू के मामले देश में सबसे ज़्यादा पाए जाते हैं।
फिल्म को भारतीय दर्शकों के लिए प्रस्तुत कर रही हैं मशहूर एंकर और टीवी जर्नलिस्ट अलका सक्सेना। सुश्री सक्सेना का चयन अंतरराष्ट्रीय संस्था स्माइल ट्रेन ने तमाम भारतीय मीडिया हस्तियों के नामों पर विचार के बाद किया। स्माइल ट्रेन के दक्षिण एशिया प्रमुख श्री सतीश कालरा के मुताबिक ऐश्वर्या राय के संस्था से जुड़े होने के बावजूद फिल्म को किसी वरिष्ठ पत्रकार के ज़रिए प्रस्तुत करने का फैसला इसलिए लिया गया ताकि इस पुनीत कार्य को ग्लैमर से जुड़ने से बचाया जा सके।
सुश्री अलका सक्सेना का कहना है कि स्माइल ट्रेन संस्था जिस समर्पण से कटे होंठ औऱ तालू वाले बच्चों की मुफ्त मदद कर रही है उसे देखते हुए ही उन्होंने ये काम नि:शुल्क करने का फैसला किया। उन्होंने लोगों से ये फिल्म देखने की अपील की ताकि कटे होंठे और तालू के साथ पैदा होने वाले बच्चों के घर वालों तक यह संदेश पहुंच सके और ऐसे बच्चों का मुफ्त इलाज़ हो सके।
फिल्म स्माइल पिंकी का प्रसारण 14 नवंबर को ईटीवी बिहार पर शाम 4 बजे और ईटीवी मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान पर शाम 6 बजकर 30 मिनट पर होगा। डीडी नेशनल पर ये फिल्म 15 नवंबर को सुबह 9.30 बजे दिखाई जाएगी।
ऑस्कर विजेता फिल्म स्माइल पिंकी का भारतीय टेलीविजन पर सुश्री अलका सक्सेना द्वारा प्रस्तुतीकरण साउंड एन क्लिप्स ने तैयार किया है।

PS: Sound N Clips is a TV and Film production House owned by Film Maker and Journalist Pankaj Shukla.

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

"हम हैं राष्ट्र की ऊर्जा की बुनियाद"


अरसा हुए जब टेलीविजन पर एक विज्ञापन आया करता था, शायद फोर स्क्वायर वालों का विज्ञापन हुआ करता था जिसमें नयन मोंगिया को बॉलिंग करते दिखाया जाता था। और विज्ञापन के आखिर में एक कैचलाइन उभरती थी - YOU NEVER KNOW WHAT YOU CAN BECOME.

हम जो देखते हैं, सुनते हैं, करते हैं और बोलते हैं। उसमें से काफी कुछ ऐसा होता है जो हमारे अवचेतन मस्तिष्क में कही ना कहीं चस्पा होकर रह जाता है। और फिर जब कभी ऐसा कुछ हमारे साथ फिर से होता है तो स्मृतियां एकाएक ताज़ा हो जाती हैं। सर्जनात्मक कार्यों के लिए स्वच्छंद वातारवण के साथ साथ ऐसे लोगों का साथ भी ज़रूरी होता है जो आपको लगातार अपनी सीमाएं तो़ड़ने के लिए प्रेरित करते रहें। निगरानी में रहकर क्रिएटिव काम शायद ही कोई कर पाया हो।

इधर पिछले कुछ महीनों से लघु फिल्मों के निर्माण में ऐसा उलझा कि ना दिन की फिकर रही ना रात की चिंता। प्रेरक मित्र शरद मिश्र से इस दरम्यान नोंक झोंक भी चलती रही है। लेकिन एक सच्चे मित्र के सारे गुण मुझे शरद में दिखते हैं। सातवीं या आठवीं में दोस्ती की व्याख्या करने वाला संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा था शायद कुछ कुछ यूं है-

पापान् निवारयति योजयते हिताय।
गुह्यं निगूहति गुणान् प्रकटीकरोति।।

आपद गतं च न जहाति दताति काले।
सन्मित्र लक्षणं इदं प्रवदंति संत:।।

इसका तर्जुमा सुधी लोग तो समझते ही हैं। बस यहां इसे लिखने का आशय ये है कि अगर सच्चा मित्र आपको प्रेरित करे तो कई बार आप अपनी ही खींची लकीर को छोटा कर जाते हैं। प्रिंट से टीवी और वहां से फिल्म तक का सफर तय करने के दौरान अपनी लेखनी की तारीफ तो मुझे अक्सर सुनने को मिली लेकिन किसी ने इस बात के लिए प्रेरित नहीं किया कि मैं निर्देशन और कथा- कहानी के साथ साथ गीत लेखन में भी अपना हुनर दिखा सकता हूं।

भाई शरद मिश्र ने ललकारा और उनकी ललकार कुछ कुछ "का चुप साध रहेउ बलवाना" की तर्ज पर अपना काम कर गई। एक गीत लिखा है। और ये लिखा गया है भारत सरकार की नवरत्न कंपनी कोल इंडिया के लिए। आप भी देखें और अपनी प्रतिक्रिया दें। इस गीत को गायक कैलाश खेर के स्वरों में संगीतकार धनंजय मिश्र ने संगीतबद्ध किया है। गीत का विमोचन एक नवंबर 2009 को कोयला मंत्री श्री श्रीप्रकाश जायसवाल कोलकाता में करने जा रहे हैं। इस गीत की पंचलाइन - हम हैं राष्ट्र की ऊर्जा की बुनियाद - साथी शरद मिश्र की सुझाई हुई है।

बंदगी, बंदगी, बंदगी,
स्याह हीरे की बंदगी।

ज़िंदगी, ज़िंदगी, ज़िंदगी,
बदल रही ज़िंदगी।

रौशनी का राग चले
सीने में आग जले

सुनते हम सबकी फरियाद
हम हैं राष्ट्र की ऊर्जा की बुनियाद।

कोल इंडिया, कोल इंडिया।
कोल इंडिया, कोल इंडिया।

रफ्तार की रेल में
खुशियों के मेल में

मुन्नी की चमक है
अम्मा की गमक है

सुनते हम सबकी फरियाद
हम हैं राष्ट्र की ऊर्जा की बुनियाद।

कोल इंडिया, कोल इंडिया।
कोल इंडिया, कोल इंडिया।

हरियाली की ज़िम्मेदारी
करें भविष्य की पहरेदारी

स्वस्थ समाज संकल्प हमारा
बहे विकास की कल कल धारा

सुनते हम सबकी फरियाद
हम हैं राष्ट्र की ऊर्जा की बुनियाद।

कोल इंडिया, कोल इंडिया।
कोल इंडिया, कोल इंडिया।

(गीत फिल्म राइटर्स एसोसिएशन में लेखक के नाम से पंजीकृत)

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

दंश : The Sting


शॉर्ट फिल्म नंबर 3


टीना को दफ्तर ज्वाइन किए हुए अभी हफ्ता भर भी नहीं हुआ था और उसे लगने लगा था कि कंपनी के सीईओ की उस पर कुछ खास ही नज़रे इनायत होने लगी है। टीना देखने में सुंदर थी। आकर्षक कद काठी। जल्दी से जल्दी सबसे आगे निकल जाने का अरमान। इंटरव्यू के दौरान भी सीईओ कुमार साहब ने उससे पूछा था कि अगले पांच साल में तुम खुद को कहां देखना चाहती हो और उसने उस वक्त उसके दिमाग में जो भी आया बोल दिया। उसने कहा था सर मैं खुद को आपकी सीट पर देखना चाहती हूं। एक सेक्रेटरी के लिए ये था तो अजीब जवाब लेकिन कुमार साहब ने ना जाने क्या सोचकर तब बस हल्का सा मुस्कुरा दिया था। दो दिन बाद उसके घर पर फोन आया कि उसका सेलेक्शन हो गया है और आज ही के दिन पिछले शनिवार को वो इस कंपनी में सीईओ की सेक्रेटरी बन गई।

आम तौर पर शनिवार को बाकी स्टाफ समय से पहले ही निकल जाता है, रविवार की छुट्टी की तैयारी करने। लेकिन, कुमार साहब अब भी घर नहीं गए थे। टीना अपना बैग समेट कर घर जाने की तैयारी कर चुकी थी। वो कुमार साहब की इजाज़त लेने के लिए उनके केबिन में घुसी तो कुमार साहब को किसी काम में व्यस्त पाया। उसने जाने की बात कही तो कुमार साहब ने बिना उसकी तरफ देखे ही हां कह दिया लेकिन टीना अभी पलट कर दरवाजे तक पहुंची ही थी कि कुमार साहब को कुछ याद आया। उन्होंने आवाज़ लगाई - टीना!

टीना के कदम जहां थे वहीं रुक गए। कुमार साहब ने तब उसे बताया कि कंपनी ने कल शाम पूरे दफ्तर के लिए सरप्राइज़ पार्टी रखी है, क्योंकि कंपनी ने इस क्वार्टर में मुनाफे का नया रिकॉर्ड बनाया। टीना के चेहरे पर खुशी देखने लायक थी। सीईओ जैसे गरिमामयी पद पर होने के बाद भी ये बताते बताते कुमार साहब के चेहरे पर कामयाबी और अभिमान की मिली जुली छाया तैर आई थी।

टीना ने पलटकर तुरंत कुमार साहब को बधाई दी और बोली कि वो चिंता ना करे। संडे की सरप्राइज़ पार्टी का इंतजाम वो खुद संभाल लेगी। कुमार साहब ने चैन की सांस ली। और उन्होंने टीना के हाथ में पार्टी के लिए बुलाए गए कर्मचारियों और अधिकारियों की पूरी लिस्ट सौंप दी। टीना को पहली बार इतना बड़ा जिम्मा मिला था लिहाजा वो भी काफी चहकती हुई दफ्तर से विदा हुई।

अगले दिन संडे था। देर रात तक पार्टी चलती रही। पार्टी के बाद कुमार साहब लड़खड़ाते हुए बाहर निकले तो टीना भागती हुई उनकी मदद को आ गई। कुमार साहब से गाड़ी की चाभी ही नहीं संभल रही थो भला गाड़ी वो कैसे संभालेंगे। ये सोचकर टीना ने खुद गाड़ी खोली और कुमार साहब को सहारा देकर पीछे की सीट पर लिटाने लगी। जवां बदन की खुशबू और कुमार साहब के अब तक दबे रहे अरमान। कुछ शायद टीना की बेतकल्लुफी ने भी आग में घी का काम किया। कुमार साहब ने अपने दिल की बात कह डाली और टीना भी ना न कर सकी।

रात का वक्त। घुप्प अंधेरा। शायद टीना भी हल्के हल्के नशे में थी। ना जाने क्या हो गया दोनों को। भावों में वो बह गए। टीना को भी लगा वो खुद पर काबू नहीं रख पाएगी। फिर भी उसने रिक्वेस्ट की सर प्रोटेक्शन प्लीज़। प्रोटेक्शन प्लीज़। प्रोटेक्शन प्लीज़। आवाज़ धीरे धीरे मद्धम पड़ती गई। और फिर तेज़ सांसों की आवाज़ों में कहीं खो भी गई। अगले दिन कुमार साहब देर तक परेशान रहे। टीना नौकरी पर फिर नहीं आई।

कुछ हफ्तों बाद।

कुमार साहब के केबिन का फोन बजा। नायर ने फोन पर बताया कि पुरानी सेक्रेट्री टीना मिलने आई है। कुमार साहब को लगा कि उन्हें माफी मांगने का मौका आख़िर भगवान ने दे ही दिया। वो तबसे पश्चाताप में ही जी रहे थे। टीना ने दरवाजे पर दस्तक दी। वो अंदर आई। सलवार सूट में वाकई उस दिन टीना ग़ज़ब की खूबसूरत लग रही थी। पेट ज़रूर कुछ चढ़ा सा दिख रहा था। सामने रखी अपनी फैमिली फोटो से नज़र हटाकर कुमार साहब सीट छोड़कर उठे और तकरीबन हाथ जोड़ते से बोले, टीना मैं तुम्हें कब से तलाश रहा हूं। प्लीज़....

कुमार साहब की बात पूरी भी नहीं हो पाई कि टीना बोल पड़ी। सर मैं मां बनने वाली हूं और कल हम कोर्ट मैरिज करने जा रहे हैं। ये आज ही अपने पैरेंट्स से बात करने वाले हैं। बस आपका आशीर्वाद लेने आ गई। जो हुआ उसे भूल जाइए। उसमें जितनी गलती आप से हुई उतनी ही मुझसे भी। कुमार साहब ने शायद कहना चाहा। लेकिन टीना आई एम एच...।

लेकिन टीना ने इसी बीच पर्स से एक फोटो निकालकर कुमार साहब के हाथ में थमा दिया। "सर देखिए ना हमारी जोड़ी ठीक रहेगी या नहीं।" टीना ने थोड़ा प्यार से और थोड़ा अधिकार से कुमार साहब का हाथ झिंझोड़ा। कुमार साहब की नज़र जैसे ही फोटो पर गई, ऐसा लगा कि जैसे उन्हें लकवा मार गया हो। उनके मुंह से बस इतना ही निकला, "नवीन"। अब चौंकने की बारी टीना की थी। उसने पूछा कि कुमार साहब उसे कैसे जानते हैं। कुमार साहब बस इतना ही कह पाए, "ये मेरा बेटा है।"

(समाप्त)

कुशाग्र क्रिएशंस प्रस्तुति । कहानी और निर्माता- शरद मिश्र । पटकथा- निर्देशक – पंकज शुक्ल।
© & ® with Film Writers Association, Mumbai and IMPAA, Mumbai

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

अज़ीज़न मस्तानी : Revenge Of A Gorgeous Freedom Fighter



पिछली कहानी बहुरूपिया को मिली प्रशंसा से उत्साहित होकर आज मैं एक और शॉर्ट फिल्म के बारे में लिखने जा रहा हूं। इस कहानी में थोड़ा सच है और थोड़ी कहावतें। 1857 में जब कानपुर में फिरंगियों पर नाना साहब, तात्या टोपे और अज़ीमुल्ला ख़ान ने क़हर बरपाया तो इस गदर के बीच कुछ तवायफें भी थीं जिनमें से किसी के हीरो नाना साहब थे तो किसी के तात्या टोपे। मीरा ने जैसे कृष्ण को चाहा था, वैसे ही एक तवायफ़ तात्या टोपे की बहादुरी की कायल हो चुकी थी। नाम था अज़ीज़न बाई। तो पेश ए ख़िदमत है कहानी अज़ीज़न बाई की।

अज़ीज़न मस्तानी

पुराने पत्थरों वाली दीवारों के साथ की सड़क के किनारे किनारे चुस्त चूड़ीदार के साथ पाजेब पहने एक लड़की सड़क पर चली जा रही है। ये कानपुर का लाठी मोहाल इलाका है। पूरब का मैनचेस्टर कहे जाने वाले कानपुर के लाठी मोहाल इलाके की इन गलियों में ना जाने कितने अंग्रेज शोख चंचल हसीनाओं का रूप रस पीने के लिए आते रहे और खुदा गवाह है कि इनमें से तमाम फिर लौट कर अपनी अपनी छावनियों तक जा नहीं पाए। खूबसूरती के खंजर ने इन सिपाहियों का कलेजा इस कदर चाक किया कि ना तो फिर उनकी कोई निशानियां मिलीं और ना ही महीनों तक ब्रितानिया सरकार ये पता लगा पाई कि आखिर लाठी मोहाल की तरफ रुख करने वाले अंग्रेज सिपाही लापता कहां हो जाते हैं?

अज़ीज़न आज परेशान है। वो परेशान है अपने प्यार की हिफ़ाजत को लेकर। अज़ीज़न मुसलमान नहीं है। लेकिन वो मस्जिद के सामने से गुजरते हुए खुद को रोक नहीं पाती और मस्जिद की चौखट लांघकर अंदर चली आई है। उसके दिल में है तो बस एक ही फरियाद, ‘या अल्लाह मुझे माफ करना। मेरी आज की पहचान कहती है कि मेरा सिर तेरे सजदे में झुकना चाहिए। और मेरा खून कहता है कि मेरा सिर किसी मंदिर की चौखट पर टिकना चाहिए। लेकिन, मेरा मजहब अब कुछ है तो बस वतनपरस्ती। जब तक मैं कानपुर की धरती पर बसे एक एक अंग्रेज का सिर कलम ना कर दूं, मेरा ईमान मुझे चैन से नहीं बैठने देगा। मेरी तुझसे फरियाद है तो बस इतनी कि मुझे इतनी ताक़त दे कि मैं ऐसा कर सकूं।‘

अजीजन बाई की पैदाइश कोठों पर नहीं हुई। और तवायफों की तरह वो भी हालात की मारी थी। कभी वो राजगढ़ के जागीरदार शेर सिंह की हवेली में हिरणी की तरह इधर उधर कुलांचे भरती थी। उसका नाम था अंजशा। उस दिन मेले में अंग्रेज सिपाहियों की टुकड़ी मटरगश्ती करने निकली थी। उनका अफसर हेनरी अपने दल-बल के साथ मेले में आया था। अंजशा को देखते ही वो उसके रूप यौवन पर मोह गया। हेनरी ने अंजशा को देखा तो बस देखते ही रह गया। अफसर की नज़रों के आगे पानी भरने वाले अंग्रेज सिपाहियों ने देखते ही देखते अंजशा को उठा लिया। वो रात अंजशा ने हेनरी की रावटी में गुजारी। अंजशा खूब रोई। देवी देवताओं की दुहाई दी। लेकिन, अंग्रेज अफसर हेनरी के आतंक के आगे किसी के कानों में उसकी गुहार न पड़ी। हवशी हेनरी ने अंजशा को उस रात भर रौंदा और अपनी हवस मिटाने के बाद जूठन फेंक दी कुत्तों की तरह अपने पीछे दुम हिलाने वाले सिपाहियों के आगे।

अंशजा का मन हुआ कि वो आत्महत्या कर ले। लेकिन, एक क्षत्रिय की बेटी ने अपमान का हलाहल गले से नीचे नहीं उतरने दिया। उसने अपने तन का त्याग कर दिया और आत्मा को तैयार किया एक नए तांडव के लिए। वो तांडव जिसकी बानगी अभी अंग्रेजों को देखनी थी। अंग्रेज सिपाहियों ने उसे कानपुर में लाठी मोहाल के कोठे पर ला बेचा।

और, लाठी मोहाल में परवरिश पाती अंजशा बन गई अजीजन। कभी खुली हवा में हर रोज़ एक नई परवाज के लिए अपने पंख तौलने वाली अंजशा पर कटाकर अजीजन बन गई तो लेकिन पिंजड़े की मैना बनना उसे तब भी गवारा ना हुआ। उसने अपने आस पास के हालात को तौला। कोठे पर रहने वाली दूसरी तवायफों को टटोला और फिर उसका मन यही बोला कि अभी उसे कुछ करना है और इसके बाद ही मरना है। और, उसने अपने कोठे को तब्दील कर दिया फिरंगियों की क़त्लगाह में।

कानपुर में अंग्रेज सिपाहियों के गायब होने की बात को शुरू शुरू में अंग्रेज अफसरों ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। पहले तो बीट के सिपाही लापता हुए फिर कैंट इलाके तक ये बीमारी पहुंच गई। कभी कोई दरबान तो कभी कोई संतरी सूरज ढलने के बाद चहलकदमी करने निकलता, लेकिन उगता सूरज फिर उसके नसीब में नहीं होता। मुखबिरों को काम पर लगाया गया, जासूस छोड़े गए। हेनरी खुद इस काम पर लग गया।

उस दिन हेनरी ने सूरज उगते ही गंगा किनारे बैठकर खूब शराब पी और चल दिया लाठी मोहाल के कोठे की तरफ। अजीजन तो मानो हेनरी के इंतज़ार में ही थी। तात्या टोपे के पीछे लगी अंग्रेजी फौज का मकसद जो उसे मालूम करना था। अजीजन ने उस दोपहर हेनरी को अपने रूप रस से खूब भिगोया। नशे में धुत हेनरी जब तात्या के बारे में सब कुछ बोल गया तो अजीजन ने पहले हेनरी पर अपनी नज़रों का वार किया और जब वो घायल हो गया तो उस पर हुआ अजीजन के ज़हर का वार। दो पल पहले हुस्न और शराब के नशे में झूम रहा हेनरी अब लाल रंग के कपड़ों से बंधी पोटलियों का अलग अलग हिस्सा बन चुका था। अगले दिन तात्या टोपे खुद अज़ीज़न से मिलने शहर के पास एक बगिया में पहुंचे।

तात्या टोपे से इस मुलाकात ने अजीजन के दिल में एक नया जोश भर दिया। वो दूनी ताकत से फिरंगियों के खिलाफ़ तैयारियां करने लगी। और यहां तक कि उसने तवायफों की एक टोली तक बना डाली। चार सौ से ऊपर तवायफों की टोली। इस टोली का नाम पड़ा – मस्तानी टोली। अजीजन इस टोली के ज़रिए स्वतंत्रता सेनानियों के लिए पैसा, रसद और गोला बारूद इकट्ठा करने लगी। और, तात्या टोपे की सेना की मदद करने लगी।

(समाप्त)

कुशाग्र क्रिएशंस। निर्माता– शरद मिश्र। पटकथा-निर्देशक- पंकज शुक्ल
FWA No. 164499 । IMPPA. 299/2009

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

बहुरुपिया : The Face Maker


बचपन में तो हमने उसे अक्सर देखा लेकिन अब वो कहीं नज़र नहीं आता। गांवों में भी अब वो कभी कभार ही दिखता है। लोगों ने उसे नाम दिया बहुरुपिया। पुराने मित्र और सहपाठी शरद मिश्र ने एक दिन यूं ही बातों बातों में बहुरुपिया का ज़िक्र छेड़ दिया। बात आगे बढ़ी तो उन्होंने बहुरुपिया पर एक छोटी सी कहानी भी सोच ली। ये कहानी कई दिनों की मेहनत के बाद अब परदे पर उतर चुकी है। इटली, रोम के फ्लोरेंस फिल्म फेस्टिवल तक ये फिल्म पहुंच चुकी है। इस शॉर्ट फिल्म के अलावा तीन और फिल्में भी मैंने और शरद मिश्र ने मिलकर बनाई हैं। इनमें से एक फिल्म सुश्री रंजना सिंह के ब्लॉग पर पोस्ट की गई एक कहानी पर भी है। ब्लॉग की दुनिया में ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी ब्लॉगर की कहानी पर किसी ब्लॉगर ने ही फिल्म बनाई हो, उसकी चर्चा बाद में। आज पढ़िए कहानी - बहुरुपिया। कहानी की परिकल्पना शरद मिश्र की है और पटकथा मैंने लिखी है। ये कहानी मुंबई के फिल्म राइटर्स एसोसिएशन और इम्पा में पंजीकृत हो चुकी है। इस पर बनी शॉर्ट फिल्म में मुख्य भूमिकाएं की हैं संजीव सिंह, चंद्रानी बैद्य, डी सी वर्मा और अजय आज़ाद ने। शॉर्ट फिल्म में सिर्फ कहानी के मूल सार को लिया गया है, आगे इसे फीचर फिल्म के तौर पर बनाने की योजना भी है।

कहानी-
वो कौन है, कहां से आता है, स्त्री है या पुरुष? क्या वाकई में वो कलाकार है, इसी इलाके का निवासी या फिर कहीं और से आकर अपना हुनर दिखाता है? पहले तो कई महीनों तक कोई जान ही नहीं पाया। रुस्तमपुर गांव के लोगों के लिए वो बस एक बहुरूपिया था। जो कभी बंदर का स्वांग बनाकर आता, कभी गोपी का तो कभी वो बन जाता अंग्रेजों के ज़माने का जेलर। गांव के सारे बच्चों का प्यारा और बड़ों का दुलारा। किसी ने कभी भी उसे किसी पर गुस्सा होता नहीं देखा। बस वो स्वांग दिखाता, गांव वाले हंसी खुशी उसे जो भी दे देते वो सिर झुकाकर ले लेता। कोई उसे खाने को गुड़ देता तो कोई रोटी। थोड़ा खाना वो वहीं खाकर पानी मांगकर पीता और फिर थोड़ा खाना अपने कमर में बंधी एक छोटी सी पोटली में खिसका देता। अपनी रानी बिटिया के लिए।

उसका ठौर ठिकाना जानने की रुस्तमपुर गांव के लोगों ने कभी कोई कोशिश नहीं की या कहें कि उन्हें कभी कोई ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। बस उसकी किसी से नहीं बनती तो वो था गांव का चौकीदार छंगा। छंगा को वैसे भी हर किसी पर किसी ना किसी बात को लेकर शक़ करने की आदती थी लिहाजा रुस्तमपुर गांव के किसी भी शख्स ने कभी छंगा को मुंह नहीं लगाया। छंगा अक्सर इंतज़ार करता कि वो कब बहुरूपिया दोपहर में खाना समेट कर गांव के बाहर का रास्ता पकड़ेगा और कब वो उसके पीछे लगकर उसके ठिकाने का पता लगा लेगा। लेकिन, ऐसा मौका आज तक छंगा के हाथ आया नहीं। बहुरूपिया की गांव के वैद्य जी से खूब बनती थी। वो बिना वैद्य जी से मिले कभी अपना स्वांग शुरू नहीं करता, सब जानते थे कि वैद्य जी के घर के सामने ही वो सबसे पहले सुबह सुबह प्रकट होता है। गांव के सारे बच्चे स्कूल जाने से पहले वैद्य जी के दरवाजे पर जुटते और बाह टोहते बहुरूपिये के एक नए स्वांग के साथ वहां पहुंचने की। लेकिन, कोई नहीं जानता था कि आखिर बहुरूपिया की रुस्तमपुर गांव के वैद्य जी पर इतनी श्रद्धा क्यों है?

दिन चढ़ते ही बहुरूपिया रुस्तमपुर गांव चला आता और दोपहर होते होते वो पूरे गांव का चक्कर लगा लेता। रुस्तमपुर के लोगों के लिए बहुरूपिया रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका था। गांव में कोई रिश्तेदार आता तो बहुरूपिया के स्वांग को उनके सामने ऐसे बढ़चढ़कर बताया जाता मानो पूरी दुनिया में रुस्तमपुर का बहुरूपिया निराला हो। वो रुस्तमपुर गांव के लोगों को मिली ऐसी नेमत थी, जिसकी कीमत कोई नहीं जानता था। गांव में ब्याह कर आई नई बहू हो या किसी ख़ास चीज़ की ज़िद के लिए रोता बच्चा। सबके दिल को बहलाने की जिम्मेदारी बहुरूपिया पर ही थी। गांव में चौधरी के बेटे की बारात लौटी तो द्वारचार के वक्त तक बहुरिया रोती रही। किसी की समझ में ना आए कि आखिर बहू कैसे चुप होगी? बहुएं तो मायके से बिदाई के बाद गांव की सीमा खत्म होती ही रोना बंद कर देती हैं, लेकिन चौधरी की बहू को शायद अपने मायके से कुछ ज्यादा ही प्रेम रहा होगा, तभी तो बेचारी अब तक टसुए बहा रही थी। तब चौधरी ने ही छंगा को भेजकर बहुरूपिया को बुलवा भेजा था। चौधरी का नाम सुनते ही बहुरूपिया कहीं भी किसी भी हाल में हो, दौड़ा चला आता था। यही तो पूरे रुस्तमपुर गांव का ऐसा घर था, जहां से उसे हर साल नियमित तौर से जाड़े में एक कंबल ज़रूर मिलता था।

बहुरूपिया उस दिन काली माता के रूप में था। आते ही उसने बहू की पालकी का परदा उठाया और अपनी लपलपाती जीभ के साथ अपना चेहरा अंदर डाल दिया। बहू के गले से पहले तो बहुत ज़ोर की चीख निकली और जब माज़रा उसे समझ आया तो वो देर तक हंसती रही। बहुरूपिया ने बहू के पैरों पर माथा टिकाया तो उसने सौ रुपये की एक करारी नोट और एक रुपये का चमकता हुआ सिक्का बहुरूपिया को निछावर में दिया। बहुरूपिया देर तक चौधरी की बहू की बलाएं लेता रहा और चौधरी ने भी खुश होकर उसे अपने गले में पड़ा गमछा उतार कर दे दिया। कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये कि बिना बहुरूपिया के रुस्तमपुर के गांव के लोगों को चैन नहीं मिलता था।

किसी दिन वो नहीं आता तो गांव वाले खासकर बच्चे परेशान हो जाते। लोग एक दूसरे से पूछते किसी ने बहुरूपिया को देखा क्या? फिर अगले दिन वो आता तो पूरा गांव हुजूम लगाकर चौपाल में उसके स्वांग देखने लगते। बहुरूपिया बताता कि वो कल बीमार हो गया था तो रुस्तमपुर गांव के वैद्य जी भागकर घर के अंदर जाते और सीतोपलादि चूर्ण की तीन चार पुड़िया बांधकर ले आते। एक पुड़िया तो वो उसे वहीं अपने हाथ से खिलाते। वैद्य जी का दुलारा था बहुरूपिया। अक्सर उसे वैद्य जी के पास बैठकर घंटो बतियाते देखा जाता। कोई कोई तो कहता कि वैद्य जी जो भी नया नुस्खा बनाते थे, बहुरूपिया खुशी खुशी उसका प्रयोग वो नुस्खा खाकर करता था। लेकिन इस बारे में ना तो कभी किसी की वैद्य जी से पूछने की हिम्मत पड़ी और ना ही बहुरूपिया ने किसी को इस बारे में कुछ बताया। कभी किसी घर की कोई ऐसी बात अगर बहुरूपिया के कान में पड़ भी जाए, जिसे जगजाहिर होने से घर की बदनामी हो, तो बहुरूपिया अपनी तौर से ऐसा कुछ ज़रूर कर देता था कि बेचारे घरवाले की इज्जत बन जाए। तो ऐसा था ये बहुरूपिया।

लेकिन, ताज्जुब की बात ये कि इस बहुरूपिए को रुस्तमपुर के लोग बहुरूपिया कहकर ही बरसों से बुलाते रहे। इसका नाम रुस्तमपुर में किसी ने ना जाना, और ना ही किसी को उसने अपनी असली पहचान ही बताई। उसे तो बहुरूपिया का स्वांग धरने के बाद जिस नाम से लोग पुकारते थे, वो उसी को अपना इनाम समझ लेता। एक बार तो जब उसने गोपी का रूप धरा और बच्चों ने उसे बहुरूपिया बहुरूपिया कहकर बुलाना शुरू किया तो उसकी आंखों से आंसू निकल आए। वैद्यजी ने पूछा भी क्या हुआ, लेकिन वो कुछ ना बोला। बस चुपचाप आंसू बहाता रहा। फिर अगले दिन वो फिर से गोपी बनकर आया। लेकिन, इस बार गांव को कोई भी बच्चा उसे पहचान ही नहीं पाया। वो वैद्य जी के घर के सामने से ‘दही ले लो’ की आवाज़ निकालता गुजरा तो वैद्य जी भी दही खरीदने चले आए। बहुरूपिया ने उस दिन पूरे गांव में दही बेचा। और, चौधरी। वो तो ऐसे कि जैसे गोपी पर लट्टू ही हो गए। देर तक अपनी दालान में उसे बिठाए रहे। कभी गुड़ खिलाएं तो कभी छंगा से कहकर उसके लिए ओढ़नी मंगाएं। और, दोपहर बाद जब खुद बहुरूपिया ने बताया कि वो तो बहुरूपिया है तो चौधरी देर तक हंसते रहे। पूरी बात सुनकर चौधराइन में जीवन में पहली बार चौधरी के सामने ठट्ठा मारकर हंसी।

रुस्तमपुर में सब जानते थे कि ये है दुनिया में सबसे निराला बहुरूपिया। लेकिन गांव का कोई भी शख्स नहीं जानता था तो बस ये बात कि वो तो था जाजामऊ का कलुआ। कलुआ जो दोपहर चढ़ते ही जाजामऊ गांव के ठाकुरों के यहां बर्तन धोने पहुंच जाता था। झक सफेद धोती पहने और नंगे बदन, कलुआ के हाथ बर्तनों पर चलते तो पीतल भी सोने की तरह चमक उठता। ठाकुर इसी बात पर इतराते कि जब भी कोई मेहमान उनके यहां कांसे के गिलास में पानी पीता तो ये ज़रूर पूछता कि ठाकुर कांसे का ये गिलास कहां से बनवाया। तब ठाकुर बताते कि अरे ये तो पुश्तैनी मेहमाननवाज़ी के गिलास है और इन पर हाथ चलाकर उनका खासमखास कहार उन्हें बना देता है बिल्कुल नए जैसा। कलुआ के हुनर के जितने कद्रदान रुस्तमपुर थे, उतने जाजामऊ में तो ना थे। लेकिन ठाकुर के घर में उसकी कदर खूब होती थी। ठकुराइन को रसोई के हर पकवान के ठाकुर की थाली में पहुंचने की चिंता हो ना हो, कलुआ को हर पकवान का थोड़ा सा ही सही पर हिस्सा ज़रूर वो उसकी थाली में अपने सामने डलवा देतीं।

जाजामऊ गांव में किसी ने भी कभी ये जानने की कोशिश नहीं कि आखिर कलुआ सबेरा होने के बाद से लेकर दोपहर तक कहां रहता है और क्या करता है। और, कलुआ भी बस ठाकुरों के तीन घरों में सुबह तड़के और दोपहर बाद बर्तन साफ करके अपनी दुनिया में खो जाता। जाजामऊ गांव में उसे कभी किसी से ना तो दुलार मिला और
ना ही उसने इसकी गुजारिश की। लोग उसे ठाकुरों का खास कहार समझ कर कभी कुछ कहते तो नहीं थे, लेकिन ऊंची जाति के मोहल्ले से निकलते समय बेचारी की नज़रे हमेशा झुकी ही रहती थीं। रुस्तमपुर का दुलारा, जाजामऊ का बेचारा था। और बेचारगी इस बात की कि बेचारी की बीवी पहले ही गुजर गई। अकेले ही जवान होती बिटिया की देखरेख करता औऱ उसकी पढ़ाई के लिए पैसे जुटाता रहता।

गांव के बाहर ही तो थी कलुका की छोटी सी झोपड़ी। और, इसी झोपड़ी में उसने पूरे जतन से पाला अपनी बिन मां की बिटिया रानी को। वो सुबह सवेरे रानी को नहालाता धुलाता। साफ कपड़े पहनाता। खुद बैठकर उसकी चोटी पिरोता और काजल भी लगाता। फिर जब रानी तैयार हो जाती तो उसकी बलाएं लेकर उसे स्कूल भेज देता और खुद चल देता अपने रोज़ के सफ़र पर।

रानी गांव के ही जूनियर हाईस्कूल में पांचवी में पढ़ती थी। कलुआ की पहली और आखिरी उम्मीद। तय समय पर स्कूल की फीस देना और रानी को पढ़ाई में किसी तरह की दिक्कत ना आए, इसका पूरा ख्याल रखना, कलुआ की आदत में शुमार हो चुका था। कई कई बार तो वो राशन की दुकान पर लोगों से एक एक कुप्पी मिट्टी का तेल मांग लाता, ताकि रात में रानी बिटिया अपना स्कूल का काम लालटेन की रोशनी में पूरा कर सके। ये लालटेन वो रुस्तमपुर गांव के चौधरी से मांग कर लाया था। और रानी ने भी अपने बापू का नाम रोशन करने में कोई कसर ना छोड़ी। सालाना नतीजे जब बताए जाते तो मैदान के किसी कोने में दूर पेड़ के नीचे बैठे कलुआ को इंतज़ार रहता कि कब रानी का नाम बुलाया जाएगा। गांव के हर ऊंचे घर के बच्चों से पढ़ने में तेज़ थी रानी। रानी हर साल अपनी क्लास में अव्वल रहती। उसका नाम स्कूल के बड़े पंडित जी पूरे जोश के साथ पुकारते। रानी स्टेज पर जाती अपना रिजल्ट लेने और नीचे बच्चों में शुरू हो जाती खुसुर पुसुर। कलुआ को लगता कि जैसे ऊपर स्वर्ग से उसकी बीवी उसे दुआएं दे रही है। मरते मरते बस यही एक चीज़ तो मांगी थी रानी की मां ने कलुआ से, ‘कुछ भी करना पर रानी को दूसरों के घर में बर्तन ना मांजने पड़ें’। कलुआ ने रानी की मां से वादा किया था कि वो ऐसा नहीं होने देगा। लेकिन, रानी को कभी गांव के बच्चों ने अपने साथ खेलने नहीं दिया। पूरे गांव में पंडितो और ठाकुरों के घर थे। पता नहीं कैसे कलुआ का इकलौता घर यहां आ गया। ज़रूर उसके पुरखे किसी ठाकुर की बारात के साथ दहेज में आए होंगे बहूरानी के बर्तन मांजने। और तब से पीढ़ी दर पीढ़ी चलता हुआ ये सिलसिला कलुआ तक आ पहुंचा था।

रुस्तपुर गांव के लिए बहुरूपिया और जाजमऊ गांव का कलुआ। एक ही शख्स के दो अलग अलग चेहरे। और दोनों गांवों के लोग उसकी दूसरी पहचान से बिल्कुल अनजान। रुस्तपुरगांव में ही एक दिन मजनू का स्वांग रचे जब वो चौधरी के अहाते में बैठा था तो उनके लड़कों को नवोदय विद्यालय के बारे में बातें करते सुना। घर लौटकर उसने ठाकुर साहब के बेटे से अपनी बिटिया के लिए नवोदय स्कूल का फॉर्म मंगा देने की गुजारिश की और अब रानी बिटिया आठवीं में है। महीने के हर दूसरे इतवार कलुआ की जाजामऊ में और बहुरूपिया की रुस्तमपुर में छुट्टी सी रहती है। इस दिन वो अपनी बिटिया से मिलने जाता है। नहा धोकर साफ सुथरे कपड़े पहन जब वो नवोदय विद्यालय के गेट पर अपनी बिटिया के इंतज़ार में खड़ा रहता तो किसी को इस बात की भनक भी नहीं लगने पाती कि आखिर इसका पेशा क्या है?
कलुआ और बहुरूपिया दोनों की ज़िंदगी दो अलग अलग गांवों में यूं ही चलती रही। और फिर एक दिन उसे हुआ तेज़ बुखार। इस बार रुस्तमपुर गांव के वैद्य जी की दवा भी बेअसर हो गई। दूसरे इतवार में दो दिन बाकी थे। दो दिन तक बुखार में तपते रहने के बाद वो अपनी बिटिया से मिलने गया। रानी अब बड़ी हो चुकी थी। इंटर के इम्तिहान बस शुरू ही होने वाले थे और कलुआ ने इस बार बिटिया के लिए तमाम तरह की चीज़ें खरीद कर रखी थीं। बिटिया से मिलने के बाद कलुआ सीधे शहर के डॉक्टर के पास गया। ठाकुर साहब की चिट्ठी पढ़कर डॉक्टर साहब ने उसे तुरंत देखा बिना नंबर के। चेकअप के बाद डॉक्टर का गंभीर चेहरा देखकर कलुआ भीतर ही भीतर कहीं सहम सा गया। और, जब डॉक्टर ने उसे उसका मर्ज़ बताना शुरू किया तो कलुआ का तो जैसे सारा खून ही सूख गया। उसके सामने रानी का चेहरा देर तक घूमता रहा। फिर उसे याद आई रानी की मां, जो मरते वक्त रानी को उसकी गोद में डाल गई थी ये कहते हुए कि रानी के बापू आज से तुम ही इसके बाप भी हो और मां भी। तब से कलुआ ने रानी को कभी मां की कमी महसूस नही होने दी। लेकिन, अब क्या होगा?

कलुआ देर रात अपनी झोपड़ी में लौटा। उस दिन पहली बार चौकीदार को कलुआ के घर के आगे जलता दीया नहीं दिखाई दिया। उसने सोचा कि शायद कलुआ कहीं बाहर गया होगा। लेकिन कलुआ झोपड़ी के पीछे खुले में लेटा था, तारों के बीच कहीं अपनी रामदुलारी का चेहरा तलाश करते हुए। उसे लगने लगा कि जल्दी ही वो भी रामदुलारी के साथ कहीं आसमान में तारा बन जाएगा। डॉक्टर ने उसे कैंसर बताया था और कहा था कि अगर इलाज चला तो चार पांच साल और नहीं तो बामुश्किल ढाई तीन साल ही उसकी ज़िंदगी के बचे हैं। लेकिन कलुआ को स्वांग भरने की आदत थी और उसने इसी स्वांग के बूते कभी रानी पर ये ज़ाहिर नहीं होने दिया कि जल्दी ही वो अनाथ होने वाली है। बल्कि अब तो वो हर दूसरे इतवार को और भी ज़्यादा सज धज कर रानी से मिलने जाता, आखिर अब वो कॉलेज में जो थी। रानी को अब वजीफ़ा तो मिलने लगा था लेकिन फिर भी कलुआ अपनी सारी कमाई रानी को दे आता। शहर की पढ़ाई, फिर कोचिंग और ऊपर से दस खर्चे। उसे मालूम था कि अगर वो अपना इलाज कराने लगा तो रानी कभी अफसर नहीं बन पाएगी। कलुआ ने अपनी ज़िंदगी के बाकी बचे साल अपनी बिटिया के नाम कर दिए।

और, फिर एक दिन जाजामऊ और रुस्तमपुर के बीच बने मंसा देवी के मंदिर में सुबह सुबह भीड़ लगनी शुरू हो गई। वहां एक संन्यासी देवी की मूरत के सामने साष्टांग दंडवत किए लेटा मिला। गांव की कितनी ही औरतें देवी पर जल चढ़ाकर लौट गईं लेकिन संन्यासी ना बाईं करवट हुआ और ना दाईं। एक दो ने उसके ऊपर पानी की छीटें भी गिराईं ये देखने के लिए वो ज़िंदा है या मर गया। लेकिन हाथ में कागज़ की एक पर्ची पकड़े ये संन्यासी ना तो हिला और ना ही कुछ बोला। दोनों गांवों में बात धीरे धीरे फैलने लगी और दोपहर होते होते दोनों गांवों के लोग वहां जुटने लगे। रुस्तमपुर के वैद्यजी ने सबसे पहले उसका चेहरा टटोला। वो बोले अरे ये तो अपना बहुरूपिया है और तभी जाजामऊ के ठाकुर साहब के बेटे ने कलुआ को पहचाना। दोनों गांवों के लोगों के लिए उसकी अलग पहचान थी। लेकिन वो जो भी था, अब इस दुनिया में नहीं था। चौधरी साहब ने उसके हाथ से पर्ची निकाली और पढ़ने लगे। पर्ची का मजमून खत्म होते होते मंदिर में मौजूद हर इंसान की आंखें नम थी। और, तभी दूर गाड़ियो का एक काफिला आता दिखाई दिया। नीली बत्ती की कार सबसे पहले मंदिर के पास आकर रुकी। उसमें से उतरी रानी। वो अब अफसर बन चुकी थी और सबसे पहले मंसा देवी के मंदिर आई थी अपने बाबा का कहा पूरा करने। और, तब गांव वालों को कलुआ या कहें कि बहुरूपिया के हाथ में मिली पर्ची का एक एक शब्द समझ में आने लगा। ये गांव के हर दबे कुचले आम आदमी की आवाज़ जो थी। झोपड़ी में पढ़ने वाली ने इलाके का नाम रौशन कर दिया था। और, उसका बाबा चाहता था कि कोई उसे ना बर्तन मांजने वाली की बिटिया कहे और ना ही बहुरूपिया की बेटी। उसे सब जानें तो बस उसकी आज की पहचान से।


कुशाग्र क्रिएशंस प्रस्तुति। निर्माता-लेखक – शरद मिश्र। पटकथा-निर्देशक- पंकज शुक्ल ।
© & ® FWA – 164498 । IMPPA- 152/2009

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

माई नेम इज़ खान, तो क्या?


सत्रह साल, पांच दर्जन से ज़्यादा फिल्में, ढेरों पुरस्कार और बहुत सारा प्यार। दिल्ली के एक लड़के का मुंबई जाकर कामबायी की नई इबारत लिखने का ये एक ऐसा सफर है, जिसे किसी फिल्म की कहानी में आसानी से तब्दील किया जा सकता है। एक मुसलमान लड़के की एक हिंदू लड़की से मोहब्बत। और, कामयाबी का आसमान छूने के इस सफर में धर्म कभी रुकावट बनकर नहीं आया। यहां तक कि बच्चों की परवरिश में भी। ये कहानी है शाह रुख खान की। वो शाह रुख जिनके भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा विदेशों खासकर पश्चिमी देशों में करोड़ों दीवाने हैं। लेकिन, इस कलाकार की पिछले दो साल में रिलीज़ हुई फिल्मों में उनके किरदारों को ध्यान से देखें तो आपको इसके भीतर एक ऐसी अंतर्धारा नज़र आएगी, जो कम लोगों ने ही महसूस की। फिल्म चक दे इंडिया में वह कबीर खान बने। करियर के 15 साल राजू, राहुल और ना जाने क्या क्या बनते रहे शाह रुख खान दो साल पहले पहली बार स्क्रीन पर कोई ऐसा नाम पसंद किया जिसके आख़ीर में खान जुड़ा था। चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी भी। लेकिन, लोगों ने इसे किरदार की मांग सोचकर ख़ास तवज्जो नहीं दी। फिर बिल्लू में वह बने साहिर ख़ान। किरदार एक अभिनेता का और नाम फिर से एक मुसलमान का। और, अब वह बने रिज़वान ख़ान, फिल्म माई नेम इज़ खान में। ये असल ज़िंदगी की पहचान को फंतासी की दुनिया तक फैलानी की सोची समझी रणनीति भी हो सकती है और महज एक संयोग भी। लेकिन, दो साल में तीन फिल्मों में अपने किरदारों के मुस्लिम नाम तलाशना खालिस संयोग है, ऐसा लगता नहीं है। और, अब यही नाम शाह रुख के लिए पहली बार परेशानी बनकर आया। बताते हैं कि शिकागो में भारत की आज़ादी की सालगिरह का जश्न मनाने जाते समय नेवार्क एयरपोर्ट पर शाह रुख को पूछताछ के लिए सामान्य कतार से अलग कर लिया गया और करीब दो घंटे बाद भारतीय विदेश सेवा के अधिकारियों की पहल के बाद छोड़ा गया। जिस एक फोन कॉल की उन्हें पूछताछ के दौरान इजाज़त मिली वो उन्होंने की अपने कांग्रेसी दोस्त राजीव शुक्ला को रात करीब डेढ़ बजे और इसके बाद ही इस सुपर सितारे की पेशानी से पसीने की बूंदे गायब हो सकीं।

शाह रुख खान सुपर स्टार हैं, ऐसा अमेरिका तक के लोग मानते हैं। लेकिन, ये बात एयरपोर्ट पर चौकसी कर रहा एक अफसर भी माने ये ज़रूरी नहीं। जिस दिन शाह रुख खान को नेवार्क एयरपोर्ट पर रोका गया, उसी दिन अमेरिका के एक दूसरे इलाके में दो नौजवान अफसरों ने मटरगश्ती कर रहे बॉब डिलन को अपनी पहचान साबित करने को कहा। बॉब डिलन ने अमेरिका की एक पूरी पीढ़ी के दिलों पर राज किया है। लेकिन, इन दोनों नौजवान अफसरों ने इन्हें नहीं पहचाना। डिलन अपनी पहचान साबित करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं कर पाए, तो दोनों अफसर इन्हें वहां ले आए जहां डिलन ठहरे हुए थे, वहां पहुंच कर उन्होंने वो सब कुछ किया जो कानून की सुरक्षा की ड्यूटी में लगे अफसरों ने अपनी संतुष्टि के लिए ज़रूरी समझा। लेकिन ना तो किसी अमेरिकी अख़बार ने और ना ही किसी अमेरिकी न्यूज़ चैनल पर इस पर हाय तौबा मचाई। ये एक ऐसे देश की अपने सुरक्षा इंतजाम चाक चौबंद रखने की कवायद है जिसने चंद साल पहले ही आतंक का सबसे भयानक हादसा झेला है। शाह रुख को नेवार्क एयरपोर्ट पर रोके जाने पर जब हिंदुस्तान में महेश भट्ट समेत तमाम लोग मातम मना रहे थे तो सबसे सटीक टिप्पणी शायद सलमान खान की आई। सलमान खान का कहना था कि शाह रुख का नेवार्क एयरपोर्ट पर रोका जाना ही ये बताता है कि न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर हादसे के बाद वहां ऐसी आतंकी साज़िश दोबारा क्यों नहीं हो सकी। वो एलर्ट हैं, लेकिन क्या हम हैं? अपने यहां तो मुंबई में ताज होटल और छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर हमले के अगले ही दिन ना तो कहीं कोई अलहदा सुरक्षा इंतजाम दिखे और ना अब देखे जाते हैं। मुंबई के स्टेशनों पर चौकसी का ये आलम है कि कहीं भी कोई भी आ जा सकता है। और, देश के दूसरे शहरों में हालात कोई इससे बेहतर नहीं हैं।

शाहरुख के साथ अगर ऐसा सिर्फ मुसलमान होने के नाते किया गया, तो उनका गुस्से में आना लाजिमी है। लेकिन, क्या पश्चिमी देशों में ऐसा किसी मुसलमान के साथ पहली बार किया गया है। वहां के हर एयरपोर्ट पर रोज़ाना हज़ारों मुसलमानों को इस बेइज्जती से दो चार होना पड़ता है, तब क्या शाह रुख खान को इसी तरह गुस्सा आया। तो फिर गुस्सा दिखाने के लिए अपने साथ ऐसा होने देने का इंतज़ार क्यों? शाह रुख ने कोई पांच साल पहले एक फिल्म की थी स्वदेश। इसमें उनका किरदार था एक ऐसे नासा वैज्ञानिक का, जो अपने गांव की खुशहाली के लिए स्वदेश में ही बसने का इरादा कर लेता है। लेकिन, उन फिल्मों का क्या, जिन्होंने हिंदी सिनेमा से देसी नायक ही छीन लिया। शाह रुख की फिल्मों ने ही हिंदी सिनेमा को एनआरआई मोहब्बत का चस्का लगाया। करण जौहर और आदित्य चोपड़ा जैसे दोस्तों के साथ मिलकर जैंटलमैन राजू एनआरआई राहुल बन गया। ना उसे हिंदुस्तान के दर्द से मतलब और ना ही रामपुर और नाशिक जैसी जगहों के जज्बात से। वो तो बस वायलिन लेकर जा पहुंचा न्यूयॉर्क की गलियों में। जिस देश में जाने के लिए शाह रुख अब चार बार सोचने की बात कह रहे हैं, ये वही देश है जहां उनकी हाल की तमाम फिल्मों की शूटिंग लगातार एक के बाद एक होती रही। यहां तक कि उनकी निर्माणाधीन फिल्म माई नेम इज़ खान की कहानी भी अमेरिका की ही पृष्ठभूमि में रची गई है। वैसे तो तुलसीदास ज़माने पहले कह गए कि आवत ही हरषत नहीं, नयनन नहीं सनेह। तुलसी तहां ना जाइए चहै कंचन बरसे मेह। लेकिन अपने शोहदे कहां बुजुर्गों की बात मानते हैं। क्या हिंदुस्तान में फिल्म की शूटिंग के लायक लोकेशन्स खत्म हो गई हैं? क्या भारत की वादियां और हरियाली किसी दूसरे देश से कमतर हैं? फिर क्यों शाह रुख जैसे सितारे शूटिंग और शॉपिंग के लिए अमेरिका भागते हैं? क्या भारत में तिरंगा फहरा कर आज़ादी का जश्न नहीं मनाया जा सकता? आज़ादी की सालगिरह मनाने के लिए शिकागो ही क्यों? क्या इसलिए नहीं कि वहां देशभक्ति दिखाने के लिए भी पैसे मिलते हैं? शाह रुख शिकागो में भारत की आज़ादी का जश्न मनाने जाएं, ये अच्छा है, लेकिन तब जब वो अपने खर्चे पर जाएं और बिना किसी तरह के मेहनताने की उम्मीद के। उम्मीद की जानी चाहिए कि शाह रुख ने ऐसा ही किया होगा।

एक बात और जो ऐसे मौकों पर बार बार होती है कि हम तो अतिथि को देवता मानते हैं और हमारे साथ ही विदेश में ऐसा क्यों होता है। तो किसने मना किया है कि जब बिल क्लिंटन हमारे यहां आए तो आप उनकी तलाशी ना लें और जब लिज हर्ले जोधपुर घूमने आएं तो बजाए उनकी तलाशी लेने के सुरक्षा गार्ड उनके आभा मंडल से प्रभावित होकर हाथ जोड़ कर खड़े हो जाएं। दिक्कत यही है कि हम इतिहास से सबक नहीं लेते। हमारे यहां आतंकी हमले अब रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं, बार बार आतंकी हमले होते हैं, मंत्री से लेकर अफसर तक सब चौकसी बढ़ाने की बात करते हैं, लेकिन दो दिन बाद ही सब कुछ वैसे ही ढर्रे पर। शाह रुख खान प्रकरण पर बजाए त्योरियां चढ़ाने के इससे सबक लेने की ज़रूरत है। अमेरिका में वीआईपी संस्कृति वैसी नहीं, जैसी अपने यहां है। अपने यहां तो सांसद तक बैंक मैनेजर से तवज्जो ना मिलने पर उसे चांटा मार देता है। यहां हर नेता खुद को वीआईपी मानता है और वीआईपी की ये मानसिकता अब नेताओं से निकलकर अभिनेताओं और समाज के दूसरे तबकों तक पहुंचने लगी है। तलाशी को अपने यहां तौहीन माना जाता है, जबकि ये है हमारी और आपकी भलाई के लिए ही। पश्चिमी देशों में वर्तमान और पूर्व राष्ट्राध्यक्षों और कैबिनेट के लोगो को छोड़कर कोई भी वीआईपी नहीं होता। वहां एक सुरक्षा पोस्ट पर तैनात कर्मचारी को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि मेटल डिटेक्टर से होकर गुजरने वाले की हैसियत क्या है, उसकी प्राथमिकता है तो बस इतनी कि कोई भी संदिग्ध सामान उसके दरवाजे से होकर अंदर ना जाने पाए। और, उसकी ड्यूटी में सहायक होकर ही हम अपने जान माल की सुरक्षा की गारंटी खुद बन सकते हैं। लेकिन, ऐसा होता नहीं है। पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम और रक्षा मंत्री रहने के दौरान जॉर्ज फर्नांडीस की तलाशी पर अलग से बहस हो सकती है, लेकिन शाह रुख खान को नेवार्क हवाई अड्डे पर पूछताछ के लिए रोका जाना राष्ट्रीय ग्लानि की बात बताना शायद अतिवाद को हवा देने के सिवा कुछ नहीं।

यह सही है कि अमेरिका में आतंकी हमले के बाद से पश्चिमी देशों में मुसलमानों को एक अलग नज़रिए से देखा जाने लगा है और जिसे उचित ठहराना या इसका समर्थन करना सरासर गलत है। लेकिन, ये उन देशों की मज़बूरी है। इस्लाम को आतंकवाद से सरसरी तौर पर जोड़ देने की जिस मनोदशा की बात कही जाती है, वो तब भी शायद वैसी ही होती अगर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला एलटीटीई के किसी दस्ते ने किया होता और उसके बाद हर तमिल को संदिग्ध नज़रों से देखा जाता। अमेरिका और पश्चिमी देशों में प्रतिक्रियाएं फौरी तौर की नही होतीं, वो अगली क्रिया की संभावना को दरकिनार करने के लिए सालों साल कोशिश में लगे रहते हैं। शाह रुख खान से पहले आमिर ख़ान और इमरान ख़ान जैसे अभिनेताओं को भी पश्चिमी देशों मे प्रवेश करते वक्त मुश्किलों से गुजरना पड़ा है, लेकिन क्या हमने इससे कोई सबक़ सीखा। क्यों नहीं हमारे हवाई अड्डों पर भी वैसी ही चौकसी बरती जाती है, जैसी नेवार्क या दूसरे हवाई अड्डों पर होती है। किसने कहा है कि जब एंजेलीना जोली या ब्रैड पिट हिंदुस्तान आएं तो हम हाथ जोड़कर किनारे खड़े हो जाएं। लेकिन, हमारी मानसिकता अब भी गोरी चमड़ी को अपने से श्रेष्ठ मानने की है, दो सौ साल की गुलामी का असर 62 साल में चला गया है, ऐसा लगता नहीं है नहीं तो क्यों चिंदी चिंदी कपड़ों में पहुंचे गोरी चमड़ी के लोगों को पांच सितारा होटलों का स्टाफ एड़ी जोड़कर सलाम करता और क्यों एक धोती पहने भारतीय को महज इसलिए पांच सितारा क्लबों से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता कि उसके पैर में साधारण सी चप्पल है।

बुधवार, 5 अगस्त 2009

शर्म इनको मगर नहीं आती!


हिंदुस्तानी सिनेमा जिसे लोग प्यार से, नफरत से या फिर जैसे भी बॉलीवुड कहते हैं, दरअसल इस देश की विरासत का असली आइना है। ये वो जगह है जहां एक हिंदू डायरेक्टर एक मुस्लिम कैमरामैन पर अपने ज़मीर से ज़्यादा भरोसा करता है। ये वो जगह है जहां एक सिख आर्ट डायरेक्टर एक ईसाई प्रोडक्शन कंट्रोलर के बुलावे पर रात 12 बजे भी सुनसान फिल्म सिटी तक अकेले एक ऑटो लेकर पहुंच जाता है। मुंबई की सूरत बिगाड़ने की कोशिश में कितने ही बम धमाके हो चुके हों, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री की गंगा जमुनी तहज़ीब पर किसी ने आंच नहीं आने दी। लेकिन, इमरान हाशमी ने जो किया वो एक ऐसी चिंगारी है, जिसकी तपिश आग से ज़्यादा ख़तरनाक है। मुंबई का पाली हिल इलाका कोई जन्नत तो नहीं कि हर सितारा बस वहीं जाकर बसना चाहे। और जिन दिलीप कुमार के पड़ोस में बसने के ख्वाहिशमंद इमरान हाशमी हैं, वो भी तो आखिर मुसलमान ही हैं और पाली हिल पर बरसों से आशियाना बसाए हैं। खुद इमरान हाशमी बरसों से बांद्रा में ही रह रहे हैं, और कभी उन्होंने ये नहीं कहा कि एक मुसलमान होने के नाते उनके साथ कोई दिक्कत पेश आई हो। तो इसे बस एक खास सोसाइटी में बसने की तमन्ना को लगी ठेस कहें कि या फिर लाइम लाइट में लौटने की छटपटाहट, या फिर मामला इससे भी कहीं ज़्यादा संगीन है। मुंबई में लोग अब खुलकर पूछने लगे हैं कि आखिर भट्ट कैंप के लोगों को अपने मुसलमान होने का इलहाम ठीक उन्हीं दिनों क्यों होता है, जब उनकी कोई फिल्म रिलीज़ होने वाली होती है। अपने रोज़ेदार होने की सिर पर गोल टोपी लगाकर नुमाइश करने वाले महेश भट्ट को एकाएक मुंबई में इस्लाम ख़तरे में तभी क्यों दिखाई देने लगता है, जब उनके प्रोडक्शन हाउस के तार पाकिस्तान से जुड़ते दिखाई देने लगते हैं। दो दिन पहले ख़बर आती है कि भट्ट कैंप एक हिंदू लड़की और एक मुस्लिम लड़के की प्रेम कहानी को लाहौर में फिल्माने जा रहा है और फिर वो कुरेद देते हैं एक ऐसा किस्सा, जिसको इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के टीआरपी रिपोर्टर हाथों हाथ ले उड़ते हैं।
तह तक जाने की किसी को फुर्सत नहीं है और महेश भट्ट जैसा चतुर फिल्मकार इन टीआरपी रिपोर्टर्स को तह तक जाने भी नहीं देता। सब जानते हैं कि भट्ट कैंप को विवाद खड़े करने में महारत हासिल है, लेकिन कोई नहीं जानता कि इसका मक़सद क्या है। कभी व्यस्ततम इलाकों, कभी लोकल ट्रेनों और कभी होटलों पर धमाके करने वालों को जो मकसद सैकड़ों लोगों की जाने लेकर भी हासिल नहीं हुआ, वो ऐसी बातें फैलाने वाले चंद चैनलों पर अपने चेहरे दिखाकर हासिल कर लेते हैं। फिर क्या फर्क है सरहद पार फिरकापरस्ती की साज़िश रचने वालों और सरहद के इस पार बैठकर लोगों को सपने बेचने वालों में। इमरान हाशमी आए तो उनकी हरकतें जैसी भी रहीं, हिंदी फिल्मों के दर्शकों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया। किसी ने ये नहीं सोचा कि अरे ये तो मुसलमान हीरो है। सिनेमा कोई भी दर्शक कलाकार का धर्म और उसकी जाति देखकर देखने जाता भी नहीं है। ऐसा होता तो भला दिलीप कुमार कैसे दादा साहब फाल्के पुरस्कार जीतने लायक कलाकार बन पाते और क्यों हिंदी सिनेमा के आज के टॉप तीन सितारे शाहरुख, आमिर और सलमान मुसलमान ही होते। महेश भट्ट की जाती तौर पर हर पत्रकार इज्जत करता है तो इसलिए कि उन्होंने कभी सारांश, अर्थ और डैडी जैसी फिल्में बनाईं। इसलिए नहीं कि इसी शख्स ने हिंदी सिनेमा में सेक्स और चुंबन को मर्डर, कसूर, राज़ और जिस्म जैसी फिल्मों से सामूहिक स्वीकृति दिलाने की भी कोशिश की।
महेश भट्ट ने इमरान हाशमी के हो हल्ले में शामिल होकर अपना ही नाम ख़राब किया, इमरान हाशमी की बेअकली को देखते हुए एक बारगी उन्हें ऐसा सोचने के लिए माफ किया जा सकता है कि उन्हें कोई सोसायटी इसलिए घर नहीं दे रही कि वो मुसलमान हैं। लेकिन, महेश भट्ट! उनका ऐसा सोचना माफी के काबिल नहीं हो सकता। हो सकता है ऐसा उन्होंने अपने भांजे इमरान हाशमी को लाइम लाइट में लाने के लिए किया हो, लेकिन इससे इमरान के प्रशंसक नाराज़ ही होंगे। इमरान हाशमी की आखिरी रिलीज़ फिल्म है जन्नत। फिल्म ने भट्ट कैंप के गोरिल्ला प्रचार के चलते अपनी कमाई भले निकाल ली हो, लेकिन एक सधी हुई फिल्म इसे किसी ने नहीं माना। इस फिल्म में भट्ट कैंप ने एक सट्टेबाज़ को हीरो बनाने की कोशिश की। यही सट्टेबाज अब एक टीवी जर्नलिस्ट के रोल में परदे पर लौटने को बेकरार है फिल्म रफ्तार में। लेकिन इमरान की मार्केट वैल्यू कम देख इसके प्रोड्यूसर्स ने फिल्म की रिलीज़ टाल दी है और इमरान को लगा कि मज़हब का इस्तेमाल करके ही सही कम से कम वो लाइम लाइट में तो आ सकते हैं।
महेश भट्ट के जुहू दफ्तर में इससे पहले भी प्रचार की साजिशें बनती रही हैं और आगे भी बनती रहेंगी, लेकिन अब वक्त है कि मीडिया कौए के पीछे दौड़ने से पहले कान को टटोल कर देख ले। मीडिया को इस्तेमाल करने का हुनर महेश भट्ट सरीखे लोगों से इमरान हाशमी जैसे सीख रहे हैं और ये एक ऐसी विरासत की पीढ़ी हस्तांतरण है, जो देश के ताने बाने के लिए ख़तरनाक ही नहीं बल्कि गंभीर भी है। खुद को चर्चा में बनाए रखने के लिए मीडिया को इस्तेमाल करने का हुनर नेताओं से अभिनेताओं से सीखा है। अब वो फिल्मों की कहानियों में विवाद ढूंढते हैं। कभी कटी हुई दाढ़ी वाले सिख का रोल करके तो कभी विवादास्पद विषयों पर फिल्म बनाकर। वो हर हाल में चर्चा में बने रहना चाहते हैं। कभी दर्शकों को अभिनेताओं की निज़ी ज़िंदगी में तांकझांक करने वाले किस्से कहानियां रोमांचित करते थे, लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया के बढ़ते मायाजाल और अंतरजाल की तरक्की ने पीत पत्रकारिता को किसी एक या दो पत्रिकाओं तक सीमित नहीं रहने दिया है। तमाम टीवी न्यूज़ चैनलों ने पीत पत्रकारिता के हर स्तर को पाताल तक पहुंचा दिया है, अब दर्शक निजी जानकारी की बजाय कौतूहल से रोमांचित होता है और ये कौतूहल खोजने के लिए बाकायदा एजेंसियां काम कर रही है। मुंबई की ये एजेंसियां फिल्म निर्माताओं और अभिनेताओं को वो विचार पैसे लेकर मुहैया कराती हैं, जिनसे कि वो चर्चा में बने रह सकें। और तो और अब तो फिल्म निर्माता और अभिनेता खुद अपने करीबी पत्रकारों से ये जानना चाहते हैं कि वो क्या करें कि हंगामा हो जाए। नहीं तो और क्या वजह हो सकती है कि महेश भट्ट जैसे शख्स को अब कामयाबी के लिए जिस्म, पाप, रोग, वो लम्हे, गैंगस्टर और धोखा जैसी कहानियां लिखनी पड़ती हैं।
अपनी मां को अपने पिता की दूसरी बीवी (और कई बार गैरकानूनी भी) बताकर सुर्खियां बटोरने वाले महेश भट्ट ने ज़ख्म को अपनी मां की असली कहानी बताई थी। लेकिन, उनके इस शिगूफे की उन्हीं के घर वालों ने बाकायदा ट्रेड पत्रिकाओं में इश्तेहार देकर हवा निकाल दी थी और दुनिया को ये बताया था कि महेश भट्ट के पिता ने दो शादियां उस दौर में की थीं, जब हिंदू मैरिज एक्ट अमल में नहीं आया था और उनकी दोनों बीवियों को बराबर का कानूनी दर्ज़ा हासिल था। हां, ये और बात है कि महेश भट्ट की अपनी पहली बीवी की हालत इन दिनों ठीक नहीं है और वो महेश भट्ट की बजाय अपनी बेटी पूजा भट्ट के साथ रहती हैं। लेकिन, क्या महेश भट्ट ने कभी इस बारे में मीडिया से बात की? क्यों वो ये नहीं बताते कि आखिर डी कंपनी के धुर विरोधी पुजारी गैंग का हमला हर बार उन्हीं के दफ्तर पर क्यों होता है?
नायकों के विलुप्ति के इस दौर में चर्चा भलमनसाहत की कम और बुराई की ज़्यादा होती है। नकारात्मक चीज़ें अब लोगों को ज़्यादा लुभाती है। सलमान खान की शरारतों का ज़िक्र हर तरफ होता है लेकिन उनके एनजीओ पर शायद ही किसी ने तफसील से रिपोर्ट बनाई हो। सुलभ पत्रकारिता का अगर किसी ने सबसे ज़्यादा फायदा उठाया है तो उन लोगों ने, जिनकी जुमले बनाने में दिलचस्पी सबसे ज़्यादा है। महेश भट्ट जैसे लोगों ने मुसलमानों का खैरख्वाह होने का धोखा खड़ा करके सबसे ज़्यादा नुकसान भी इसी कौम का किया है। इमरान हाशमी जैसे रिश्तेदारों को छोड़ दें तो क्या वो बता सकते हैं कि आखिर नए कलाकारों को मौका देने वाले उनके हौसले ने कितने मुस्लिम लड़कों या लड़कियों को हीरो या हीरोइन बनाया है। और, जिन मुसलमानों को वो पटकथा लेखन या संगीतकार का काम देते भी हैं, उन्हें कितना पैसा दिया जाता है। भट्ट साहब अक्सर अपने करीबी दोस्त पत्रकारों को किसी खास वजह को लेकर शोर मचाने की गुजारिश करता एसएमएस भेजते हैं। इसकी वजह क्या हो सकती है भला? इमरान हाशमी को एक खास सोसाइटी में फ्लैट ना दिए जाने पर भी भट्ट कैंप ने ही बासी कढ़ी में उबाल लाने की कोशिश की। लेकिन, इस बार मामला उलटा पड़ता दिख रहा है। खुद फिल्म इंडस्ट्री के लोग ही उनकी मुख़ालिफ़त में खड़े होते नज़र आ रहे हैं। दिल्ली में अपने खास लोगों से वो एसएमएस भेजकर अब मदद की गुजारिश कर रहे हैं। खुद उन्हें लगने लगा है कि मामला इस बार उल्टा पड़ सकता है। इमरान हाशमी और महेश भट्ट दोनों के खिलाफ सांप्रदायिक वैमनस्यता फैलाने की आपराधिक शिकायत की जा चुकी है और महेश भट्ट का पैतरा शायद पहली बार उल्टा उन्हीं के गले पड़ता नज़र आ रहा है।

यह आलेख 5 अगस्त 2009 के 'नई दुनिया' के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ। लिंक है -

http://www.naidunia.com/Details.aspx?id=79286&boxid=29708720

सोमवार, 3 अगस्त 2009

सहकारिता को सियासत का श्राप - 2


महाराष्ट्र में गन्ना खेती पूरे सूबे में होती हो, ऐसा भी नहीं है। बामुश्किल पांच फीसदी कृषि योग्य भूमि पर होने वाली गन्ने की खेती पूरे राज्य की खेती के लिए मिलने वाली आपूर्ति का 60 फीसदी अकेले डकार जाती है। ये गन्ने की खेती का ही असर है कि इन इलाकों में भूजल का स्तर 15 मीटर से गिरकर 65 मीटर या उससे भी नीचे चला गया है। और, ये सब होता है उस गन्ना लॉबी को फायदा पहुंचाने के लिए जिसकी मुख़ालिफत करने वाला फिलहाल तो महाराष्ट्र में कोई नहीं दिखता। सहकारिता के बूते कैसे नेताओं ने अपनी किस्मत चमकाई, इसके लिए बस एक उदाहरण काफी है।

महाराष्ट्र में सहकारिता आंदोलन की अगुआई करने वालों में से प्रमुख रहे हैं विट्ठल राव विखे पाटिल। देश की पहली सहकारी चीनी मिल विट्ठल राव विखे पाटिल ने अहमदनगर जिले में लगाई थी सन 1950 में। इसे एशिया की भी पहली सहकारी चीनी मिल माना जाता है। इस चीनी मिल से अहमदनगर जिले के किसानों को फायदा हुआ ना हुआ हो, विखे पाटिल परिवार अरबपति ज़रूर हो गया। पहले इस चीनी मिले से निकलने वाली खोई के इस्तेमाल के लिए पेपर मिल लगी। फिर चीनी बनाते समय निकलने वाले शीरे से शराब बनाने के लिए डिस्टलरी लगी। बायोगैस प्लांट और केमिकल प्लांट भी खुल गए। 14 साल बाद ही विखे पाटिल परिवार ने चीनी का पैसा पढ़ाई का धंधा जमाने में लगाना शुरू कर दिया और देखते ही देखते डिग्री कॉलेज से लेकर इंजीनियरिंग कॉलेज और मेडिकल कॉलेज तक खोल डाले। जल्दी ही इस परिवार ने एक भारी भरकम अस्पताल और एक सहकारी बैंक भी खोल लिया। हवा का रुख समझना विखे पाटिल परिवार को खूब आता है। विखे पाटिल परिवार के वारिस बाला साहेब को कांग्रेस हारती दिखी तो वह शिवसेना में चले गए और एनडीए की सरकार में 1999 में राज्य मंत्री और फिर 2002 में कैबिनेट मंत्री हो गए। 2004 में बाला साहेब विखे पाटिल फिर कांग्रेस में लौट आए। एक अंग्रेजी अख़बार ने जब ‘सहकारिता’ के ज़रिए अरबपति बने विखे पाटिल परिवार की संपत्ति की खोजबीन की तो महाराष्ट्र की सियासत में हंगामा मच गया। लेकिन लोगों ने ये भी खोज निकाला कि ये परिवार तो बिजली बेचने का भी काम करता है।

अहमदनगर के करीब दो सौ गांवों को बिजली पहुंचाने का काम भी सहकारिता के नाम पर किया गया। पहले एक सोसाइटी बनाई गई, फिर महाराष्ट्र राज्य बिजली बोर्ड से बिजली खरीदी गई। ये सरकारी बिजली बिकी तो खूब लेकिन सरकार को फूटी कौड़ी भी नहीं मिली। सोसाइटी पर बकाया कोई चार सौ करोड़ का हो चुका है लेकिन, मामले को अब अदालती दांव पेंचों में उलझा दिया गया है।

महाराष्ट्र में सहकारिता के नाम पर करोड़ों बनाने का खेल सूबे की सरकार से नूरा कुश्ती करके खेला जाता है। नेताओं ने नियम ऐसे बनवाए कि अफसर चाहे तो भी कुछ नही कर सकता। कोई भी शख्स दस आदमियों को जोड़कर सहकारी समिति बना सकता है। सहकारी समिति को ऋण मिल सके इसके लिए गारंटी देने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की है। और, ये गारंटी भी आधी आधी नहीं बल्कि 90 और दस फीसदी के अनुपात में होती है, यानी कर्ज़ ना चुकता हुआ तो इसका 90 फीसदी चुकाने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की है। बस सारा खेल इसी पेंच के ज़रिए चलता आ रहा है और आगे भी इसे कोई रोक पाएगा, कहा नहीं जा सकता। रिजर्व बैंक और नाबार्ड के नियमों के मुताबिक बिना राज्य सरकार की गारंटी के सहकारी समितियों को कैश क्रेडिट नहीं मिल सकता। बीच में महाराष्ट्र सरकार ने इसके लिए सख्ती भी दिखाई, लेकिन आसन्न विधानसभा चुनावों को देखते हुए कांग्रेस और राकांपा दोनों ने सरकारी खज़ाने को खुला छोड़ देने में ही भलाई समझी।

कर्ज़ में डूबी महाराष्ट्र की सहकारी चीनी मिलों की हालत ये है कि 130 में से शायद ही दो दर्जन भी अपने बूते गन्ना किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की सूरत में न हों। विश्व बैंक ने महाराष्ट्र सरकार के कामकाज पर अक्सर आंखें तरेरी हैं, लेकिन जब दोषी और जज एक ही पाले में हों तो भला सुनने वाला कौन है? महाराष्ट्र सरकार ने बीच में ये नीति बनाई थी कि वो सहकारी चीनी मिलों को आत्मनिर्भर होने के लिए ज़ोर लगाएगी, ताकि वो सरकारी कर्ज चुकता कर सकें, लेकिन अफसोस ऐसा हो न सका। और, विश्व बैंक को भी ये मानना पड़ा कि महाराष्ट्र में सहकारिता आंदोलन अपने उद्देश्य पूरे नहीं कर सका और वहां जनता की कीमत पर चंद लोग फायदा लूट रहे हैं।

लेकिन, ये सूरते हाल शायद अब बदल सकें क्योंकि केंद्र में सरकार भले अपनी हो, लेकिन घर का खर्च चलाने की जिम्मेदारी तो महाराष्ट्र सरकार को ही उठानी होगी। उत्तर प्रदेश में इसकी शुरुआत हो चुकी है और अगर महाराष्ट्र की सहकारी चीनी मिलों के निजी क्षेत्रों में जाने की बात उठी तो ज़ाहिर है मुंबई से लेकर दिल्ली तक कई कुर्सियां एक साथ हिलने लगेंगी। उधर, धीरे धीरे ही सही लेकिन निजी कंपनियों ने भी खेती की महत्ता समझ ली है। खेती किसानी के लिए हर साल बजट में जो प्रोत्साहन राशियां दी जा रही हैं, उनका फायदा लेने के लिए तमाम कॉरपोरेट कंपनियों ने अपने घोड़े दौड़ाने शुरू कर दिए हैं। ये कंपनियां किसानों की ज़मीन पर अनुबंध खेती करवा रही हैं। किसान एक तयशुदा मानकों के हिसाब से फसल उगाता है और कंपनी उसकी सरकारी दाम से ज़्यादा कीमत देकर खरीद कर लेती है।

गोदरेज, टाटा, रिलायंस और भारती जैसी कंपनियों ने कृषि उत्पादों की खरीद फरोख्त का देशव्यापी काम शुरू कर दिया है। पेप्सिको पंजाब में टमाटर, मिर्च, मूंगफली खरीद रही है, आईटीसी ने सब्जी और फल खरीदने शुरू कर दिए। टाटा ने पंजाब और कर्नाटक समेट महाराष्ट्र में भी फूल और सब्जी की अनुबंध खेती शुरू कर ही दी है, पैंटालून भी महाराष्ट्र में किसानों की सहकारी समितियां बनाकर आम का धंधा शुरू कर चुकी है। सहकारी समितियों में चलने वाली गन्ने की सियासत से उकताए छोटे किसानों ने भी अगर गन्ने की खेती छोड़ इन बड़ी कंपनियों का दामन थाम लिया तो चीनी वाकई कड़वी हो सकती है। ऐसा ना होने देने के लिए महाराष्ट्र की चीनी मिलों को पूरा करना होगा अपना घाटा, जिसका इलाज़ भी निजीकरण की कड़वी दवाई में ही नज़र आता है।

(समाप्त)

गुरुवार, 30 जुलाई 2009

बाग़ी हो गया छोटा शकील !!!


मुंबई में पिछले साल हुए आतंकी हमले के बाद से भले ही केंद्रीय खुफिया एजेंसियां सतर्क हों और खुद गृह मंत्री पी चिदंबरम ये कह रहे हों कि भारत के पश्चिमी तटों की समुद्रीय सीमाएं सुरक्षित नहीं हैं, जानकार बताते हैं कि अगला हमला पूरब की तरफ हो सकता है। मुंबई का अंडरवर्ल्ड अब सिर्फ देश की आर्थिक राजधानी का ही अंडरवर्ल्ड नहीं रहा। इसके इस शहर से निकल कर दक्षिण और पूरब में पैर पसार लेने के पुख्ता सबूत सामने आने लगे हैं। निजी बातचीत में मुंबई पुलिस के अफसर भले ये कहते नहीं थकते कि हिंदी फिल्मों के गिरते कारोबारी स्तर और मुंबई में हर तरफ दिखने वाली दिक्कतों ने अंडरवर्ल्ड को इस शहर से बाहर ठिकाने बनाने पर मज़बूर किया है, लेकिन बात बस इतनी सी नहीं है। देश की सबसे बड़ी म्यूज़िक कंपनी के संस्थापक टी सीरीज के मालिक गुलशन कुमार का हत्यारा अब्दुल रऊफ मर्चैंट यूं ही बांग्लादेश नहीं पहुंच जाता है। कोल्हापुर जेल में 2002 से उम्र कैद की सज़ा काट रहे रऊफ को अदालत ने इसी साल 23 मई को फर्रलॉग पर छोड़ा था। रऊफ के त्रिपुरा के रास्ते बांग्लादेश में दाखिल होने की पूरी आशंका जताई जा रही है, और रऊफ को पकड़े जाने के साथ ही बांग्लादेश पुलिस ने चार साल पुराने वो रिकॉर्ड भी खंगालने शुरू कर दिए हैं, जिसमें 10 ट्रक असलाह की तस्करी के मामले में दाऊद इब्राहिम का नाम सामने आया था। दाऊद की डी कंपनी का कराची का आशियाना दुनिया की निगाह में है। बढ़ते अमेरिकी दबाव के चलते पाकिस्तान भी चाहता है कि दाऊद अपना ठिकाना, भले कुछ दिन के लिए ही सही, कहीं और बना ले। और, समुद्र तक आसान पहुंच, तीन तरफ से भारत से सटी सीमाएं डी कंपनी के लिए बांग्लादेश को एक मुफ़ीद देश बना देती हैं। लेकिन, भारत के पूरब में अंडरवर्ल्ड के बनते नए आशियाने की ख़बर पाकर भारतीय सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों ने कोई बड़ा कदम उठाया हो, अभी तक तो सामने नहीं आया।

बांग्लादेश की खुफिया एजेंसी मानती है कि डी कंपनी के कम से कम 50 बड़े सिपहसालार लगातार बांग्लादेश आते रहे हैं और यही नहीं इन्हें वहां सियासी और मज़हबी मददगार भी मिल रहे हैं। बांग्लादेश पुलिस को चार पेज की एक ऐसी लिस्ट मिली है, जिसमें इन गुनहगारों और उनके बगलगीरों के नाम हैं। ज़ाहिद शेख उर्फ मुज़ाहिद नाम के एक शातिर के घर मिली इस लिस्ट से ये भी खुलासा होता है कि मुंबई अंडरवर्ल्ड अपने गिरोह में नौजवानों को भर्ती करने के लिए खूबसूरत युवतियों का सहारा भी लेने लगा है। बांग्लादेश की खुफिया एजेंसियों ने इस बात की पुष्टि की है कि डी कंपनी में बांग्लादेश से भर्ती हुईं कम से कम 20 हसीनाएं पढ़े लिखे नौजवानों. काबिल कंप्यूटर जानकारों और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले लड़कों को डी कंपनी की तरफ खींचने के काम में लगी हुई हैं। गुलशन कुमार के हत्यारे अब्दुल रऊफ की बांग्लादेश में गिरफ्तारी के तुरंत बाद मुंबई पुलिस की तरफ से इसकी कोई जानकारी ना होने का बयान आने से भी खुफिया एजेंसियों के कान खड़े हुए हैं। रऊफ बांग्लादेश में ब्राह्मणबरिया में पहचान बदलकर एक हिंदू के तौर पर रह रहा था। रऊफ के मोबाइल से डी कंपनी के पूरब में जड़ें जमाने की साज़िश के पुख्ता सबूत मिले हैं।
आईएसआई का मोहरा बन चुके दाऊद के सामने अब पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी के इशारे पर नाचने के अलावा दूसरा चारा बचा भी नहीं है और आईएसआई डी कंपनी के गुर्गों का इस्तेमाल आतंक के अलावा एक और ख़तरनाक खेल में भी कर रही हैं। रऊफ मर्चेंट की गिरफ्तारी के बाद बांग्लादेश में ही पकड़े गए लश्कर ए तोइबा आतंकी मुफ्ती ओबैदुल्ला के अतीत ने भारत के उत्तर पूर्व राज्यों के पुलिस प्रमुखों और खुफिया एजेंसियों को हिलाकर रख दिया है। मुफ्ती वो आतंकी है जिसे पुलिस पिछले डेढ़ दशक से पकड़ने की फिराक में रही है और ये शातिर बांग्लादेश के मदरसों में मौलवी का भेस धरकर छिपता रहा। मुफ्ती ही वो कड़ी है जिसके ज़रिए डी कंपनी के तार लश्कर ए तोइबा से कोई 14 साल पहले जुड़े थे। और इन दोनों खतरनाक प्यादों का इस्तेमाल करके ही आईएसआई ने भारत के उत्तर पूर्व राज्यों में गड़बड़ी फैलाने के मंसूबे बांध रखे हैं। उत्तर पूर्व को भारत से अलग करके एक इस्लामी देश बनाने की साज़िश आईएसआई ने काफी खुफिया तरीके से रची है लेकिन मुफ्ती ओबैदुल्ला की गिरफ्तारी से इसका पहली बार पर्दाफाश सबूत के साथ हुआ है। मुफ्ती खुद को देवबंद से पढ़ा हुआ बताता है और उसने से भी राज़ खोला है कि उत्तर पूर्व में कराची के आतंकी कैंपों के लिए भर्ती भी चालू हो चुकी है।
लेकिन, ऐसा भी नहीं है कि दाऊद ने पूरब में नई पनाहगाह पाने के बाद मुंबई से दामन दूर करने का कोई फैसला कर लिया हो। इस साल की शुरुआत में कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव को आई कराची से धमकी को भले किसी ने गंभीरता से ना लिया हो, लेकिन वो अंडरवर्ल्ड की मुंबई में नई दस्तक थी। तब से लेकर पिछले छह सात महीनों में ऐसी तमाम वारदातें हुई हैं, जो इस तरफ साफ इशारा करती हैं कि अंडरवर्ल्ड की हरकतें तेज़ हो रही हैं और इस बार शायद वो पहले से ज़्यादा प्लानिंग के साथ पैर पसार रही है। यूटीवी के मालिक रॉनी स्क्रूवाला को मिली धमकी और फिर उनके दफ्तर से टपोरियों की गिरफ्तारी तो बस एक झलकी है। पुलिस के बड़े अफसर दबी ज़ुबान से उन दुर्घटनाओं का ज़िक्र खासतौर से करते हैं जो पिछले कुछ महीनों में मुंबई की सड़कों पर हुईं। इन दुर्घटनाओं में पुलिस के वो ख़बरी निपटाए गए, जो अंडरवर्ल्ड खासतौर से अंडरवर्ल्ड की हरकतों के बारे में क्राइम ब्रांच तक जानकारियां लाया करते थे। अंडरवर्ल्ड मुंबई को अब ऑपरेशन सेंटर नहीं बल्कि कॉरपोरेट हब बनाना चाहता है। और, यहां से दक्षिण की तरफ भी निशाना साध रहा है। कभी दाऊद के करीबी और फिर दाऊद के खिलाफ पुलिस को टिप देने वाले मुथप्पा राय का नाम कर्नाटक में बच्चा बच्चा जानता है। सितंबर में कर्नाटक में आईपीएल की तर्ज़ पर केपीएल होने जा रहा है और आप शायद ये पढ़कर चौंक जाएं कि इस टूर्नामेंट की एक टीम का मालिक मुथप्पा राय हो सकता है। मुथप्पा ने बाकायदा टीम खरीदने के लिए बोली लगाने का फॉर्म भी भरा है। प्रत्यर्पण संधि का इस्तेमाल करके भारत लाए गए मुथप्पा के खिलाफ अब कोई केस नहीं है। दो साल पहले उसके खिलाफ़ चल रहे सारे मुकदमों का उसके पक्ष में निपटारा हो गया, यहां तक कि कत्ल जैसे मुकदमों में भी पुलिस दमदार सबूत और गवाह नहीं पेश कर पाई।
मुथप्पा तो बस एक नमूना है। डी कंपनी देश के हर सूबे में अपने गुर्गे खड़े करने की फिराक में हैं। अंडरवर्ल्ड की वापसी इस बार बहुत ही सफाई के साथ बनाई गई साज़िश के तहत होती नज़र आ रही है। डी कंपनी के गुर्गे जानबूझकर विदेश से भारत की जेलों में पहुंच रहे हैं, इस उम्मीद के साथ कि गवाहों और सबूतों के अभाव में वो कल नहीं तो परसों खुली हवा में सांस ले रहे होंगे। महाराष्ट्र में अश्विन नायक के जेल से बाइज्जत बरी होने और फिर शिव सेना नेता उद्धव ठाकरे से मिलने के भी अलग अलग कयास मुंबई पुलिस के अफसर लगा रहे हैं। लेकिन, डी कंपनी के इस नए खेल की मुख़ालिफ़त करने वाले भी सामने आने लगे हैं। उसके अपने ही गैंग में इसके खिलाफ फूट पड़ने की ख़बरें हैं। दाऊद के भाई नूरा को भी इसी सिलसिले में निशाना बनाया गया। खबरें ये भी हैं कि डी कंपनी की नई प्लानिंग में सेकंड लाइन के गुर्गे बड़ा हिस्सा पाना चाहते हैं।
और सेकंड लाइन के इन गुर्गों का लीडर है छोटा शकील। वो छोटा शकील जिसका नाम सुनते ही देश के बड़े बड़े धन्नासेठों की तिजोरियों के ताले अपने आप खुल जाते हैं। लेकिन अंडरवर्ल्ड की नई दस्तक इस बार ज्यादा चौंकाने वाली हो सकती है। डी कंपनी की ख़बर रखने वाले नूरा इब्राहिम से जुड़ी ख़बरों का इस बारे में खासतौर से ज़िक्र करते हैं। दाऊद का मुंबई और भारत के दूसरे सूबों में फिरौती और हत्या की सुपारी लेने का कारोबार छोटा शकील ही संभालता रहा है, लेकिन छोटा शकील और नूरा के बीच अनबन और इसके बाद नूरा पर क़ातिलाना हमले की ख़बर फैलने की असलियत तक अब तक कोई नहीं पहुंच पाया है। और, इस अनबन के बीज तब पहली बार पनपे थे जब छोटा शकील के छोटे भाई अनवर को डी कंपनी से बाहर का रास्ता दिखाया गया। नूरा पर क़ातिलाना हमले की ख़बर और देश में फर्जी करेंसी की बड़ी बरामदगियों के बीच कुछ ही दिनों का अंतर रहा। और, ये बात किसी से भी छिपी नहीं हैं कि छोटा शकील ने फर्जी करेंसी का कारोबार का दारोमदार अपने छोटे भाई को सौंप रखा था। अनवर का फर्जी करेंसी का नेटवर्क पाकिस्तान से शुरू होकर नेपाल, बांग्लादेश और भारत तक फैला रहा है। लेकिन, डी कंपनी से बाहर होने के बाद भी अनवर ने अपना काम बंद नहीं किया। उसने बांग्लादेश में अपनी नई पनाहगाह बनाई और वहीं से फर्जी करेंसी के कारोबार को अंजाम देने लगा। और, यहीं से डी कंपनी के इतिहास में पहली बार अदावत के अंदाज़ नज़र आने लगे।
गुलामी के रिश्ते पर अब खून का रिश्ता भारी पड़ चुका है। बीस साल से दाऊद इब्राहिम के साथ साए की तरह रहा छोटा शकील अपने भाई को लगातार मदद पहुंचाता रहा है। और, नूरा पर क़ातिलाना हमले की ख़बर आने से पहले नूरा और छोटा शकील के बीच अनबन की जो ख़बर आई थी, उसकी वजह भी यही थी। भाजपा नेता वरुण गांधी को मारने की तैयारी करके आए राशिद मलबारी की गिरफ्तारी ने छोटा शकील का रुआब डी कंपनी में घटाया तो छोटा शकील को लगने लगा कि अब डी कंपनी में उसे अपना खोया हुआ रुतबा पाने के लिए किसी बड़ी वारदात को अंजाम देना पड़ेगा। वैसे मुंबई के पुलिस अफसरों के बीच इस बात की चर्चा अब आम है कि ऐसा कुछ कर पाने से पहले ही छोटा शकील को अपने बॉस यानी दाऊद का ठिकाना छोड़ना पड़ा है। और, अगर खुफिया खबरों पर यकीन किया जाए तो छोटा शकील का नया अड्डा बांग्लादेश हो सकता है। फिलहाल वो कहां है, ये कोई नहीं जानता, अंडरवर्ल्ड की नब्ज थामने वालों को कोई जानकारी है तो बस इतनी कि डी कंपनी के ज़्यादातर शार्प शूटर्स छोटा शकील के हमसफर बन चुके हैं और आने वाले दिनों में अगर छोटा शकील ने अपना अलग गैंग बनाने के सपने को हक़ीक़त में बदलने की कोशिश की, तो इसकी पहली सूनामी पूरब से ही आएगी।
बांग्लादेश में बड़े पैमाने पर हो रही अंडरवर्ल्ड के लोगों की गिरफ्तारी को मुंबई में कुछ साल पहले चले गैंगवार के तौर पर देखा जा रहा है। तब मुंबई पुलिस के कुछ अफसरों पर ये आरोप लगा था कि वो अंडरवर्ल्ड के इशारों पर विरोधी गैंगलीडर्स का एनकाउंटर में सफाया कर रहे हैं। कुछ कुछ ऐसा ही अब बांग्लादेश में हो रहा है। वहां लगातार या तो बड़े पैमाने पर नकली करेंसी बरामद की जा रही है या कोई ना कोई शार्प शूटर गिरफ्तार हो रहा है। लेकिन, इस लुकाछिपी के बीच डी कंपनी और छोटा शकील दोनों के गुर्गे तेज़ी से अपने लिए महफूज़ ठिकाने भारतीय सीमा से सटे इलाकों में बनाते जा रहे हैं। मुकाबला अब अपना अपना दबदबा कायम करने का है और इस दबदबे की मिसाल देने के लिए और अपने पाकिस्तानी आकाओं की नज़र में चढ़ने के लिए दोनों खेमों में से कोई भी पूरब के किसी बड़े शहर में अपने घिनौने कारनामों को अंजाम देने की पूरी फिराक़ में हैं।

(यह लेख नई दुनिया के 29 जुलाई के सभी संस्करणों में संपादकीय पृष्ठ पर संपादित स्वरूप में प्रकाशित हुआ। इसे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें य लिंक को ब्राउज़र में कॉपी पेस्ट करें)

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शनिवार, 25 जुलाई 2009

सहकारिता को सियासत का श्राप- 1



आधुनिक अर्थशास्त्रियों को तो ख़ैर ये बात बहुत देर में समझ में आई, लेकिन भारतीय वेदों में सह अस्तित्व की बात शुरू से मान्य रही है। ओम् सह नानवतु, सह नौ भुनक्तु, सह वीर्यम करवावहै का ज़िक्र हो या फिर सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामयाः , सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत। हर बार मंशा यही रही कि ‘सब’ का कल्याण हो। समाज को आगे बढ़ाने की ये धारणा भारतीय मानस ने ऋषियों से लेकर आगे बढ़ाई। भारत का मानस गांवों में है और गांवों में रहने वालों के सामूहिक विकास के लिए ही सहकारिता की अवधारणा अपने यहां नई बात नहीं है। लेकिन, जिस सहकारिता के पाश ने महाराष्ट्र के किसानों के लिए श्राप का काम किया है, उसकी कथा ज़रा अनोखी है। ऐसा कैसे हो गया कि एक साथ, एक ही सहकारिता समिति के सदस्यों ने एक साथ काम शुरू किया, लेकिन उनमें से एक करोड़ों की संपत्ति का मालिक बन गया और देश में कानून बनाने वालों के बीच तक जा बैठा, जबकि उसके साथ के किसान अब उसी के रहमोकरम पर हैं। आर्थिक विकास के लिए विपणन प्रणाली के साथ साथ ही सहकारिता का भी जन्म हुआ। इसका विकास और स्वरूप पहले भारतीय संयुक्त परिवारों के चलाने और आगे बढ़ाने के ढंग को आदर्श मानकर किया गया। गावों के तालाब सहकारिता के सबक की पहली सीढ़ी हुआ करते थे, लेकिन जैसे जैसे आधुनिकता के आडंबर में सर्व की बजाय अहम् की स्थापना होती गई, व्यवस्थाएं व्यक्तिपूजक होने लगीं और सहयोग की जगह ले ली एक ऐसी गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने, जिसमें दूसरे का अहित कर अपनी तिजोरी भरने की होड़ सी मच गई। महाराष्ट्र की सियासत में चमकने वाले 80 फीसदी से ज़्यादा नेताओं के आभा मंडल के पीछे वो चीनी मिलें हैं, जिन्हें शुरू तो सहकारिता के आधार पर किया गया, लेकिन समितियों के कानूनों की अनदेखी और ‘मुनाफा हमारा, घाटा सरकार का’ की नीति ने इनके सदस्य गन्ना किसानों को नेताओं का बंधुआ मतदाता बनाने से ज़्यादा कुछ नहीं किया।
आज़ादी से 46 साल पहले पड़े भीषण अकाल के वक्त देश के किसानों की माली हालत सुधारने की कोशिशें शुरू हुई थीं। तब बने अकाल आयोग ने सिफारिश की थी कि किसानों को सस्ती दरों पर कर्ज़ मुहैया कराया जाए। इस सुझाव पर सरकार ने एडवर्ड लॉ की अगुआई में बनी समिति की राय ली और इसी समिति ने पहली बार देश में ऐसी सहकारी समितियां गठित करने का सुझाव दिया, जिसके जरिए किसानों को सीधे सहायता दी जा सके। ये समितियां बहुउद्देश्यीय हों, इस बारे में रिजर्व बैंक के कृषि ऋण विभाग ने एक लंबी रपट बनाई, आज़ादी से दस साल पहले रिजर्व बैंक ने सहकारी आंदोलन के बारे में जो कुछ काम किया, वो लंबे अरसे तक कागज़ों में कैद रहा और यहां तक कि प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जब ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण समिति बनाई तो इसकी रिपोर्ट में साफ तौर पर लिखा गया कि भारत में सहकारिता असफल रही है। लेकिन, तब सरकार ने ये भी माना था कि देश के किसानों के हालात सुधारने के लिए सहकारिता के अलावा दूसरा कोई रास्ता भी नज़र नहीं आता, लिहाजा सरकार को सहकारिता को सफल बनाना ही होगा। इसका असर भी हुआ और खाद, बीज व दूध जैसे मामलों में सहकारिता ने कामयाबी के नए अध्याय लिखे। लेकिन, गन्ने की खेती को बढ़ावा देने के लिए किए गए सहकारिता के प्रयोग पर कुछ खास लोगों ने कब्जा कर लिया।
कहते हैं कि महाराष्ट्र में वोट गन्ने की पोरों से निकलते हैं। वो गन्ना जिसे चलते ट्रैक्टर से खींचने के लिए आप भी कभी इसके पीछे दौड़े होंगे और जिसका रस पीने के लिए कभी गांव के बाहर बने कोल्हू पर बच्चों की भीड़ लगी रहती थी। कोल्हुओं का रस बस गांव में गुड़ बनाने के काम आता और ज्यादातर रस गन्ने की खोई के साथ ही बर्बाद हो जाता। गन्ने से ज्यादा से ज्यादा फायदा किसानों को मिल सके, इसके लिए महाराष्ट्र में सहकारिता के प्रयोग शुरु हुए। गन्ने के दाम इससे मिलने वाले गन्ने के रस के प्रतिशत यानी रिकवरी के हिसाब से तय होते हैं। 2009-2010 के चीनी सीजन के लिए केंद्र सरकार गन्ने की एमएसपी में 32 फीसदी की बढ़ोतरी करते हुए इसका दाम रुपये 107.76 करने का ऐलान कर चुकी है। ये दाम 9.5 फीसदी रिकवरी वाले गन्ने पर है, इसके बाद हर 0.1 फीसदी पर किसानों को रुपये 1.13 प्रति क्विंटल और मिलेंगे। महाराष्ट्र में चीनी मिलें सहकारी क्षेत्र में हैं और वहां गन्ने में रिकवरी भी अधिक होती है। लिहाजा, केंद्र के इस ऐलान से महाराष्ट्र के गन्ना किसानों में खुशी की लहर दौड़ जान चाहिए थी, लेकिन ऐसा दिखता नहीं है।
गन्ना खरीद के इस दांव पेंच को समझने के बाद ज़रूरी है ये समझना कि आखिर महाराष्ट्र में सहकारिता को आंदोलन मानने वाले बड़े नेताओं ने कैसे इसे अपने फायदे के लिए दुहा। ये तो सब जानते हैं कि महाराष्ट्र के गठन से लेकर अब तक अगर 1995 से 1999 तक का समय छोड़ दें तो मुंबई के मंत्रालय पर कांग्रेसियों का ही कब्ज़ा रहा है। कांग्रेस का मतलब यहां उन पार्टियों से भी है जो सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस से छिटक कर अलग हुईं, लेकिन सत्ता की मलाई में शामिल रहने के लिए फिर से उसी की गोद में आ बैठीं। महाराष्ट्र के चीनी मिलों के पदाधिकारियों की सूचियों को भीतर तक छान चुके लोग बताते हैं कि इनमें से 90 फीसदी से ज़्यादा चीनी मिलों पर आज भी कांग्रेस या उसकी सहयोगी पार्टियों का कब्ज़ा है। और, इनमें से ज़्यादातर पदाधिकारी ना तो खुद किसानी करते हैं और ना ही किसानों को इन पदों पर काबिज़ होने देते हैं। महाराष्ट्र में सहकारिता कैसे किसानों के लिए श्राप बन चुकी है, इसकी बात चलने पर महाराष्ट्र के सीमांत और मझोले किसान संगमनेर फैक्ट्री के 13 साल पहले के चुनावों को हवाला देते हैं। बताते हैं कि उस वक्त फैक्ट्री के छोटी जोत वाले 14 हज़ार किसान सदस्यों में से एक एस तानपुरे ने गवर्निंग बॉडी के चुनावों में हिस्सा लेने की गुस्ताख़ी कर दी थी। बिना धन बल या बाहुबल के चुनाव जीतने का ख्वाब देखने वाला तानपुरे चुनाव तो हारा ही, बाद में खद्दरधारियों ने ना तो उसका गन्ना खरीदा और ना ही उसे कभी पनपने दिया। सहकारिता के मठाधीशों का विरोध करने वालों को महाराष्ट्र में खुलेआम धमकी मिलना तो अब आम बात है, और बगावत का झंडा बुलंद करने की कोशिश करने वालों का क्रेडिट रोक देना, उनके पानी, बिजली के कनेक्शन कटवा देना भी महाराष्ट्र के गन्ना किसानों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका है।
(जारी...)

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

रहिमन निज मन की व्यथा...


कल से आज तक छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र तक से ना जाने कितने फोन आए, सिर्फ इस बात की बधाई देने के लिए कि मैंने अपने ब्लॉग पर अपने मन की बात कही। दरअसल, ब्लॉग की मूल अवधारणा भी यही है कि जो बात इंसान किसी से ना कह पाए, वो अपने ब्लॉग पर लिखकर मन को हल्का कर ले। वैसे तो रहीम बाबा बहुत पहले कह गए हैं कि "रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय, सुनि इठिलइहैं लोग, सब बांटि ना लैहै कोय।" लेकिन पीर जब शूल बनकर भीतर चुभने लगती है तो लोग लेखनी का सहारा लेते हैं।

रायपुर से आने के कोई 15 दिन बाद यानी 18 जून को मैंने एक ब्लॉग लिखा था, लेकिन वो था महज दिल हल्का करने के लिए, भड़ास 4 मीडिया ने इसे भले अब इसकी सामयिकता देखते हुए उठाया हो। हां, ये और बात है कि भड़ास 4 मीडिया की हेडलाइन से ऐसा लगता है कि जैसे सारे सेठों के सुपुत्र गण भ्रष्टाचार और अनाचार को बढ़ावा देने वाले हों। ऐसा कतई नहीं है, मुझे तो अमर उजाला अखबार के मालिकों के बेटे आज भी याद हैं, जो संपादकों के पैर सबके सामने छुआ करते थे और व्यक्तिगत मुलाकातों में आज भी छूते हैं। ये संस्कार ही है जो बड़े बिजनेस घरानों के बेटों को दौलत के साथ साथ विरासत में मिलते हैं। हिंदी फिल्मों के प्रोड्यूसर वाशू भगनानी की असल कमाई रीयल इस्टेट से होती है। उनका मुंबई से लेकर दुबई, चीन और ना जाने कहां कहां तक इतना कारोबार फैला है कि वो दस बारह चैनल तो कभी भी खोल सकते हैं, लेकिन उनके बेटे जैकी (जो हाल ही मे फिल्म कल किसने देखा से लॉन्च हुए) से मिलने के बाद किसी को लगेगा भी नहीं कि ये एक अरबपति का बेटा है। कमर से दोहरा होकर अभिवादन करने की उसकी मासूम अदा के सब कायल हैं। मिथुन चक्रवर्ती अपने समय में देश के सबसे बड़े आयकर दाता रह चुके हैं। इलस्ट्रेटेड वीकली ने तब मिथुन के ऊपर कवर स्टोरी की थी। लेकिन, उनका बेटा मिमोह अब भी झुककर दादा के दोस्तों के पैर छूता है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिन्हें गिनाने बैठें तो शायद पूरी रात बीत जाए।

दरअसल, बेटा किसी का भी हो, वो अपने पूर्वजों की परछाई ही होता है। कई बार अच्छे घरों के बेटे भी बिगड़ जाया करते हैं और इसमें दोष होता है बेहिसाब मिलने वाली दौलत या फिर विरासत में मिली किसी तरह की मठाधीशी का। रही बात मीडिया की तो, वो घराने जिन्होंने मीडिया को अपने इकलौते कारोबार के रूप में अपना रखा है, वहां संस्कार आज भी ज़िंदा हैं। लेकिन, कोई चैनल या अखबार अपने घोषित उद्देश्य से इतर मकसद से खोला गया हो, तो हालात वैसे ही हो सकते हैं जैसे मैंने अपने ब्लॉग में लिखे। टीवी चैनल तो खैर बहुत बड़ी बात है, किसी मुख्यमंत्री ने आज तक किसी छोटे या मंझोले अखबार को भी उसके मालिक के मूल धंधे को लेकर सार्वजनिक रूप से अपमानित नहीं किया होगा। लेकिन, भाजपा की 'आदर्श' छत्तीसगढ़ सरकार के मुखिया रमन सिंह ने ये भी कर दिखाया। और, ऐसा तभी हो सकता है जब हमने पहले अपना गिरेबान ना झांका हो। संपादकों तक यह संदेश पहुंचाना कि छोटे साहब फलां फीमेल एंकर पर मेहरबान हैं, या फिर फलां फीमेल रिपोर्टर से नाराज़ हैं, और ये सोचना कि इससे ये लोग काम खत्म होने के बाद खास केबिन में मिलने के लिए पहुंच जाएंगे मीडिया के बारे में नासमझी नहीं तो और क्या है। और ऐसी ही हरकतें कई बार नासमझी में ही हो जाती हैं सूबे के मुखिया पर दबाव बनाने के लिए। उदाहरण इसके उलट भी बहुतेरे हैं, रंगबाज़ सियासी दिग्गज नेताओं को कई नौजवान मीडिया मालिकों ने नाकों चने चबवाए हैं, औऱ आज भी मीडिया में सेठों के लायक लौंडों की कमी नहीं है, लेकिन तालाब गंदा करने के लिए बस एक ही मछली काफी है।

।।इति श्री दण्डकारण्ये रायपुरखंडे श्रीदित्यनारायण कथाया: अंतिमोध्याय:।।

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गुरुवार, 2 जुलाई 2009

माओवादियों का ‘मिशन दिल्ली’ !

छत्तीसगढ़ की राजधानी से कोई तीन- साढ़े तीन सौ किलोमीटर आंध्र प्रदेश की तरफ जाने पर नक्सलवाद की असल कहानी सामने आती है। ये इलाका कहलाता है बस्तर यानी रामायण काल के दण्डकारण्य का हृदय प्रदेश। नक्सली इसे आज भी दण्डकारण्य ही कहते हैं। और कहते हैं कि जैसे भगवान राम ने वनवासियों की मदद से सेना बनाई थी, वैसे ही ये भी वनवासियों की मदद से अपना मिशन फतेह करना चाहते हैं। यहां अगर आप पहली बार जा रहे हैं और इलाके में किसी को नहीं जानते तो आपकी जान ख़तरे में है। और, मुख्य सड़क या सड़क किनारे बने कस्बों से उतर कर सात- आठ किलोमीटर अंदर की तरफ चले गए तो आपके लौट कर मुख्य सड़क पर आने की भी कोई गारंटी नहीं। ये नक्सलियों का इलाका है। नक्सली जो अब खुद को माओवादी कहलाना ज़्यादा पसंद करते हैं। माओ त्से तुंग कौन थे, उनकी बताई क्रांति के तीन पड़ाव कौन से हैं? इन सब बातों से देश के नक्सलियों का अब ज़्यादा लेना-देना बचा नहीं है। उनका नक्सलवाद जानता है तो बस एक बात 2015 तक भारत के बड़े भू भाग पर अपनी सरकार कायम करना। इसकी शुरुआत हो भी चुकी है। खुद छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक ये बात स्वीकार कर चुके हैं कि नक्सली देश के बड़े हिस्से पर कब्जे की योजना पर काम कर रहे हैं। नक्सली इन इलाकों में समानांतर सरकार चलाने की तरफ कदम भी बढ़ा चुके हैं।
ये सरकार कैसी होगी, इसका स्वरूप क्या होगा और इसकी कार्यपद्धित क्या हो सकती है? ये जानना है तो बस्तर आइए। छत्तीसगढ़ के बस्तर। वो छत्तीसगढ़ जिसकी सरकार को भाजपा आदर्श सरकार के तौर पर पूरे देश के सामने प्रचारित करती रही है। लेकिन, ये ‘आदर्श’ सरकार भी नक्सलवादियों की समानांतर सरकार के सामने मौन है। इस ‘आदर्श’ सरकार के मुखिया और मंत्री भले अतीत में सलवा जुड़ूम की कुछ सभाओं में जाकर और फिर वनवासियों और आदिवासियों में नक्सलियों के खिलाफ उभरे इस जन आंदोलन को समर्थन की बात ढोल बजाकर कहते हों, लेकिन हक़ीक़त यही है कि नक्सलवाद का ख़ात्मा कोई नहीं चाहता। आख़िर इसी के नाम पर तो नक्सल प्रभावित राज्य केंद्र से मोटी रकम वसूलते रहे हैं। न कोई स्पष्ट रणनीति और ना ही कोई ठोस कार्य योजना। ले देकर बस्तर में कुछ दिखता है तो बस नुकीले तारों से घिरे पुलिस थाने और नक्सलियों के इशारे पर चलती स्थानीय मशीनरी।
बस्तर के बेलाडिला में दुनिया का सबसे उम्दा लौह अयस्क पाया जाता है। बेलाडिला की पहाड़ियों पर घूमते हुए बदलते भारत के लिए ज़रूरी इस्पात को देश के इस सबसे पिछड़े इलाकों की छाती चीरकर निकालती मशीनें दिखती हैं। बताते हैं कि एक एक मशीन पच्चीस करोड़ की है। और, लौह अयस्क को ढोने वाले डंपर की कीमत करीब चार पांच करोड़ रुपये। बेलाडिला की पहाड़ियों पर जिस दिन मैं पहुंचा उस दिन एनएमडीसी की खदानों में काम बंद था, पूछने पर पता चला कि स्थानीय आदिवासियों ने हड़ताल का ऐलान किया है। देश की शान समझे जाने वाली एनएमडीसी, उसके कर्मचारियों की सुरक्षा में तैनात केंद्रीय सुरक्षा बलों और स्थानीय पुलिस के जवान किसी की हिम्मत नहीं कि इस ऐलान के बाद खदान से एक टुकड़ा भी लौह अयस्क का निकाल सकें। कुछ कुछ जम्मू कश्मीर जैसे हालात। दुर्गम और ख़तरनाक मोड़ों से गुजरते हुए बेलाडिला की पहाड़ियों की चोटी पर सीआरपीएफ के बेस कैंप आकाश नगर पहुंचे तो वहां भी वैसा ही सन्नाटा। ख़ाकी ने खुद को सुरक्षा घेरे में कैद कर रखा था। पूरे बस्तर में कहीं भी किसी भी जगह एक भी पुलिस कर्मी सड़क पर गश्त करता नहीं दिखा। पुलिस थानों को देखकर साफ पता चलता है कि यहां ख़ाकी खुद खौफ़ज़दा रहती है, वो दूसरों की नहीं बस अपनी ही हिफाज़त कर ले तो बहुत बड़ी बात है।
बेडाडिला की इन पहाड़ियों के एक तरफ अगर मिलता है दुनिया का बेहतरीन लौह अयस्क तो दूसरी तरफ है केंद्र और राज्य की सारी विकास नीतियों की पोल खोलती आदिवासियों की बस्तियां। आने जाने के लिए ना कोई सड़क और ना ही मुसीबत के लिए घरवालों तक ख़बर पहुंचाने के लिए कोई मोबाइल नेटवर्क। पहुंचा जा सकता है तो बस पैदल, वो भी लगातार 24 घंटे पैदल चलने के बाद। यहां पैंट शर्ट पहने पहुंचा शख्स भी एक अजूबा है। जंगलों के बीच रहने वाले ये लोग आज भी शहरों से पहुंचे लोगों को देखकर भाग खड़े होते हैं। और, वो भी बच्चों को छोड़कर। फिर टुकुर टुकुर पेड़ों के पीछे से ये समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर ये शहरी चाहते क्या हैं। इंसान तो बस कहने भर को हैं। ना पीने को पानी और ना खाने को अनाज। नवरात्र या दूसरे व्रतों के दौरान हम और आप कुटू का आटा खाते हैं। ये वनोपज छत्तीसगढ़ की पहाड़ियों पर खूब होती है। काले तिल को अगर तिकोनी शक्ल में सोचें तो कुटू के बीज की शक्ल का अंदाजा आप लगा सकते हैं। रसहीन, स्वादहीन इसी कुटू के सहारे इन आदिवासियों की ज़िंदगी चलती है। सूर्योंदय से शुरू होने वाली ज़िंदगी सूर्यास्त होते ही थम जाती है। ना कहीं कोई ढिबरी ना चिराग। तेल क्या होता है, ये भी इन लोगों के लिए अजूबा है। और, इन्हीं आदिवासियों को ढाल बनाकर खड़ा हो रहा है नक्सलवादियों का मिशन दिल्ली।
चीन में क्रांति के वाहक माओ त्से तुंग ने क्रांति के तीन पड़ाव बताए। पहला भूख से बिलबिला रहे आदिवासियों और वनवासियों के समूह बनाना और उनका भरोसा हासिल करना। दूसरा दिखावे के लिए ही सही पर इनकी सहायता के लिए लोकप्रिय आंदोलन खड़ा करना और प्रचार में इन भूखे नंगों की मदद लेकर आंदोलन को मजबूत बनाना, इसका विस्तार करना। इसी दूसरे चरण में माओवाद छोटे छोटे सशस्त्र दलों के गठन की वक़ालत करता है। इन दोनों चरणों की कामयाबी के बाद माओवाद का अगला कदम होता है इन सशस्त्र दलों को गांवों में संगठित करना और वाजिब ताक़त हासिल करने के बाद शहरों की तरफ कूच कर देना। छत्तीसगढ़ में धमतरी के पास सिहावा के करीब 15 पुलिस कर्मियों की हत्या अगर कोई संकेत है तो छत्तीसगढ़ में नक्सलवादियों के शहरी बस्तियों तक पहुंचने में अब ज़्यादा वक्त नहीं बचा है। वैसे उद्योगपतियों से हफ्तावसूली तो शहरी क्षेत्रों में शुरू हो ही चुकी है। छत्तीसगढ़ के दो तिहाई से ज्यादा हिस्सों पर नक्सलवादियों का प्रभाव है, और इन इलाकों के जंगलों में अब सूबे के मुख्यमंत्री रमन सिंह की नहीं नक्सलियों की समानांतर सरकार चलती है। चाहे वो उत्तर में सरगुजा और कोरबा की एसईसीएल खदानें हों या दक्षिण में बस्तर की एनएमडीसी की खदानें, बिना नक्सलियों की इच्छा के यहां कोई ठेकेदार काम नहीं कर सकता। तेंदूपत्ता ठेकेदारों से सैकड़ों की वसूली अब पुरानी बात हो चुकी, बस्तर में अब वसूली लाखों में होती है वो भी खुले आम। छत्तीसगढ़ में मीडिया पर इस तरह की भी अघोषित पाबंदी है कि नक्सलियों के बढ़ते प्रभाव के बारे में वो कम ही लिखे। कभी सरकारी विज्ञापनों का लालच तो कभी नक्सलियों को महिमामंडित करने से रोकने के लिए बनाए गए कानून की धौंस दिखाकर नक्सलप्रभावित इलाकों के पत्रकारों को सरकारी महकमा अरदब में लेने की कोशिश करता रहता है। लेकिन, ये मूल समस्या का हल नहीं बल्कि बदबू देने लगी व्यवस्था पर टाट डालने की कोशिश भर है, लेकिन टाट के परदों से पाखाने की बदबू भला छुपी है कहीं?
वैसे चौंकाने वाली बात ये भी है चीन के माओ त्से तुंग को छोड़कर देश का नक्सलवाद अब क्यूबा के चे गुवेरा सरीखे चमत्कार की आशा करने लगा है। चे की रणनीति के तहत नक्सली अब पुलिस को सीधे चुनौती देते हैं, उन्हें हिंसा के लिए प्रेरित करते हैं और फिर पुलिस की तानाशाही के खिलाफ आदिवासियों को भड़का कर अपनी तरफ शामिल करते हैं। सिहावा कांड से नक्सलियों के पूरी तरह से चे गुवेरा की कार्यशैली से प्रभावित होने का पहला प्रमाण मिलता है। दिन ढलते ही दूसरे जिले की पुलिस तक अपना खबरी भेजकर नक्सलियों ने गलत जानकारी पहुंचाई। पुलिस वाले बिना ज़मीनी सूचना लिए या कोई रणनीति बनाए प्राइवेट वाहनों में सवार होकर जंगल के भीतर जा पहुंचे। जहां पुलिस वाले पहुंचे वो इलाका दूसरे जिले का था। दिखावे के लिए गांव वालों का झगड़ा दिखाया गया। पुलिस ने उचट रही हाट बाज़ार में जाकर वनवासियों को धमकाया डराया और काम पूरा हुआ समझ उसी रास्ते से लौट लिए, जिस रास्ते से वो आए थे, जबकि नक्सल विरोधी ऑपरेशन में लगे हर पुलिस कर्मी को ये स्पष्ट निर्देश हैं कि जंगल में जिस रास्ते से प्रवेश किया जाए, उस रास्ते कभी ना लौटा जाए।
लेकिन, ऐसा हुआ और नक्सलियों ने पूरी पुलिस पार्टी उड़ा दी। पुलिस पर हमले के बाद से इलाके में वन वासियों और आदिवासियों के खिलाफ पुलिस अभियान जारी है। दर्जनों लोग हवालात में हैं और बाहर बढ़ने लगा है पुलिस के खिलाफ असंतोष। और, यही तो नक्सली चाहते हैं। सिहावा जैसे हालात पश्चिम बंगाल में लालगढ़ से लेकर झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश तक माओवादियों ने जानबूझकर बनाए हैं। नेपाल से सटे उत्तर प्रदेश के जिलों से जो लाल गलियारा शुरू होता है, वो इन प्रदेशों से होता हुआ आंध्र प्रदेश के आगे तमिलनाडु से होता हुआ केरल तक पहुंचता है। 2003 में जब पीपल्स वॉर ग्रुप और माओवादी कम्यूनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी मिलकर जब सीपीआई- माओवादी हुए तो इन सूबों की पुलिस ने इसे बहुत हल्के में लिया। जबकि, ये माओवादियों की एक बहुत बड़ी योजना की शुरुआत का संकेत था। ये विलय हुआ था दक्षिण एशिया में सक्रिय सभी माओवादी गुटों को एक साथ लाने के लिए। इसी के साथ नक्सलवाद को आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और बिहार के कॉलेजों तक सक्रियता से पहुंचाया गया। नक्सलवाद से लैपटॉप और सेटैलाइट फोन रखने वाले लोग जुड़े और नेपाल से श्रीलंका तक माओवादियों का बेखटके आना जाना हो गया। और, नेपाल की चीन से बढ़ती नजदीकियों के बारे में तो प्रचंड के सत्ता में आने से पहले ही बातें होने लगी थीं। नक्सलवादी अपने पहले मकसद यानी दक्षिण एशिया के सभी माओवादियों को एक छाते के नीचे लाकर कोऑर्डिनेशन कमेटी ऑफ माओइस्ट पार्टीज़ ऑफ साउथ एशिया नामक संगठन बनाने में कामयाब रहे हैं, लेकिन दक्षिण एशिया की सरकारों के बीच तो दूर दिल्ली और नक्सलप्रभावित राज्यों के बीच भी ऐसी कोई कोऑर्डिनेशन कमेटी अब तक नहीं बन पाई है, जो नक्सलियों के खिलाफ साझा अभियान चलाने का इरादा रखती हो।
राज्यों की राजधानियों के एसी कमरों में बैठकर एंटी नक्सल ऑपरेशन चलाए जा रहे हैं। जंगलों में जवानों की जानें जा रही हैं। और, अफसरों के चेहरों पर शिकन तक नहीं है। नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास के नाम पर सरकारी रकम से ठेकेदार और अफसर किस तरह अपनी जेबें भर रहे हैं, इसे देखना हो तो अपनी जान जोखिम में डालकर बस्तर के किसी भी गांव की सैर कर आइए। राशन में 25 पैसे किलो की दर से मिलने वाला नमक वनवासियों तक नहीं बल्कि सीधे इलाके के कारोबारियों के पास पहुंचता है। और, खुले बाज़ार में यही नमक 3 से 4 रुपये किलो की दर पर खुलेआम बिकता है। बस्तर में ड्यूटी करने आए जवानों को मलेरिया तक से बचाने के इंतजाम नाकाफ़ी हैं। दिल्ली, मुंबई और दूसरे बड़े शहरों में रहने वालों को ये जानकर हैरानी हो सकती है कि बस्तर में आज भी मलेरिया ही सबसे बड़ी जानलेवा बीमारी है। सरकारी अस्पतालों की हालत ऐसी है कि बस पूछिए मत। जन्म पूर्व मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत से कई गुना है, जबकि कुपोषण के ताजा आंकड़े तो चौंकाने वाले हैं।
बस्तर के कई गावों में आज भी वनवासी और आदिवासी बस एक समय ही भोजन करते हैं। इस सबके बावजूद पटवारी हो या फिर वन विभाग का कर्मचारी वनवासियों को डराता धमकाता है। उनकी स्थानांतरण खेती की परंपरा को कानून के खिलाफ बताता है। वन्य कानूनों से अनजान आदिवासियों को फसलों को बर्बाद करने वाले सुअर को मारने तक में जेल भेजने की धमकी देना या फिर सरेआम पिटाई करना, ये सब वो बातें हैं जो नक्सलवाद को यहां पनपने में मदद देती हैं। नक्सली 10- 12 के गोल में आते हैं, ऐसे पटवारी या वन कर्मी से कान पकड़कर उठक बैठक कराते हैं और गांव वाले बोल उठते हैं- लाल सलाम। लेकिन, रत्ती रत्ती भरता ये गुस्सा नक्सलवाद की जड़ें फैलाने में मदद कर रहा है। ये जड़ें जंगलों की मिट्टी से निकलकर शहरों की बुनियादों को छूने लगी हैं। नक्सलवाद अब किसी एक राज्य की समस्या भर नहीं है, ये देश पर आई आफ़त है। दिल्ली की सरकार इसे जितना जल्दी समझ
ले उतना ही अच्छा, क्योंकि 2015 में अब साल ही कितने बचे हैं।
फोटो परिचय: बेहतरीन लौह अयस्क की खान बेलाडिला की सबसे ऊंची चोटी पर लेखक, पीछे विस्फोट के बाद धरती से बाहर आया लौह अयस्क दिख रहा है।
(इस लेख का संपादित स्वरूप 'नई दुनिया' के सभी संस्करणों में 26 जून को 'माओवादियों का ख़ौफनाक मिशन' शीर्षक से संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ। लिंक है - http://epaper.naidunia.com/Details.aspx?id=69682&boxid=27670770 )

गुरुवार, 18 जून 2009

ऐ जाने वफ़ा ये जुल्म न कर...




तो भैया, अब ये भरम भी जाता रहा कि आदमी अपने काम से जाना जाता है। अब मिसल ये दी जाती है कि दुनिया में रहना है तो आराम करो प्यारे, हाथ जोड़ सबको सलाम करो प्यारे। और दिक्कत ये है ससुरी कि हमने अच्छी अच्छी चीज़ें लगता है कुछ ज्यादा ही पढ़ ली हैं। स्कूल में थे तो संस्कृत वाले पंडित जी ने पढ़ा दिया – अभिवादनशीलस्य नित्यम वृद्धोपिसेविन:, वर्ध्यन्ते तस्व चत्वारि आयुर्विद्या यशोबलम्। मतलब ये कि आयु, विद्या, यश और बल में जो तुमसे बड़ा हो, उसे सलाम करने में कभी ना हिचको। हमने बात गांठ बांध ली। और, ससुरी गड़बड़ हर बेर येईं होए जाय रही। मालिक होगा, तो कम से कम उम्र में तो बड़ा ही होगा। ठीक है उसको सलाम। बॉस होगा तो विद्या माने अक्ल में बड़ा हो ना हो, कम से कम दुनियादारी तो ज्यादा ही सीखी होगी, उसको भी सलाम। साथी भी कई बार ज्यादा मशहूर होगा, टीवी और फिल्म के धंधे में तो तमाम होते हैं, उनको भी सलाम। और, बल में तो भैया नुक्कड़ के नत्थू पहलवान बड़े हैं ही और गाड़ी के गेट से टर्न लेते ही उनको सलाम सुबह शाम हो ही जाता है।
अब इस पूरी पढ़ा लिखी में जे बात कतऊं ना आए रही कि भैया सलाम कुछ अउरो लोगन क करन पड़िहै। जिन लोगन के बाल बच्चा नौकरी चाकरी करै लायक होए गए होयं। वे बात ध्यान से सुनैं। नाव कागज की गहरा है पानी, दुनियादारी पड़ेगी निभानी। चाहे तो इस गाने से सीख ले लें, जो आसान भी है और चाहें तो तुलसीदास जी की जे चौपाई बाल गोपालन के कंप्यूटर पर चस्पा कर दें – प्रनवऊं प्रथम असज्जन चरना। ना जाने किस मुहूर्त में फिल्म बनाने निकल पड़े कि मुंबई पहुंचते ही रिसेसन आ गया। पहले हिमेश रेशमिया ने टी सीरीज़ का बंटाधार किया, फिर अपने खिलाड़ी कुमार ने लाइन से तीन तीन कंपनियों की लुटिया डुबो दी। पिरामिड सायमीरा का डिब्बा गोल हो गया, इरॉस ने भी फिल्म बनइबे से तौबा कर ली। आज फिल्म भोले शंकर होम वीडियो पर बाज़ार में पहुंची तो बेचारे अपने प्रोड्यूसर साहब फिर याद आ ही गए। लालच बुरी बला, लेकिन हमारे प्रोड्यूसर साहब फिल्म बनते ही ये भूल गए कि प्रोजेक्ट बनाते समय उनसे मुनाफे में तिहाई की भागेदारी तय हुई थी। आखिरी चेक पकड़ाने से पहले ही नया एग्रीमेंट बना लाए और लिखवा लिया कि बच्चे जैसे पाल पोसकर बनाई फिल्म के मुनाफे पर अब हमारा कोई हक़ नहीं। हम सोचे कि इंसान क्या इतना भी लालची होता है। तह तक गए तो पचा चला कि बेटा लाल की करतूत है। बेटा लाल के अलग शौक और अलग ढंग। साथी भी न्यारे न्यारे।
और, बेटा लाल चाहें मुंबई के हों या फिर रायपुर के, पैसा अगर मेहनत से कमाने की बजाय विरासत में मिल गया हो, तो शौक न्यारे न्यारे हो ही जाते हैं। खुदा ना खास्ता अगर हाथ में मीडिया की पगही आ जाए तो फिर बातै का। उनको बस यही लगता है कि जो भी उनकी बैलगाड़ी खींच रहा है वो बस बैल ही है। ना बेचारे का कोई धर्म होगा ना कर्म। बस वो पगही खींचे तो बाएं, वो पगही खींचे तो दाएं। अपने साथ दिक्कत ये कि ना तो कभी पीठ के बल गिरे कि टूटी रीढ़ के हो जाते और ना किसी ने सिखाया कि बेटा नौकरी के नौ काम, दसवां काम जी हुजूरी। तो सींग भी ना कटवाए। अब सेठ के जाते ही बेटा अगर उसकी कुर्सी पर बैठे और जानबूझकर नौ नौटंकियां बस इस बात की करे कि देखो चलती किसकी है. तो ऐसे सेठ की दुकान का तो बस भगवान ही भला करे। आठ महीने की दुकानदारी में अगर चार चार सेल्सेमैन बदल जाएं तो भैया खराबी सेल्समैनों में ना, कहीं ना कहीं दुकान में ही होगी। अब बताया जे जाय रहा कि सेठ भले कित्तउ खुस हो जाए, सेठ के लौंडे की ना सुनी तो खैर नाईं।
वैसे मीडिया की दुनिया के जे उसूल है कि किसी ना किसी मठ के आगे तो सिर झुकाना ही पड़ेगौ। जिनने ना झुकाए वो या तो खेत रहे या खेत जोत रहे। और हमने सुन लौ वो गानो – अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ भुला सकते नहीं, सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं। लेकिन, सेठ के लौंडन को यौ ठीक नाई लागत। उनसे ये बताओ कि दुकान में सेंधमारी हो रही है, तो वो बोले कि तुम्हूं थोड़ा सा हिस्सा लो, और चुप रहो। हमको मीडिया दुकान के मजे लूटने दो। अब या तो चोर बनो या फिर तमाशबीन। खतरा दोनों सूरत में है। और अगर दुकान कहीं किसी बड़े ब्रांड की फ्रैंचाइजी है तो खतरा और बड़ा है। कब किसके कंधे पर रखकर कौन गोली चला दे, पता नहीं और गोली मारने के बाद अपनी पीठ में मलहम भी लगाने को कहे तो बड़ी बात नहीं। सेठ कहेगा कि भैया हम तो एजेंसी की मार्फत लाए थे, अब एजेंसी तुम्हें दूसरी जगह भेजने को कह रही है जाओ। एजेंसी कहेगी कि हमारा तो बड़ी ब्रांड की कंपनी से नाता ही टूट गया, हमसे मत पूछो। कंपनी कहेगी कि हमारा और एजेंसी का कोई लेना देना ही नहीं, तो हमारी क्या जिम्मेदारी। फिर जब सबसे एक एक कर पूछने लगोगे तो वो बता देंगे नाम सबसे बड़े अफसर का कि भई वो नाराज़ हैं तो हम क्या करें। सब इसी गुंताड़े में कि गेंद दूसरे के पालते में डालते जाओ और अपनी नाक बचाते जाओ। सबको यही गुमान कि सबसे बड़ा अफसर तो किसी से बात ही नहीं करता तो इससे क्या करेगा। लेकिन, समय की बलिहारी है। इस खेल का खुलासा भी आज हो ही गया। बड़े अफसर को ये तक पता नहीं कि नीचे हो क्या रहा था और नीचे वालों ने उसी के नाम पर पूरा चक्रव्यूह बना डाला। ज़रा सोचिए, सवाल आपका है। लेकिन, नहीं, अगर आप जी हुजूरी सीख चुके हैं, तो आपका नहीं भी हो सकता है।


फोटो परिचय- इस मुहाने का सिरा किधर है? कांगेर वैली नेशनल पार्क में कोटमसर गुफा का प्रवेश द्वार। फोटो: पंकज शुक्ल

मंगलवार, 9 जून 2009

आदमी हो आदमी की शान रखना तुम


रायपुर से स्नेही स्वजन श्री गिरीश पंकज जी ने आज एक कविता मेल की, दिल के करीब लगी, इसलिए यहां आपके सबके लिए रख रहा हूं -


हो मुसीबत लाख पर ये ध्यान रखना तुम,

मन को भीतर से बहुत बलवान रखना तुम।

बहुत संभव है बना दे भीड़ तुमको देवता,

किंतु मन में एक अदद इंसान रखना तुम।

हर जगह झुकते रहो ये आचरण कैसा,

आदमी हो आदमी की शान रखना तुम।



-- गिरीश पंकज
(बस्तर के चित्रकोट झरने के विस्तार में पेट भरती बकरियां। फोटो: पंकज शुक्ल)

रविवार, 7 जून 2009

मिठलबरा: पार्ट टू


मिठलबरा - अब भी ज़िंदा है!

हिंदी फिल्मों में सीक्वेल की परंपरा पुरानी है। लेकिन, किसी कालजयी उपन्यास का सीक्वेल भी लिखा गया हो, ऐसा सुनने में नहीं आता। लेकिन, प्रिंट पत्रकारिता के चंद मठाधीशों के चेहरों से नक़ाब उतारने में सफल मशहूर व्यंग्य उपन्यास मिठलबरा को पढ़ने के बाद लगता है कि इसका सीक्वेल लिखा जाना चाहिए।
हिंदी के मशहूर व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने न जाने किस स्नेहवश अपने उपन्यास “मिठलबरा” की लेखकीय प्रति मेरे हवाले की। इस उपन्यास के हाथ में आने से पहले ही इसके प्रतिमानों मसलन सरायपुर, इससे निकलने वाले अख़बार सरायपुर टाइम्स, सेठ मोटूमल, उसके बेटे, मिस जूली, सुमन कुमार, मिठलबरा और मिठलबरा के जासूसों के ख़ाके मेरे दिमाग़ में खिंच चुके थे। उपन्यास मिला तो पढ़ने का समय नहीं था और पढ़ने का समय मिला तो रायपुर से मैं दूर आ चुका था। रायपुर में होता तो गिरीश पंकज जी के गले ज़रूर लगता और कहता, “भाई! मिठलबरा अब अख़बारों से निकलकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में घुस चुका है।” वैसे ब्रेकिंग न्यूज़ गिरीश पंकज जी और उन जैसे पत्रकारिता के अलमबरदारों के लिए ये भी है कि मिठलबरा का सारा काम अब सेठ मोटूमल के वारिसों या फिर उनके चमचों ने संभाल लिया है।
मिठलबरा जिस दिन हाथ में आया, उस दिन गिरीश पंकज जी से देर तक सरायपुर टाइम्स और उसके प्रतिमानों पर चर्चा होती रही। किसी भी कहानी या उपन्यास का कोई भी किरदार किसी एक चरित्र से रेखांकित नहीं होता। लेखक अपने आसपास के चरित्रों को पढ़ता है और फिर उनसे एक नया किरदार गढ़ता है। गिरीश पंकज जी ने अपना ये उपन्यास मुझे उस चर्चा के बाद दिया, जिसमें मैं उनसे अपनी एक प्रस्तावित हिंदी फिल्म की कहानी का ज़िक्र छेड़ बैठा था। कहानी का सार सुनने के बाद गिरीश पंकज जी ने अगली मुलाकात में मुझे मिठलबरा की लेखकीय प्रति दी, उस शाम देर तक हिंदी पत्रकारिता के गिरते स्तर और उसके एक धंधे में बदलते स्वरूप पर बातें होती रहीं। गिरीश पंकज जी को बार बार स्टूडियो में बुलाना रायपुर के उन स्थापित मानदंडों को चुनौती देना भी था, जिनमें कुछ खास स्वनामधन्य पत्रकारों को ही स्टूडियो में बुलाने की परंपरा रही है। इनमें से एक अमूमन भोपाल से आयातित होते थे, और किसी भी विषय पर चर्चा के लिए तत्पर रहते थे, ये और बात है कि विषय के विवाद में जाते ही वो हाथ खड़े कर देते और आंकड़े (या कहें कि जानकारी) ना होने की दुहाई देने लगते। दूसरे पत्रकार रोचक किस्म के रहे, उनसे कभी बौद्धिक वार्तालाप का संयोग तो नहीं बना। लेकिन, उनकी जादूगरी यही है कि उनके बारे में पत्रकारिता को छोड़कर बाकी सारे किस्से रायपुर के पत्रकारों से सुनने को मिले।
सरायपुर को जितना गिरीश पंकज जी ने अपनी नज़रों से जाना, वो उन्होंने मिठलबरा में लिख दिया है। मैं दुनिया में उनसे कोई एक दशक बाद आया तो ज़ाहिर है कि उनकी और उनकी बाद की पीढ़ी के मिठलबरों को भी जान चुका हूं। गिरीश पंकज जी ने प्रिंट को करीब से देखा और समझा और शायद इसीलिए वो पत्रकारिता के गिरते स्तर को देख तड़प जाते हैं। मैंने प्रिंट में पत्रकारिता की घुट्टी पाई और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लोगों को सच से कतरा कर निकलते देखा है। ये सुलभ पत्रकारिता का ज़माना है, माने जो सुलभ हो जाए वही ख़बर है। कुछ कुछ सुलभ शौचालयों की तरह, जिसे जहां सुलभ हो जाए, वहीं पेट खाली कर लेता है।

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

बॉलीवुड का मर्सिया ?

साउथ अफ्रीका में चल रहे आईपीएल के जश्न के बीच देसी मनोरंजन उद्योग का मर्सिया भी पढ़ा जा रहा है। जी हां, भले क्रिकेट मैच के शोर में हिंदी सिनेमा का ये शोक गीत किसी को सुनाई ना दे रहा हो, लेकिन जिन्हें इस उद्योग की चिंता है, वो नब्ज़ पर लगातार हाथ रखे हैं। नब्ज डूब रही है और इसकी चिंता ना तो सरकार को है, और उन ना कॉरपोरेट घरानों को जिन्होंने पिछले दो तीन साल में हिंदी सिनेमा को रसातल में पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। और, अब इन्हीं कॉरपोरेट घरानों को आम आदमी की गाढ़ी कमाई से खरीदी जाने वाली टिकट में बराबर का हिस्सा चाहिए। ब्रेकिंग न्यूज़ ये है कि हिंदी सिनेमा का कारोबार इस महीने पिछले तीन साल के न्यूनतम पर पहुंच गया है, और इसके लिए ज़िम्मेदार है फिल्म निर्माताओं, वितरकों और मल्टीप्लेक्सेस के बीच चल रहा विवाद।

अंदरखाने की मानें तो मंदी के मार से परेशान हिंदी सिनेमा के कॉरपोरेट घरानों ने अपनी नाकामी का ठीकरा अब मल्टीप्लेक्सेस पर फोड़ने की तैयारी कर ली है। पहले तो इन प्रोडक्शन हाउसेस ने सितारों को उनकी हैसियत से दस गुने तक कीमतें अदा कीं और जब चार-पांच करोड़ में बनने वाली फिल्मों का बजट तीस-चालीस करोड़ तक जा पहुंचा तो इसकी वसूली की चिंता उन्हें सताने लगी। शुरू शुरू में इन फिल्मों की कमाई हुई भी, लेकिन पहले यशराज फिल्म्स का सिक्का खोटा निकलने और बाद में टी सीरीज़ को अपनी फिल्म में भारी घाटा होते ही इन्हें दिन में तारे नज़र आने लगे। अब हालात ये हैं कि फिल्म निर्माता मल्टीप्लेक्सेस की कमाई में आधा हिस्सा मांग रहे हैं और बड़ी बात नहीं कि कल को कोल्ड ड्रिंक और पार्किंग से होने वाली कमाई में भी हिस्सेदारी मांगने लगें। ये कुछ कुछ वैसी ही हालत है कि कोई अपना घर खुद लुटा दे और फिर पड़ोसी की रोटी पर नज़र गड़ा दे।

पिछले दो तीन सालों से हिंदी सिनेमा के पाताल में जाने की पटकथा लिखी जा रही थी। हिंदी सिनेमा में ऐसे लोगों की एक पूरी जमात जुट गई, जिन्हें फिल्म मेंकिंग का ‘क’ भी नहीं मालूम। मशहूर फिल्म कंपनी टीवी 18 के दफ्तर में एक कहानी के नरेशन के दौरान अपने एक मित्र निर्देशक की मनोस्थिति मुझे आज तक याद है। वहां कहानी पर कोई बात ही नहीं कर रहा था, सब बस ये पूछ रहे थे कि फलां रोल के लिए किस हीरो को ला सकते हैं, या फिर फलां रोल के लिए किस हीरोइन को ला सकते हैं। और, हीरो हीरोइन्स को भी कहानी से कहां मतलब रह गया था, वो पहला फोन जाते ही सबसे पहले बैनर का नाम पूछते रहे हैं। भूल गए ये लोग वो दिन सब अपना पहला ब्रेक पाने के लिए वो चप्पलें घिसते थे। हिंदी सिनेमा किस संकट से गुजर रहा है, इसका अंदाजा लगाने के लिए बस ये ही जानना काफी है कि देश के करीब ढाई सौ मल्टीप्लेक्स अपना शटर गिराने की तैयारी में हैं और ये बयान मल्टीप्लेक्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया की तरफ से आया है।

जिन्हें हिंदी सिनेमा की परवाह है, वो सब परेशान हैं। मल्टीप्लेक्सेस में 15 से लेकर 20 फीसदी सीटें ही भर पा रही हैं। अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि नई फिल्मों की रिलीज़ पर लगी एक तरफा रोक से कोई 200 करोड़ का घाटा मल्टीप्लेक्सेस को हो सकता है। लेकिन, निर्माता मस्त हैं। वो तो सोच रहे हैं कि इसी बहाने आईपीएल का तूफान गुज़र जाए और थोड़ी गर्मी भी कम हो जाए। चौंकाने वाली बात ये भी है कि पिछले छह महीने से हिंदी सिनेमा का कोई कायदे का नया प्रोजेक्ट शुरू ही नहीं हो पाया है और जो बड़े बड़े प्रोजेक्ट सितारों को मुंहमांगी कीमतें देकर शुरू किए गए थे, उनमें से तमाम बीच में ही रुक गए हैं। कश्ती मझधार में है, और माझी ने नाव से किनारा कर लिया है।