शनिवार, 27 दिसंबर 2008

सफलता के सौ दिन !


भोले शंकर (23)। गतांक से आगे...


फिल्म भोले शंकर ने बिहार में शानदार सौ दिन पूरे कर लिए हैं। फिल्म की नेट कमाई केवल बिहार से पौन करोड़ के करीब पहुंच चुकी है। फिल्म इस हफ्ते भी कोई पांच सिनेमाघरों में अब भी चल रही है। समझ में ना आने वाली बात ये है कि भोजपुरी फिल्मों की बिहार में जो कमाई होती है कि वो प्रोड्यूसर तक क्यों नहीं पहुंचती। क्या भोजपुरी फिल्मों की रीढ़ तोड़ने के लिए वो वितरक ज़िम्मेदार नहीं हैं, जिन्होंने फिल्म निर्माताओं का वाजिब हक़ मारने की कसम सी खा रखी है। किसी भी फिल्म का प्रोड्यूसर अपने खून पसीने की कमाई जोड़कर एक फिल्म बनाने की हिम्मत जुटाता है तो क्या वो कोई गुनाह करता है। ऐसे तमाम फिल्म निर्माता हैं जिन्होंने भोजपुरी सिनेमा को अपनाया है और दूसरे भी अपनाना चाहते हैं। लेकिन सबके मन में शंका एक ही है कि बिहार के वितरक उनके फिल्म से होने वाली कमाई उन तक पहुंचने देंगे या नहीं। और, भोजपुरी सिनेमा में मंदी की दौर की यही सबसे बड़ी वजह है। क्या भोजपुरी फिल्मों की रीढ़ तोड़ने के लिए वो वितरक ज़िम्मेदार नहीं हैं, जिन्होंने फिल्म निर्माताओं का वाजिब हक़ मारने की कसम सी खा रखी है।


अपने वाजिब हक़ के लिए भोजपुरी फिल्म निर्माताओं को एक मंच पर आना बहुत ज़रूरी है। यहां अक्सर निर्माता वितरक के आगे घुटनों पर नज़र आते हैं। भोजपुरी सिनेमा को अपना गौरव पाना है तो इसमें से बिचौलियों की भूमिका खत्म करनी होगी और फिल्म को दर्शकों तक पहुंचाने के लिए कोई ऐसा सिस्टम तैयार करना होगा, जिसमें पाई पाई का हिसाब निर्माता और वितरक के बीच पानी की तरह साफ हो। आम लोगों की तो खैर बात ही क्या करें, फिल्म निर्माण से जुड़े लोगों को ही ये नहीं पता है कि बिहार में किसी बाहरी व्यक्ति को फिल्म वितरण में घुसने की अघोषित पाबंदी है। और जब तक वहां की सरकार ये पाबंदी दूर नहीं करती, बिहार को हमेशा फिल्म नगरी में शंका से देखा जाता रहेगा। अपना हक़ पाने की पहल निर्माता भी करें और बिहार की सरकार भी बस भोजपुरी सिनेमा के लिए ज़मीन देकर किनारे ना हो जाए, वो पहल करे भोजपुरी सिनेमा के कारोबार में पारदर्शिता लाने की। तभी सबको अपना अपना वाजिब हक़ मिल पाएगा।


मिथुन चक्रवर्ती ने फिल्म भोले शंकर के पहले सीन में भी यही किया। मिथुन ने इस फिल्म के लिए पहले दिन वो शॉट दिया जिसमें भोले का दोस्त संतराम उनके पास गौरी का अपहरण हो जाने की खबर लेकर आता है। कमालिस्तान के क्रिस्टल हाउस में इस सीन की शूटिंग होनी थी, और हम लोग तय समय पर सारा माल असबाब लेकर वहां पहुंच गए। मिथुन के लिए मैंने फिल्म गुलामी में उनकी कॉस्ट्यूम से मिलती जुलती ड्रेस तैयार करवाई और जब वो पीच कलर की ये ड्रेस पहनकर कैमरे के सामने आए तो पूरी यूनिट ने दिल खोलकर तालियां बजाईं। इसे कहते हैं असली सितारे की चमक। मिथुन को बतौर कलाकार भी और बतौर एक इंसान भी बॉलीवुड का बच्चा बच्चा पसंद करता है। वो भोजपुरी फिल्म में काम करने को राज़ी हुए, ये उनका बड़प्पन है।


लोग अक्सर मुझसे ये पूछते हैं कि आखिर दादा (मिथुन चक्रवर्ती) फिल्म भोले शंकर में काम करने को राज़ी कैसे हुए? फिल्म भोले शंकर के लिए हां करने से पहले मिथुन ने कम से कम दस भोजपुरी फिल्मों के ऑफर्स ठुकराए थे। यहां तक कि बिहार के बड़े ड्रिस्टीब्यूटर और प्रोड्यूसर डॉक्टर सुनील के साथ हुए झगड़े की जड़ में भी एक भोजपुरी फिल्म ही है। लेकिन, ना तो हम लोगों को इस झगड़े के बारे में पहले से पता था और ना ही मुझे इस बात में ज़रा भी ईमानदारी नज़र आती है कि एक कलाकार की फिल्म भारत के किसी राज्य में इसलिए ना प्रदर्शित होने दी जाए क्योंकि ये कलाकार सूबे के एक नेता की फिल्म में काम नहीं करना चाहता। मिथुन चक्रवर्ती की हिंदी फिल्मों की बिहार में रिलीज़ पर एक लाख रुपये का फाइन लगाने वाले फिल्म भोले शंकर को बिहार में रिलीज़ होने देने के लिए दस लाख रुपये मांग रहे थे। ये है मिथुन की पहली भोजपुरी फिल्म का बिहार में क्रेज। (जारी)

रविवार, 14 दिसंबर 2008

कहानी की कीमत तीन लाख रुपये!

-पंकज शुक्ल
हिंदुस्तान में किसी फिल्म की कहानी लिखने के लिए लेखक को कितना पैसा मिल सकता है? नामी लेखकों की बात छोड़ दें तो शायद ही कोई लेखक इसके लिए लाखों मिलने की बात सपने में भी सोच सकता होगा। लेकिन फिल्म राइटर्स एसोसिएशन, मुंबई की चली तो आने वाले दिनों में किसी भी लेखक को फिल्म की कहानी लिखने के लिए कम से कम तीन लाख रुपये मिलेंगे और अगर वही लेखक फिल्म की पटकथा और संवाद भी लिखना चाहे तो उसे छह लाख रुपये और मिलेंगे।
जी हां, मुंबई में दो दिन तक चली दूसरी इंडियन स्क्रीनराइटर्स कांफ्रेंस में सर्वसम्मति से इस बारे में प्रस्ताव पारित किया गया। यही नहीं मुंबई के नामी वकीलों की सहायता से फिल्म राइटर्स एसोसिएशन ने लेखकों का शोषण रोकने के लिए एक मॉडल कॉन्ट्रैक्ट भी तैयार किया है, जिसे फिल्म उद्योग की सबसे बड़ी संस्था वेस्टर्न इंडिया फेडरेशन ऑफ फिल्म एम्पलॉयीज़ की मंजूरी मिलने के बाद लेखकों को तमाम और फायदे भी मिलने वाले हैं। मसलन अगर किसी लेखक की लिखी फिल्म को दोबारा किसी अन्य भाषा में बनाया जाता है, तो लेखक को फिर पैसे मिलेंगे। यही नहीं अगर कोई निर्माता किसी फिल्म के किरदारों को लेकर कोई दूसरे प्रोडक्ट मसलन खिलौने वगैरह बनाना चाहता है तो उसके लिए भी लेखक को रॉयल्टी मिलेगी। युवा और प्रगतिशील फिल्म लेखकों की पहल पर पुणे में हुई पहली कांन्फ्रेंस की कामयाबी के बाद मुंबई में हुई इस कान्फ्रेंस में दो दिन तक फिल्म निर्माण में लेखक की भूमिका के अलग अलग पहलुओं पर जमकर बहस हुई।
कान्फ्रेंस मशहूर नाटक और पटकथा लेखक विजय तेंदुलकर को समर्पित की गई लिहाजा इसका पहला सेशन तेंदुलकर पर ही केंद्रित रखा गया। इस सेशन में कुछ ऐसी जानकारियां सामने आईं जो इंडस्ट्री के लोगों के लिए भी चौंकाने वाली हो सकती हैं। जैसे गोविंद निहलानी की मशहूर फिल्म अर्द्ध सत्य का जो क्लाइमेक्स हमने आपने देखा है वो दरअसल विजय तेंदुलकर ने लिखा ही नहीं था। ये क्लाइमेक्स गोविंद निहलानी को फिल्म बनाते वक्त सूझा और उन्होंने शूटिंग के वक्त अपनी पसंद का और लेखक की पसंद का दोनों क्लाइमेक्स शूट कर लिए। बाद में निहलानी और तेंदुलकर दोनों ने फिल्म दोनों क्लाइमेक्स के साथ देखी और तेंदुलकर मान गए कि निहलानी का सोचा क्लाइमेक्स फिल्म को ज़्यादा शूट करता है। ऐसा ही कुछ वाक्या मशहूर अभिनेता और निर्देशक अमोल पालेकर ने भी साझा किया। पालेकर ने बताया कि उनकी बतौर निर्देशक पहली फिल्म आक्रीत के लिए जो पटकथा विजय तेंदुलकर ने उनकी बताई कहानी पर काफी दिनों की मेहनत के बाद लिखी थी, वो उन्होंने रिजेक्ट कर दी थी। और, आक्रीत एक ऐसी पटकथा पर बनी जो विजय तेंदुलकर ने बाद में उन्होंने दी। यही नहीं, निहलानी की तरह ही पालेकर को भी शूटिंग के दौरान एक नया क्लाइमेक्स सूझा और उन्होंने तेंदुलकर का लिखा क्लाइमेक्स बदल दिया।
चेन्नई से खास तौर पर इस कार्यक्रम में शरीक होने आए अभिनेता और निर्देशक कमल हासन और लंदन से आईं नसरीन मुन्नी कबीर ने भारतीय फिल्मों की पटकथा की खासियत पर बहस में हिस्सा लिया। नसरीन ने जहां भारतीय फिल्मों को लेकर पश्चिम की सोच के बारे में विस्तार से चर्चा की, वहीं कमलहासन ने फिल्म राइटर्स कान्फ्रेंस से खास तौर से अनुरोध किया कि ऐसे आयोजन चेन्नई में भी होने चाहिए। मुन्नाभाई सीरीज़ में निर्देशक राजकुमार हीरानी को लेखन में सहायता करने वाले ओहियो से आए आभिजात जोशी ने गांधीगीरी को कागज़ पर उतारने के किस्से सुनाए। तो, जाने तू या जाने ना के निर्देशक अब्बास टायरवाला ने इस बात की ओर इशारा किया कि हिंदी सिनेमा को खलनायक अब नायक के भीतर ही तलाशने होंगे। पचास-साठ के दशक के ज़मींदार, सत्तर के दशक के स्मगलर्स, अस्सी के दशक के बदनाम नेता और नब्बे के दशक के आतंकवादियों से दर्शकों की बढ़ती ऊब की तरफ इशारा करते हुए टायरवाला ने भारतीय परंपरा और अतीत में फिर से झांकने की ज़रूरत समझाई और रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों के दुविधा में पड़े चरित्रों से कहानियों के नए सिरे तलाशने का गुरुमंत्र समझाया।
कान्फ्रेंस में रविवार के पहले सत्र में उस समय अजीब स्थिति पैदा हो गई, जब अपना भाषण लंबा खींचने पर मशहूर लेखक कमलेश पांडे की हूटिंग शुरू हो गई। कमलेश अपनी हिट और सुपरहिट फिल्मों के बारे में लगातार बताते जा रहे थे, जबकि चर्चा इस सत्र में फिल्मों के सियासी जामे पर होनी थी। इस सेशन में सबसे ज़्यादा तालियां असमिया फिल्मों के मशहूर निर्देशक जानू बरुआ ने बटोरीं, जिनकी पहली हिंदी फिल्म मैंने गांधी को नहीं मारा को देश विदेश में खूब शोहरत मिली। उन्होंने कहा कि पश्चिम का ये कहना कि भारतीय फिल्मकार गरीबी बेचते हैं, गलत है। उन्होंने कहा कि गरीबी तुलनात्मक नजरिया है। और भारत का मज़दूर या किसान अगर अपनी सीमित कमाई में अपने परिवार के साथ खुश है तो किसी दूसरे को उसे गरीब कहने का कोई हक़ नहीं है। अपनी सियासी फिल्मों से देश विदेश में मशहूर हो चुके लेखक निर्देशक प्रकाश झा ने सामयिक विषयों पर फिल्म बनाने के लिए ज़रूरी बातों की तरफ लेखकों का ध्यान खींचा और विकास की सबसे तेज़ सदी में धर्म के बढ़ते दबदबे की तरफ भी ध्यान दिलाया।
कान्फ्रेंस में सबसे लंबी चर्चा लेखकों खासकर फिल्म लेखकों के अधिकारों पर हुई। मुंबई के नामी वकीलों अश्नी पारेख और रोहिणी वकील के सहयोग से छह महीनों की मेहनत और इंडस्ट्री के तमाम लेखकों, निर्देशकों और निर्माताओं से परामर्श के बाद फिल्म राइटर्स एसोसिएशन ने एक मॉडल कॉन्ट्रैक्ट तैयार किया है। इसे मंजूरी मिलने के बाद फिल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले हर लेखक को कम से कम मेहनताना मिलने की गारंटी हो जाएगी। इसमें कहानी, पटकथा और संवाद तीनों के लिए तीन-तीन लाख रुपये की न्यूनतम रकम तय की गई है। एसोसिएशन का कोई भी सदस्य इससे कम पर किसी भी निर्माता के लिए काम नहीं करेगा। और जो निर्माता ये रकम देने से इंकार करेगा, उसके खिलाफ फेडरेशन बॉयकॉट का नोटिस भी जारी कर सकेगा। इस मॉडल कॉन्ट्रैक्ट में बदलते दौर में ज़रूरी हो चले तमाम पहलुओं को शामिल किया गया है। कान्फ्रेंस में लेखकों-निर्देशकों और लेखकों-निर्माताओं के दो समूहों ने फिल्म निर्माण में लेखक की भूमिका के क्रिएटिव और फाइनेंशियल पहलुओं पर अलग से भी चर्चा की। धूम सीरीज़ के निर्देशक संजय गडवी ने जहां खुद को पूरी तरह से लेखक पर निर्भर निर्देशक बताया और विदेशी फिल्मों से प्रेरित होने को निर्देशक की निजी राय बताया, वहीं माई ब्रदर निखिल और सॉरी भाई बनाने वाले ओनीर ने कहा कि फिल्म के पहले प्रिंट तक फिल्म निर्माण में लेखक की बराबर की भागीदारी ज़रूरी है।
मशहूर लेखक अंजुम राजाबली के संचालन में हुई कान्फ्रेंस के कुल सात सेशन्स के दौरान एक बात जो सामान्य रूप से हर लेखक या लेखक-निर्देशक ने मानी वो ये कि किसी भी कहानी को लिखने से पहले लेखक का उस पर यकीन होना ज़रूरी है। और, अगर किसी लेखक ने किसी किरदार को करीब से देखा, परखा, समझा या जिया नहीं है तो किसी कहानी को परदे के लिए लिख पाना नामुमकिन सा होता है। कान्फ्रेंस में नए लेखकों को एक बार फिर ये जानकारी दी गई कि इंडस्ट्री के कायदों के मुताबिक कोई भी निर्माता किसी भी ऐसे शख्स को काम पर नहीं रख सकता है जो अपनी कला से संबंधित यूनियन का सदस्य नहीं है।
फिल्म राइटर्स एसोसिएशन का सदस्य भारत में कहीं भी रहते हुए बना जा सकता है। इसके लिए लेखक tfwa@rediffmail.com या एसोसिशन के दफ्तर में फोन (022-26733027 या 022-26733108) कर सकते हैं।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

दादा की दरियादिली


भोले शंकर (22) । गतांक से आगे...

लखनऊ में फिल्म भोले शंकर का पहला शेड्यूल खत्म होने के बाद पूरी यूनिट ने मुंबई लौटने की तैयारी शुरू कर दी। फिल्म उद्योग को सरकारी लापरवाही का शिकार किस तरह होना पड़ता है, इसकी एक मिसाल भी इसी दौरान हमें देखने को मिली। रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव की नज़रें इन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश पर टिकी हैं। अपनी पार्टी का अधिवेशन भी वो हाल ही में यहां कर चुके हैं। मंशा ये बताई जा रही है कि पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से मिलकर बन सकने वाले भोजपुरी बहुल इलाके को एक नए राज्य की शक्ल दी जाए, और कम से कम ऐसा एक तो प्रदेश हो, जहां आरजेडी की सत्ता फिर से कायम की जा सके। कभी ज़ी टीवी तो कभी स्टार प्लस की टीआरपी बढ़ाने के लिए इनके शोज़ में पहुंचने वाले लालू प्रसाद यादव को भोजपुरी फिल्म जगत से इसका दस फीसदी भी लगाव हो जाए तो इस सिनेमा का बेड़ा पार हो सकता है। भोजपुरी सिनेमा का कोई माई बाप नहीं है। मुट्ठी भर लोग आकर मुंबई में सिनेमाघरों से भोजपुरी फिल्में उतरवा जाते हैं, और मुंबई से लेकर दिल्ली तक सब कुछ बयानबाजी के बाद शांत हो जाता है।
जहां की भाषा भोजपुरी है, वहां के लोगों को इस सिनेमा की परवाह नहीं और जहां इस सिनेमा की परवरिश हो रही है, वहां इसे घुसपैठिया करार दिया जा चुका है। खैर, मैं बात कर रहा था फिल्म भोले शंकर की यूनिट के मुंबई लौटने की। कोई सत्तर लोगों की क्रू को एक साथ किसी ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिल सकता था, लिहाजा रेल मंत्री के कार्यालय से संपर्क किया गया। भरोसा मिला कि काम हो जाएगा। अब एक साथ कोई शख्स सत्तर टिकटें लखनऊ से मुंबई की खरीदे तो रेल मंत्रालय चाहे तो ट्रेन में नई बोगी भी लगवा सकता है। और बात जब भोजपुरी सिनेमा की हो तो लालू के मंत्रालय को तो इसकी तरफ खास तवज्जो देनी चाहिए। लेकिन, रेल मंत्री के कार्यालय से ऐन मौके पर जवाब आया कि काम नहीं हो पाया। अब इसमें किसकी कितनी गलती है, इस पर बहस का वक्त नहीं था। वक्त था अब ज़मीनी धरातल की असलियत को समझने का। जिन रेल मंत्री के कार्यालय ने एक भोजपुरी फिल्म के तकनीशियनों को अपनी रेल में जगह देने से हाथ खड़े कर दिए। उसी रेल विभाग के कर्मचारियों ने हमारी मज़बूरी का फायदा उठाते हुए हमसे लखनऊ स्टेशन पर मोटी रिश्वत ली और उसी ट्रेन में जगह दिला दी, जिस ट्रेन में जगह ना होने का रोना थोड़ी ही देर पहले रेल मंत्री कार्यालय के अफसर हमसे रो चुके थे।
खैर, किसी तरह सब लोग मुंबई पहुंचे। सारा माल असबाब करीने से लगा दिया गया। अब तक की शूटिंग का रिजल्ट भी हमने लैब में जाकर देख लिया। हम चुनौती थी, मुंबई शेड्यूल शुरू करने की, जिसके लिए हर दिन ज़रूरत थी हिंदी सिनेमा के कल्ट स्टार मिथुन चक्रवर्ती की। लेकिन उनके और बिहार के वितरक डॉक्टर सुनील के बीच चल रहा विवाद अब तक काफी तूल पकड़ चुका था। यहां तक कि भोजपुरी सिनेमा के दो खेमों में बंटने तक की नौबत आ गई, मुंबई से लेकर पटना तक बयानबाज़ी के दौर शुरू हो चुके थे और ऐसे में मिथुन ने फैसला लिया, सब कुछ फेडरेशन पर छोड़ देने का। उनका कहना था कि अब जो भी फैसला होगा वो फेडरेशन ही करेगी और फिल्म भोले शंकर की शूटिंग भी उसके बाद ही होगी। इस बीच मिथुन की समर्थन लॉबी ने अपने हीरो की नज़रों में चढ़ने के लिए कुछ अजीब हरकतें शुरू कर दीं। इन लोगों ने कमालिस्तान और दूसरे स्टूडियोज़ में जाकर भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग बंद करा दीं। ये बात मुझे पता चली तो मैंने दादा को बताया, वो उस दिन पुणे में किसी फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। दादा की दरियादिली देखिए, उन्होंने वहीं से फोन करके इन फिल्मों के निर्माताओं से बात की और कहा कि उनके विवाद के चलते वो भोजपुरी सिनेमा का नुकसान कतई नहीं चाहते। अगले दिन निजी दिलचस्पी लेकर मिथुन चक्रवर्ती ने किसी भी यूनियन को किसी भी भोजपुरी फिल्म की शूटिंग से दूर रहने को कहा। लेकिन फिल्म भोले शंकर में उनकी ऐक्टिंग को लेकर असमंजस अब भी कायम था।
दो तीन दिन बाद मिथुन वापस मुंबई लौटे, पता चला कि वो फिल्म सिटी में फिल्म सी कंपनी की शूटिंग कर रहे हैं। मैं वहां जाकर उनसे मिला तो महसूस हुआ कि बिना बात के बतंगड़ ने इस भले कलाकार को कितना दुखी कर दिया है। मिथुन हमेशा से दूसरों की मदद करने के लिए आगे आते रहे हैं। लेकिन, फिल्म भोले शंकर की शूटिंग में वो चाहकर भी शरीक नहीं हो पा रहे थे। उन्होंने उस दिन यहां तक कह दिया कि आपका प्रोड्यूसर परेशान हो तो वो साइनिंग अमाउंट वापस करने को तैयार हैं, लेकिन मैंने भी दादा से कह दिया कि फिल्म भोले शंकर में अगर कोई शंकर बनेगा तो वो मिथुन ही होंगे और इसके लिए मुझे उनका झगड़ा खत्म होने का इंतज़ार करने में कोई गुरेज नहीं। कहकर मैं वहां से वापस लौट आया। और उसके कोई हफ्ते दस दिन बाद ही दादा का मेरे पास फोन आया, बोले, “शुक्लाजी, जो भी परेशानी हुई उसके लिए माफी चाहता हूं। भोले शंकर की शूटिंग कब शुरू करनी है?” भोले शंकर की शूटिंग करने पहुंचे मिथुन चक्रवर्ती का कैसा रहा पहला दिन? और कैसे पूरी यूनिट को बना लिया दादा ने पहले ही दिन अपना मुरीद? जानने के लिए पढ़ते रहिए- कैसे बनी भोले शंकर?