गुरुवार, 20 नवंबर 2008

बेरोज़गारी से दो दो हाथ...


भोले शंकर (21)॥गतांक से आगे...

फिल्म भोले शंकर की कहानी अब तक आप लोगों को काफी कुछ साफ हो चुकी होगी। ये कहानी एक विधवा मां और उसके दो बेटों की है। ये कहानी बताती है कि कैसे एक बेसहारा मां अपने बच्चों को अपने बल बूते पाल पोस कर बड़ा करती है। ये कहानी बताती है कि कैसे समाज के उसूल एक औरत से उसकी शादीशुदा ज़िंदगी का सुख छीन लेते हैं। और, ये कहानी ये भी बताती है कि अगर इंसान चाहे और परिवार का साथ मिले तो गांव का भी एक बच्चा पढ़ लिखकर अपने बूते कुछ बन सकता है। इसके लिए ज़रूरी नहीं कि वो सरकारी नौकरी ही करे, बेरोजगारी अपने देश की बड़ी समस्या है और इससे देश के किसी भी कोने का युवा वर्ग अछूता नहीं है। लेकिन अगर आज के युवा बजाय सीधी सादी सरकारी नौकरी के, किसी हुनर में अपना हाथ साफ करें, तो रोज़गार के अवसर आज भी कम नहीं हैं। चूंकि मेहनत का रास्ता कठिन और परेशान कर देने वाला होता है, लिहाजा कई बार बुरी संगत में पड़कर शंकर जैसे लोग गलत रास्तों पर भी निकल जाते हैं, लेकिन भोले जैसे लोग चाहें तो राह भटके लोगों को भी फिर से विकास की मुख्यधारा में जोड़ सकते हैं।

इधर भोले शंकर की मेकिंग हर दिन आप तक नहीं पहुंच पा रही है। इसके लिए मैं आप लोगों से माफी चाहता हूं। कुछ नित्य जीवन की उठा पटक और कुछ दूसरे प्रोजेक्ट्स के लिए भागदौड़ के चक्कर में इस बार अंतराल कुछ लंबा ही हो गया। चुनाव आते हैं, वादे होते हैं, लेकिन नेताओं की गाड़ियों के गुबार की तरह हर बार पीछे रह जाते हैं आम लोगों के सपने। ऐसा ही एक सपना फिल्म भोले शंकर के भोले ने देखा है। लेकिन मां की संगीत से दूर रहने की ज़िद के आगे उसने अपना सपना कुर्बान कर दिया। दोस्त यार सब जानते हैं कि भोले बढ़िया गाता है। भोले के गुरुजी भी चाहते हैं कि किसी दफ्तर में क्लर्की या खेत में किसानी करने की बजाय भोले अपने इस हुनर को रियाज़ से मांजे और गांव का नाम पूरी दुनिया में रौशन करे। लेकिन, मां की मर्जी जब तक नहीं होती, वो भला कैसे मीलों दूर मुंबई जा सकता है।

तमाम असमंजस के बाद मां भोले को मुंबई जाने की इजाज़त दे भी देती है, लेकिन शोहरत के शिखर पर पहुंचना आसान नहीं होता। जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूं कि भगवान कोई बड़ा ईनाम देने से पहले हमारी काबिलियत का इम्तिहान ज़रूर लेता है, भोले की भी ऐसी ही परीक्षा होती है। और, लखनऊ में गानों की शूटिंग के बाद हमें करनी थी उस सीन की शूटिंग जिसमें भोले के सब्र का ये इम्तिहान होना है। भोले ने अपनी गायिकी के गुण दिखाकर म्यूज़िक कंपनी के अफसरों का दिल तो जीत लिया है, लेकिन म्यूज़िक कंपनी चाहती है कि भोले भोजपुरी रैप तैयार करे। रैप का वैसे तो दूसरी लोक भाषाओं से संगम हो चुका है, ये वो विधा है जिसके ज़रिए आज की पीढ़ी अपनी जड़ों से जुड़ने की कोशिश करती है। पंजाबी की पश्चिमी देशों में लोकप्रियता की एक बड़ी वजह ये भी है, वहां की पुरानी पीढ़ी ने आज के नौजवानों को अपने लोकगीतों को उनके हिसाब से ढालने की मोहलत दे दी है। पंजाबी पॉप और रैप का कनाडा और ब्रिटेन जैसे देशों में इस तरह के संगीत का भरा पूरा बाज़ार है। और, अब वक्त आ गया है जब भोजपुरी को भी विदेशों में पली बसी नई पीढ़ी से जोड़ा जाए। इसी सोच के मद्देनज़र हमने फिल्म भोले शंकर में एक भोजपुरी रैप सॉन्ग भी रखा।

और, आज जिस दृश्य की मैं बात करने जा रहा हूं वो फिल्म में ठीक इस भोजपुरी रैप के पहले आता है। ये वो सीन है जब भोले मुंबई में शंकर के घर से तैयार होकर निकलता है और उसे शो से पहले रिहर्सल करना है। रिहर्सल से ठीक पहले कैसे शंकर की असलियत भोले के सामने खुलती है, इसकी चर्चा बाद में कभी होगी। आज इस सीन की बात। तो भोले घर से निकलकर हॉल में पहुंच चुका है। ना मां को पता है कि भाइयों के बीच क्या हुआ और ना ही गुरुजी जानते हैं कि भोले परेशान क्यों है? ये पूरा सीन करीब 18 शॉट्स में पूरा हुआ, जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूं कि भोजपुरी सिनेमा में किसी सीन को कम से कम शॉट्स में पूरा करने की परंपरा चली आ रही है और शायद इसीलिए भोजपुरी सिनेमा को वो दर्जा अब तक हासिन नहीं हुआ जो बस एक एक प्रदेश की भाशा होने के बावजूद तमिल, तेलुगू और मलयालम सिनेमा को हासिल हो चुका है। भोजपुरी सिनेमा के ज़्यादातर कलाकार से लेकर तकनीशियन तक काम को किसी तरह निपटाने में लगे रहते हैं, मेरी और मनोज तिवारी की तक़रार की वजह यही रही।

इस पूरे सीन में गौरी के आने से पहले तक मनोज तिवारी को बस एकाध लाइन के ही संवाद बोलने थे, बाकी पूरा उनका अभिनय बस चेहरे पर भावों का प्रकटीकरण ही था। सीन शुरू होता और मैं माइक पर वो शंकर के वो संवाद बोलने लगता, जो भोले के अवचेतन मष्तिष्क में घुमड़ रहे हैं। शंकर की बातें याद कर करके भोले परेशान है। वो गा नहीं पा रहा है। गुरुजी आते हैं और भोले को हौसला बंधाते हैं, लेकिन भोले गा नहीं पा रहा। इस सारे सीन में भोले को अपने चेहरे पर परेशानी के भाव दिखाने थे और मनोज तिवारी का उस दिन मूड काफी खुशनुमा था। लेकिन एक दो बार सीन को लेकर मेरी और मनोज तिवारी की तक़रार हुई तो मैं भी थोड़ा तनाव में आ गया और मनोज तिवारी भी। परंतु ये बात मैंने ज़ाहिर नहीं होने दी क्योंकि मुझे तो वैसे भी मनोज तिवारी के चेहरे पर तनाव ही चाहिए था। अब सिचुएशन ये बनी कि मनोज तिवारी मेरी किसी बात से चिढ़कर तनाव में थे और मैं शॉट पर शॉट लिए जा रहा था क्योंकि उनके चेहरे पर ठीक वैसे ही भाव आ चुके थे, जैसे मुझे अपने सीन के लिए चाहिए थे।

तनाव का सीन खत्म हुआ तो एंट्री होनी थी गौरी यानी मोनालिसा की। मोनालिसा की ऐक्टिंग तो वैसे ही परफेक्ट होती है। उसे इस सीन में पहले भोले का हौसला बंधाना था और भोले के फिर भी ना गा पाने पर रोते हुए हॉल से बाहर भाग जाना था। महज दो तीन रिहर्सल में ही सारे शॉट्स ओके हो गए हालांकि इस सीन को भी मैंने छह शॉट्स में बांटा था। मोनालिसा ने इन शॉट्स में भी कमाल की ऐक्टिंग की है। अगले दिन मनोज तिवारी का पैकअप था, मैंने मनोज से चार दिसंबर से 15 दिसंबर तक का ही समय लिया था और आज तेरह दिसंबर ही थी। अगले दिन सुबह सुबह हमने मनोज के कुछ सीन्स उस गाने की खातिर लिए जिसमें रंभा स्टेज शो के दौरान भोले को रिझाने की कोशिश करती है। गाना हम पहले ही शूट कर चुके थे, बस अगले दिन सुबह सुबह हमने मनोज तिवारी, गोपाल के सिंह और अजय आज़ाद को बिठाकर तीनों के रीएक्शनस शूट किए और हो गया हमारा लखनऊ से रवानगी का वक्त। तय शेड्यूल से एक दिन ही हमारा लखनऊ शेड्यूल पूरा हो गया। अगले अंक में हम लौटेंगे मुंबई और जानेंगे कि फिल्म भोले शंकर के लिए मिथुन चक्रवर्ती के पहले दिन की शूटिंग से पहले हुई कितनी भागदौड़? आप पढ़ते रहिए – कैसे बनी भोले शंकर?

और हां, चलते चलते आज की ताज़ा खबर। आजीवन ब्रह्मचारी रहने की ठाने बैठे फिल्म भोले शंकर के असिस्टेंट डायरेक्टर अज़य आज़ाद पर गोरखपुर की एक मेनका का जादू चल गया है। कल रात वो सात फेरे लेकर गृहस्थी की गाड़ी के हकैया बन गए हैं। अजय आज़ाद को भोले शंकर की पूरी टीम की तरफ से हार्दिक बधाई।

कहा सुना माफ़,
पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

उस दिन मैं बाथरूम जाकर खूब रोया...

हिंदी मीडिया के नंबर 1 पोर्टल भड़ास 4 मीडिया से साभार
Written by यशवंत सिंह
सपने देखने वाले उसे किस तरह यथार्थ में बदल देते हैं, पंकज शुक्ल भी इसके उदाहरण हैं। एक सामान्य देहाती और हिंदी वाला नौजवान बिना गॉडफादर के, उबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते हुए एक दिन मंजिल के करीब पहुंच जाता है, पंकज का जीवन इसका प्रतीक है। अखबार, टीवी के बाद अब फिल्म क्षेत्र में पंकज ने अपने काम से नाम कमाया है। 'भोले शंकर' बनाकर पंकज ने वर्षों के अपने सपने को पूरा किया। पिछले दिनों दिल्ली आए पंकज ने भड़ास4मीडिया के एडीटर यशवंत सिंह से खुलकर बातचीत की।
उन्होंने अखबार और टीवी की नौकरी के दौरान की कई घटनाएं बताईं। कई जानकारियां तो आंख खोलने वाली थीं। उनकी बातें बेबाक और दिलचस्प लगीं। इसे देखते हुए तय किया गया कि हिंदी के इस हीरो की दास्तान को भड़ास4मीडिया के पाठकों तक भी पहुंचाया जाए। इसीलिए इस बार हमारा हीरो में पंकज शुक्ल। उम्मीद है इंटरव्यू पसंद आएगा।
-पंकज जी, जर्नलिज्म में लंबी पारी खेलने के बाद अब आपने फिल्म बनाने का सपना 'भोले-शंकर' के जरिए पूरा किया। इस वक्त आप अपने सपने को जी रहे हैं, कैसे पूरा हुआ ल लाइफ का रीयल सपना?
--हां, जरा रुक कर देखता हूं, तो सब सपने जैसा ही लगता है। कभी चोरी छिपे फिल्में देखने वाला गांव देहात का एक लड़का मुंबई पहुंचकर भोजपुरी की सबसे महंगी फिल्म बनाएगा, शायद ही किसी ने सोचा होगा। लेकिन, बरसों पहले मिथुन चक्रवर्ती के बांद्रा वाले घर के सामने बने पार्क में बैठकर मैंने एक सपना देखा था। वो सपना भोले शंकर की कामयाबी के साथ पूरा हो गया है। वो कहते हैं कि ना कि सपने होंगे तो सच होंगे। इंसान को सपने ज़रूर देखने चाहिए क्योंकि तभी वो उनको सच करने के लिए मेहनत करता है।
भोले शंकर की प्लानिंग मैंने तब की थी, जब मैं ज़ी न्यूज़ में डेली और वीकली स्पेशल प्रोग्रामिंग देखता था। ज़ी न्यूज़ में मैं चुनाव डेस्क का भी प्रभारी रहा। चुनावों के दौरान ही मैंने मुनीष मखीजा (चैनल वी के ऊधम सिंह और पूजा भट्ट के पति) को लेकर वोट फॉर चौधरी और मनोज तिवारी को लेकर वोट फॉर खदेरन सीरीज़ बनाई थी। दोनों सीरीज़ हिट रहीं और इसी दौरान मेरा मनोज तिवारी से नजदीकी रिश्ता बना। फिल्म को बनाने का मेरा सपना पूरा करने में मेरे करीबी हरीश शर्मा ने मदद की। मुझे फिल्म के निर्माता गुलशन भाटिया से मिलवाकर। यहां तक किस्मत ने साथ दिया और इसके बाद मैंने दिन रात मेहनत करके इस फिल्म को सिनेमाघरों तक पहुंचाया।
-रास्ता लंबा रहा, सफ़र कठिन। शुरुआती सफ़र पर रोशनी डालें?
--मैंने जो भी कामयाबी पाई, वो काफी मुश्किलों को झेलने के बाद पाई। घर वाले मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे। सीपीएमटी में दूसरी बार पास तो हुआ लेकिन सेलेक्शन बीएचएमस के लिए हुआ। घर वाले एमबीबीएस से नीचे वाले को डॉक्टर नहीं मानते थे। हालात ऐसे बदले कि मैं बंबई भाग गया। वहीं, पृथ्वी थिएटर के चक्कर लगाने के दौरान फिल्मी सितारों से मिलना-जुलना शुरू हुआ। उन दिनों मैं मुंबई की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम भी करने लगा था। मुंबई में ही मैंने होटल मैनेजमेंट का शॉर्ट टर्म कोर्स भी किया। फिर बीच में घर आया यूपी सैनिक स्कूल, लखनऊ में संपत्ति प्रबंधक के लिए वैकेंसी निकली। इंटरव्यू देने गया और सेलेक्शन भी हो गया। इसी के साथ मुंबई से बना मेरा पहला रिश्ता टूट गया। इस सरकारी नौकरी के दौरान ही मुझे पहली बार भ्रष्टाचार का अंदाजा हुआ। कहने को तो इस स्कूल के आला अफसरान एयर फोर्स के बड़े अधिकारी थे, लेकिन सब चाहते थे कि मैं भ्रष्टाचार की उनकी योजनाओं का हिस्सा बनूं। मैंने इस सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर एक दो जगह और नौकरियां की। दैनिक जागरण ग्रुप का कानपुर में जब पहला स्कूल पूर्णचंद्र विद्यानिकेतन खुला तो मैं वहां भी संपत्ति प्रबंधक था। राजीव गांधी ने इस स्कूल का उदघाटन किया था। शायद मेरी मंजिल वो नहीं थी, जिसे मैं अपना मान रहा था। लिहाजा यहां भी ज़्यादा दिनों तक टिक नहीं पाया। तब दैनिक जागरण के मालिकों में से एक महेंद्र मोहन गुप्त ने मेरी रवानगी के कागज़ पर दस्तखत किए थे। तभी मैंने तय किया था कि कुछ ऐसा करना है कि दैनिक जागरण वाले मुझे बुलाने पर मज़बूर हो जाएं। भारतीय विद्या भवन से पत्रकारिता का कोर्स करने के बाद ऐसा हुआ भी। अमर उजाला में कानपुर से मुरादाबाद, वहां से बरेली और मेरठ होते हुए जब मैं नोएडा आया तो राजीव सचान एक बार मुझसे मिलने आए और कभी दफ्तर आकर मिलने की बात ज़ोर देकर कह गए, वो दैनिक जागरण की तरफ से आया पहला फीलर था।
अमर उजाला ने मुझे बहुत कुछ सिखाया। राजुल माहेश्वरी ने हमेशा बड़े भाई जैसा स्नेह दिया। इसी अखबार ने मुझे हिंदी सिनेमा में एक पहचान दिलाई। लेकिन, इस अखबार को मुझे दुखद हालात में छोड़ना पड़ा। फिल्म रहना है तेरे दिल में की न्यूज़ीलैंड में शूटिंग कवरेज के लिए दिल्ली से जाने वाले तीन पत्रकारों में से टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदू के अलावा हिंदी अखबारों से सिर्फ मेरा ही चयन फिल्म के निर्माता वाशू भगनानी ने किया था। लेकिन, अमर उजाला के तत्कालीन संपादक राजेश रपरिया को शायद मेरा तेज़ी से आगे बढ़ते जाना (इसी साल मुझे मातृश्री पुरस्कार मिल चुका था और नेशनल फिल्म अवार्ड में बेस्ट फिल्म क्रिटिक कैटगरी के लिए भी नामांकन हुआ) अच्छा नहीं लगा। विदेश दौरे पर जाने की अनुमति के फॉर्म पर खुद हस्ताक्षर करने के बावजूद राजेश रपरिया ने मालिकों को ये बताया कि मैं बिना किसी को बताए विदेश चला गया हूं। लौटकर आया तो उन्होंने एक हफ्ते की छुट्टी पर जाने को कहा। मैं इसके बाद दफ्तर ही नहीं गया। फिल्म रहना है तेरे दिल में की एक भी रपट अमर उजाला में नहीं छपी, इसके बावजूद वाशू भगनानी से मेरे रिश्ते आज भी इतने करीबी हैं, कि वो मेरे हर एसएमएस का जवाब देते हैं और अरबों रुपये के रीयल स्टेट कारोबार में बिज़ी रहने के बावजूद एक फोन कॉल पर ही मिलने का समय दे देते हैं। राजेश रपरिया के केबिन से निकलकर मैं सीधे दैनिक जागरण के संपादक संजय गुप्ता से मिलने चला गया। उन्होंने एक दो टेढ़ी बातें की लेकिन, अगले दिन से ही ज्वाइन करने की बात भी कह दी, फिर शायद मालिकों का अहं बीच में आड़े आ गया, या पता नहीं क्या हुआ। मामला टलता गया और फिर मैंने बीएजी ज्वाइन कर लिया, इसके बाद दूरदर्शन के लिए खबरों की दुनिया कार्यक्रम का आउटपुट देखा और वहां से ज़ी न्यूज़ पहुंच गया।
-यूपी के एक गांव से गोरेगांव तक, मतलब फ़िल्म सिटी तक के सफ़र में आपको कितना वक़्त लगा?
--मेरा गांव मंझेरिया कलां, उत्तर प्रदेश के ज़िला उन्नाव में गंगा के किनारे है। और, इन दिनों रहता हूं गोरेगांव के करीब, तो सवाल आपका बिल्कुल ठीक है। लेकिन दिलचस्पी जगाने वाले किस्से तमाम हैं। रिश्तों में यकीन रखने वाला हिंदी सिनेमा कैसे काम करता है इसका एक दिलचस्प किस्सा है। मीडिया में साल के आखिर में वार्षिकी बनाने की परंपरा है। ज़ी न्यूज़ में ऐसे ही एक कार्यक्रम की एंकरिंग कराने के लिए सीनियर्स ने महेश भट्ट का नाम तय किया। इससे एक साल पहले जब अलका सक्सेना आउटपुट देखती थीं तो सारे विषयों पर वार्षिकी मैंने ही बनाई थी, लेकिन इस साल निज़ाम बदल चुका था और नए निज़ाम में ऐसे लोगों की पूछ बढ़ गई थी, जो बैठकी में यकीन करते थे। मैं उस दिन अपने गांव में था जब मेरे पास नोएडा से फोन आया कि महेश भट्ट से एंकरिंग करानी है। मैंने वहीं गांव से ही फोन किए, महेश भट्ट का समय लिया और अनुरोध किया वो जाकर ज़ी न्यूज़ के लोअर परेल दफ्तर में एंकरिंग कर दें। महेश व्यस्त थे, वो रात 12 बजे समय निकाल पाए। जूहू से जाकर उन्होंने लोअर परेल में एंकरिंग की और काम खत्म करने के बाद रात डेढ़ बजे मुझे फोन किया। महेश ने कहा, "अपने मालिकों को बता देना कि ये काम मैंने सिर्फ पंकज शुक्ल के लिए किया है। ज़ी के लिए नहीं।" इसके कुछ दिनों बाद ज़ी न्यूज़ के संपादक राजू संथानम और सीईओ हरीश दुरईस्वामी मुंबई गए महेश भट्ट से मिलने। महेश भट्ट ने कहा कि ज़ी न्यूज़ में तो वो एक ही आदमी को जानते हैं और वो हैं पंकज शुक्ल। मुझे उसी दिन लग गया कि ज़ी न्यूज़ का नया निज़ाम अब मुझे चैन से रहने नहीं देगा।
-जर्नलिज़्म के दिनों में प्रिंट में आपका स्ट्रगल कैसा रहा?
--प्रिंट की फुल टाइम नौकरी अमर उजाला में शुरू करने से पहले भी मैं दूसरे अखबारों में लिखता रहा। योगेन्द्र कुमार लल्ला जब स्वतंत्र भारत में थे, तो उन्होंने मुझे बहुत प्रोत्साहन दिया। बाद में अमर उजाला में भी उनके सानिध्य में काम करने का अवसर मिला। प्रिंट में मेरे लिए हर दिन एक नया स्ट्रगल लेकर आता था। खेमेबाजी में यकीन ना रखने के कारण मैं हर गुट के निशाने पर रहता था, लेकिन मेरा काम ऐसा था कि कोई चाहकर के भी कुछ नहीं कर पाता था।
अमर उजाला में रहते हुए ही मैंने प्रियंका गांधी और रॉबर्ट वढेरा की प्रेम कहानी के राज़ खोले थे। मैंने ये पता लगाया था कि आखिर देश के प्रधानमंत्री की बेटी कैसे मुरादाबाद के एक बिज़नेसमैन के बेटे पर फिदा हो गई। अमर उजाला में ये कहानी पहले पन्ने पर ऑल एडीशन छपी। इसे पढ़कर दिल्ली के तमाम पत्रकार मुरादाबाद पहुंचे और इन्हीं में से एक थीं भावदीप कंग। उन्होंने मुझसे कहा, "यू आर वेस्टिंग योर टाइम एंड एनर्जी एट रॉन्ग प्लेस। योर राइट प्लेस इज़ इन देहली।"
मुरादाबाद में ही रहते हुए मैंने तब असम के लॉटरी किंग और अब सांसद एम एस सुब्बा की एक ऐसी खबर निकाली थी, जो अमर उजाला के मालिक प्रकाशित करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। इसके लिए मैं दिल्ली आया और कनॉट प्लेस मे हनुमान मंदिर के पास चलने वाले दफ्तर एस एस एसोसिएट्स से तमाम कागज जुगाड़ कर ले गया था। ये खबर कई दिनों तक मुरादाबाद से बरेली और बरेली से मेरठ के बीच बंडलों में टहलती रही और बाद में मुरादाबाद के एडीटोरियल चीफ नर नारायण गोयल ने मेरे सामने ये सवाल रख दिया कि अगर ये खबर छपी तो अमर उजाला में रोज़ मिलने वाला एक पेज का लॉटरी विज्ञापन बंद हो जाएगा। अब बताओ खबर छापें या ना छापें। हार्ड न्यूज़ से मोह भंग करने वाली मेरे करियर की ये सबसे बड़ी घटना रही।
-कलम के सिपाही से आप अचानक कंप्यूटर और कैमरे के खिलाड़ी बन गए?
--असली पत्रकार के लिए प्रिंट ही सही जगह है। टीवी का आकर्षण मुझे खींच तो लाया, लेकिन इस मीडियम में कम से कम हिंदी चैनलों में ना तो क्रिएटिविटी बची है और ना ही कुछ अच्छा करने की गुंजाइश। जब अच्छे-बुरे में फर्क करने वाले ही सीनियर पोस्ट पर ना हों तो अच्छे-बुरे में फर्क करे कौन। जो अच्छे सीनियर हैं, वो रीढ़ से कमज़ोर हैं। कहा जाता है कि अच्छे लोग पत्रकारिता में आना नहीं चाहते। मैं कहता हूं कि अच्छे लोगों की परिभाषा क्या है? कौन है अच्छा जो संस्थान के लिए दिन रात एक करता है या फिर वो जो संपादकों की हर बात में हां में हां मिलाता है। आज के संपादकों को ना सुनने की आदत नहीं रही। वो बहस में यकीन नहीं करते। कुर्सी बड़ी होते ही पत्रकार के चोले पर स्वास्तिक का जर्मन निशान चमकने लगता है। खुद खेमेबाजी को बढ़ावा देने वाले पंडित दूसरों को हितोपदेश देते दिखते हैं।
लेकिन, सारे संपादक ऐसे ही होते हैं, ऐसा भी नहीं है। ज़ी न्यूज़ का एक वाक्या यहां बताना चाहूंगा। मशहूर अभिनेता प्राण के जन्मदिन पर मैंने एक कार्यक्रम बनाया- बॉलीवुड के प्राण। रात आठ बजे ये कार्यक्रम प्रसारित होना था और उसी दिन सानिया मिर्ज़ा किसी अहम मुकाबले में थी। रात आठ बजे से ये मैच शुरू होना था और साढ़े सात बजे से सारे चैनलों पर सानिया ही सानिया चलने लगा। उस दिन अलका सक्सेना ने फैसला लिया कि नहीं, हम प्राण वाला प्रोग्राम ही चलाएंगे। उनका फैसला सही साबित हुआ क्योंकि टीआरपी आई तो रात आठ बजे के स्लॉट में ज़ी न्यूज़ सबसे आगे था।
-न्यूज़ चैनल की दुनिया में पैनिक का निजी ज़िंदगी पर कितना असर महसूस किया?
--अक्टूबर 2002 से लेकर मई 2007 तक ज़ी न्यूज़ में रहा। इस दौरान किसी भी रिश्तेदार के यहां खुशी-ग़म में शरीक न हो सका। यहां तक कि बेटी के पैर में जब फ्रैक्चर हुआ तो भी मैं ऑफिस जाता रहा। वो सिर दर्द की शिकायत करती रही लेकिन डॉक्टर के पास ले जाने का वक्त तक नहीं निकाल सका। बाद में पता चला कि उसकी आंखें इतनी कमज़ोर हो गईं हैं कि उसे हमेशा के लिए नज़र का मोटा चश्मा लगाना पड़ेगा। मेरी बहन एक बार बहुत गंभीर हालत में थी। मुझे उसे देखने रायबरेली जाना था। लेकिन ऐन मौके पर आउटपुट हेड विनोद कापड़ी ने मेरी छुट्टी कैंसिल कर दी। मैं उस दिन बाथरूम में जाकर खूब रोया। नसीरुद्दीन शाह का इंटरव्यू लेने मुंबई पहुंचा तो कमर तक पानी में चलकर होटल पहुंचा। घुटनों तक पानी में चलकर उनके दफ्तर गया, टाइम फिक्स करने। लौटकर आया तो बीमार पड़ गया, लेकिन आरोप लगा कि अलका सक्सेना के जाने के बाद से मैं पूरे मनोयोग से काम नहीं करता हूं। ज़ी न्यूज़ में 2006 के आखिर तक शायद ही ऐसा कोई दिन हो जब मैंने 12-14 घंटे काम न किया हो।
-टीवी जर्नलिज़्म में आपने नया क्या किया?
--ये बातें अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने जैसी लगती है। ज़ी न्यूज़ में मेरे रहने के दौरान जो भी नया दैनिक या साप्ताहिक कार्यक्रम शुरू हुआ, उसका आइडिया भी मेरा होता था और एक्जक्यूशन भी। जो नए प्रोग्राम मैंने ज़ी न्यूज़ में शुरू कराए, उनमें से कुछ आज भी चल रहे हैं, मसलन, प्राइट टाइम स्पेशल, बोले तो बॉलीवुड, मियां बीवी और टीवी, बचके रहना। बाद के तीनों कार्यक्रमों के नाम अब बदल गए हैं लेकिन स्वरूप बहुत कुछ वैसा ही है। मैंने बॉलीवुड बाज़ीगर, भूत बंगला, होनी अनहोनी और लिटिल स्टार्स जैसे कार्यक्रम भी बनाए। ये कार्यक्रम मेरे ज़ी न्यूज़ छोड़ने के कुछ ही महीनों बाद बंद हो गए। रूटीन में मुझे घुटन होने लगती है, मेरे साथ दिक्कत ये है कि मेरे अंदर हरदम कुछ चलता रहता है। शायद यही मुझमें नया करने की धुन पैदा करता है।
-संजीदा ख़बरों के बाद बॉलीवुड की गॉसिप में आपकी दिलचस्पी कैसे हुई?
--बॉलीवुड गॉसिप मेरी पसंद कभी नही रही। ये धंधे की मज़बूरी थी। इसकी शुरुआत अमर उजाला के रंगायन में पहले पन्ने के लिए गॉसिप तलाशने से हुई। बाद में ये रोग टीवी में भी आ गया। लेकिन, गॉसिप के इस रोग ने मुझे व्यक्तिगत तौर पर बड़ा नुकसान पहुंचाया है। आमिर खान के कथित नाजायज बच्चे के बारे में स्टारडस्ट में छपी एक रिपोर्ट को एक बार सारे चैनलों ने खूब चलाया। ये खबर ज़ी न्यूज़ पर भी चली। मैंने इसका विरोध भी किया लेकिन किसी चैनल पर खबर चलाने के लिए संबंधित बीट या डेस्क देखने वाले का सहमत होना ज़रूरी नहीं होता। शाम को खबर चली और रात को आमिर खान का मेरे पास एसएमएस आया, "आई प्रे टू गॉड दैट हू एवर हैज़ बीन एसोसिएटेड विद दिस न्यूज़ ऑफ किलिंग माइ कैरैक्टर शुड गेट हिज़ ड्यूज़ इन दिस लाइफ ओनली।" इस गॉसिप न्यूज़ ने मेरा आमिर खान के साथ रिश्ता हमेशा के लिए तोड़ दिया। ज़ी न्यूज़ पर ये इसके बावजूद हुआ कि मंगल पांडे की रिलीज़ के बाद विदेश से लौटने पर सबसे पहला इंटरव्यू आमिर खान ने मेरे प्रयासों से ज़ी न्यूज़ को ही दिया था। ज़ी न्यूज़ तो इसके बाद मुझसे छूट गया, लेकिन आमिर खान से रिश्ते दोबारा पहले जैसे नहीं हो पाए।
-चैनलों में आपका सबसे ज़्यादा वक़्त ज़ी न्यूज़ में गुज़रा, कुछ किस्से?
--साहब, टीवी चैनल की दुनिया अपने आप में एक किस्सा है। इसके कुछ नज़ारे आपको मेरी एक आने वाली फिल्म में भी दिखाई देंगे। यहां हर रोज़ एक नया किस्सा बनता है। यहां आपको कब किसी और के सामने मोहरा बनाकर पेश कर दिया जाए, पता ही नहीं चलता।
ज़ी न्यूज़ में आने से पहले 2002 में ही मैंने आज तक में आवेदन किया था। टेस्ट पास किया और फिर अरुण पुरी, प्रभु चावला, उदय शंकर और दूसरे लोगों की पूर्ण पीठ ने मेरा इंटरव्यू लिया। बीट वगैरह की भी बात होने लगी थी। लेकिन, इंटरव्यू के आखिरी सवाल का मेरा जवाब शायद उन लोगों को बेतुका लगा। उदय शंकर ने मुझसे पूछा कि आज से पांच साल बाद आप खुद को कहां देखना चाहते हैं। मैंने बिना एक पल सोचे बोल दिया- एक फिल्म डायरेक्टर के तौर पर। पता नहीं अरूण पुरी, प्रभु चावला और उदय शंकर को अब याद हो ना हो, लेकिन मुझे अपना जवाब याद रहा। 30 नवंबर 2007 को बतौर फिल्म डायरेक्टर मैंने पहला सीन शूट किया।
अब बात ज़ी न्यूज़ की। अलका सक्सेना जब प्रोग्रामिंग देखती थीं, तो उन्होंने मुझे इंटरटेनमेंट चीफ बनाकर नोएडा से मुंबई भेजने की बात डायरेक्टर लक्ष्मी गोयल जी से की। अगले ही दिन आदेश भी पारित हो गया। लेकिन, ज़ी न्यूज़ के तत्कालीन आउटपुट हेड विनोद कापड़ी को ये बात अच्छी नहीं लगी। उनके खास पराग छापेकर के जिम्मे तब ये काम था। उन्होंने मुझे इमोशनली तैयार किया कि मैं मुंबई जाने के लिए मना कर दूं। विनोद कापड़ी ने ही ज़ी न्यूज़ में मेरा इंटरव्यू कराया था, लिहाजा इस एहसान को मानते हुए मैंने ऐसा कर भी दिया। लेकिन टीवी में ये मेरा सबसे गलत फैसला था। एक किस्सा इसी के बाद और हुआ जिसने अलका सक्सेना का भरोसा मेरे ऊपर फिर कायम कर दिया। उस दिन ज़ी न्यूज़ पर गुड़िय़ा मामले में पंचायत लगी थी। मैं दफ्तर में सुबह से था। देर रात तक अलका ने इस पंचायत को होस्ट किया। वो कार्यक्रम खत्म करके निकलीं तो मैं घर के लिए जा ही रहा था। रास्ते में मुझे देखते ही वो बोलीं कि ये कार्यक्रम एडिट होकर एक घंटे का करना है और कल सुबह रिपीट होना है। मैंने कहा- हो जाएगा। उन्होंने पूछा- कैसे। मैंने कहा- ये मैं देख लूंगा। मैं उस रात घर नहीं गया। ज़ी न्यूज़ के काबिल वीटी एडीटर्स में से एक प्रशांत त्यागी को मैंने अपने साथ लिया और पूरी रात बैठकर प्रोग्राम एडिट किया। सुबह जब प्रोग्राम टेलीकास्ट हो गया तो दफ्तर से ही अलका जी को फोन किया और फिर घर गया।
इसी तरह अमिताभ बच्चन पर एक बार एक घंटे का प्रोग्राम बनना था तो मैं दो दिन तक लगातार काम करता रहा। मेरे सहायक बदलते गए, लेकिन मैं लगातार 48 घंटे काम करता रहा। महाराष्ट्र इलेक्शन के दौरान बेगम अख्तर पर प्रोग्राम बनाने का आइडिया आया तो चुनाव के साथ साथ इसमें भी जुट गए। मैं सौभाग्यशाली रहा कि टीवी में मुझे कुछ बहुत ही अच्छे सहयोगी मिले। उनमें से कुमार कौस्तुभ, गिरिजेश मिश्र, अश्वनी कुमार, राकेश प्रकाश, पृथा रुस्तगी और अजय आज़ाद का मैं नाम यहां ज़रूर लेना चाहूंगा।
-टीवी के दौर का कोई ऐसा लम्हा जिसने सपने देखने वाली आपकी आंखों में आंसू ला दिए?
--ज़ी न्यूज़ की रिपोर्टिंग टीम के साथी दिलीप तिवारी किसी कवरेज के लिए चित्रकूट गए थे। वहां उन्हें एक ऐसा बच्चा मिला जो वहां घूमने आए एक परिवार से काफी पहले बिछड़ गया था। आउटपुट हेड संजय पांडे ने स्टोरी का जिक्र मुझसे किया। अनुरोध किया कि इस पर लाइव रीएल्टी शो की ज़िम्मेदारी मैं संभालूं। हम लोगों ने इस स्टोरी को शाम सात बजे से चलाना शुरू किया। रात दस बजे से पहले ही हमने इस बच्चे के माता-पिता को गुजरात में खोज निकाला। गुजरात में इस बच्चे के माता-पिता के घर में टीवी तक नहीं था। रिश्तेदारों से उनका पता हमें चला। इस बच्चे को इसके रिश्तेदार ने जब टीवी पर पहचाना तो मेरी आंखों में आंसू आ गए। इस बच्चे का इसके माता-पिता से मिलन भी ज़ी न्यूज़ ने अगले दिन करा दिया। लेकिन, मेरा दिल तब बहुत रोया जब संजय पांडे ने कुछ दिनों बाद मुझे ये बताया कि उन पर किसी ने इस स्टोरी को प्लांट करने का आरोप लगाया है। इस पूरी स्टोरी के पोस्ट प्रोडक्शन और लाइव प्लानिंग में सबसे ज़्यादा ऊर्जा मेरी ही लगी थी, लिहाजा दुख भी मुझे ही ज़्यादा हुआ।
-अमर उजाला के बाद आपकी पारियां छोटी होने लगीं। कोई ख़ास वजह?
--शायद, मैं उस तरफ नहीं जा रहा था जहां नियति मुझे ले जाना चाह रही थी। अमर उजाला में मैं करीब आठ साल रहा। ज़ी न्यूज़ में पांच साल। इसके बाद अलका सक्सेना जी के बुलावे पर मैंने बतौर आउटपुट हेड एमएच वन न्यूज़ चैनल लॉन्च कराया। ई 24 के न्यूज़ कंटेट के लिए अजीत अंजुम जी ने मुझे बुलवाया। इन दोनों चैनलों की लॉन्चिंग के बाद इसके कंटेट को मिली तारीफ ने मुझमें नया हौसला भरा है। टीवी की फुल टाइम नौकरी बहुत ऊर्जा और बहुत समय मांगती है। और, पिछले साल की शुरुआत से ही मैंने तय कर लिया था कि अब एक ही जगह सारी ऊर्जा लगाने से बेहतर है कि इसे ऐसी जगहों पर लगाया जाए जहां मेहनत का सही मूल्यांकन हो सके। मैं फिल्म निर्देशन का काम जारी रखना चाहता हूं, लेकिन ये भी चाहता हूं कि मेरे अंदर का लेखक भी खाद पानी पाता रहे। इसके लिए मैं किसी अच्छे हिंदी अखबार से नियमित तौर पर जुड़ने की ख्वाहिश रखता हूं।
-कुछ ऐसी बातें, जो आपको पीठ पीछे सुनने को मिली हों?
--एक कहावत है कि जब बहुत सारे लोग आपके बारे में बहुत सारी उल्टी बातें करें तो समझ लीजिए कि आप यकीनन बहुत सारा अच्छा काम कर रहे हैं। इस कहावत ने कभी मुझे हौसला नहीं खोने दिया। मेरे बारे में लोग मेरे पीठ पीछे क्या कहते हैं, इससे मुझे बहुत ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता। मेरे साथ जिन लोगों ने काम किया है वो जानते हैं कि मैं जब भी जहां काम करता हूं पूरी ईमानदारी से करता हूं और सिर्फ काम करता हूं। बुराई भी मैं किसी की पीठ पीछे नहीं करता बल्कि जो भी दिल में होता है सीधे मुंह पर कह देता हूं।
मेरे बारे में पीठ पीछे क्या कहा जाता है ये सबसे पहले मुझे दैनिक जागरण के संपादक संजय गुप्ता ने बताया। उनसे मेरी वो पहली और अब तक की आखिरी मुलाकात थी। राजेश रपरिया के रवैये से नाराज़ होकर जब मैं अमर उजाला से निकला तो सीधे संजय गुप्ता के पास गया। उन्होंने कहा कि आपका रहन सहन आपके वेतन से कहीं बेहतर है और इस वजह से लोग कहते हैं कि आप फिल्मों की समीक्षाएं पैसे लेकर लिखते हैं। (तब तक मैं राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में बेस्ट फिल्म क्रिटिक कैटगरी के लिए दो बार नामित हो चुका था।)
फिल्म की समीक्षाओं में उनकी बड़ाई लिखने के लिए हिंदी सिनेमा में पैसे बंटते हैं, ये बात सारे फिल्म समीक्षक जानते हैं। मुझे तो फिल्म मर्डर के दौरान सीधे-सीधे महेश भट्ट ने ऐसा ऑफर किया था। लेकिन, उस दिन की ना ने ही शायद महेश भट्ट जैसे फिल्म मेकर के दिल में मेरे लिए एक सम्मानजनक जगह बना दी। मैं अच्छा खाने और अच्छा पहनने में यकीन रखता हूं। इसके लिए रातों को जाग जागकर मेहनत भी करता हूं। टीवी के लिए मैं तब से लिख रहा हूं जब मैं अमर उजाला के लिए नोएडा आया ही था। तब मैं संजय खन्ना (जिन्होंने दूरदर्शन का मशहूर सीरियल नींव बनाया) के लिए लिखा करता था। इंटरनेट पत्रकारिता के बारे में जब लोग एबीसीडी सीख रहे थे तब मैं अमेरिका से संचालित होने वाली वेबसाइट http://www.smashits.com/ के लिए लेख और समीक्षाएं लिखा करता था। मेरा चयन दिल्ली के तमाम पत्रकारों के बीच से किया गया था और वो भी एक हिंदी अखबार का होने के बावजूद। अमर उजाला में तब मुझे जितनी तनख्वाह पूरे महीने काम करके मिलती थी, उससे कहीं ज़्यादा पैसे मैं इस वेबसाइट के लिए हफ्ते में चार स्टोरी लिखकर कमा लेता था। इसके लिए मैंने अपने घर में उस दौर में इंटरनेट और कंप्यूटर का इंतजाम किया था, जब हिंदी के पत्रकार ई मेल करना भी नहीं जानते थे।
-आपके स्वभाव में प्रेम और गुस्से का प्रपोर्शन क्या है?
--मैं अपने काम से बहुत मोहब्बत करता हूं। इसमें कोई कमी मुझसे बर्दाश्त नहीं होती। मैं अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाने के लिए अधिकार भी चाहता हूं। बिना अधिकार मिले मैं मेहनत नहीं कर पाता। परफेक्शन के लिए सनक की हद तक पागल रहता हूं। जितने भी मेरे करीबी रहे हैं, वो इस बात को जानते हैं। मेरी इसी बात के लिए वो मुझसे प्यार भी करते हैं। मैंने अपने किसी भी सहयोगी को कभी अपना जूनियर नहीं, बल्कि अपना छोटा भाई समझा। रात में घर तक छोड़ने भी गया, एक दो दिन नहीं, कई-कई महीने। बाद के दिनों में हर साल एक ऐसा सहयोगी तैयार किया जो मेरी गैर-मौजूदगी में मेरी जगह संभाल सके। ये सारे लोग मेरे संपर्क में आज भी हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि ये लोग मेरे गुस्से की वजह समझते हैं, इसीलिए बुरा नहीं मानते। मेरी बदकिस्मती रही कि मुझे अपने जैसा बड़ा भाई मीडिया में नहीं मिला।
-टीवी जर्नलिज़्म की सबसे बड़ी ख़ासियत?
--इसकी मार दूर तक होती है।
-टीवी पत्रकारिता की बुराई, एक लाइन में?
--पत्रकार यहां अच्छे वेतन के लालच में पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों का सौदा करते हैं।
-आपने कई लोगों को मौक़े दिए। कुछ बताएंगे इस बारे में?
--महात्मा गांधी का कथन है कि जो अकेले चलते हैं वो तेज़ बढ़ते हैं। मौका दिया तो खैर बहुत बड़ा शब्द है, मैं तो बस चंद लोगों को उनकी सही जगह तक पहुंचाने में माध्यम भर रहा। मैं मानता हूं कि वही उनकी सही जगह थी और मैं नहीं तो कोई और उन्हें वहां तक पहुंचाता। मैंने भी ज़िंदगी में जाने-अनजाने कुछ लोगों के भरोसे को तोड़ा है, तो जब मेरे साथ ऐसी कोई घटना होती है तो मैं उसे उसका प्रतिफल मान लेता हूं। ऐसी हर घटना बहुत ही व्यक्तिगत होती है और उसका जिक्र करना यहां मुनासिब नहीं होगा।
-आप टीवी से दूर, फ़िल्मों के क़रीब हैं। भोले-शंकर के बाद कोई नया प्रोजेक्ट?
--भोले शंकर बिहार, नेपाल और भोजपुरी भाषी कुछ दूसरे क्षेत्रों में रिलीज़ हो चुकी है। फिल्म ने पहले हफ्ते में ही इन इलाकों में अपनी लागत वसूल कर ली। वहां ये फिल्म अब भी कारोबार कर रही है। पंजाब में भी ये फिल्म रिलीज़ होने वाली है। भोले शंकर को हम दीवाली पर मुंबई में रिलीज़ करना चाहते थे, लेकिन महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के आतंक के चलते मुंबई और महाराष्ट्र के सिनेमाघर वाले भोजपुरी फिल्मों के प्रदर्शन के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं।
पिछले एक साल काफी मेहनत की है, अब कुछ आराम करने की और फिर काम करने की इच्छा थी। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। भोले शंकर के बाद इन दिनों मैं एक साथ तीन कहानियों पर काम कर रहा हूं। पहली कहानी मेरे अपने बचपन की कहानी है, जिसमें आज के हालात को जोड़कर मैं हिंदुओं और मुसलमानों के बीच फैल रही खाई को पाटने की कोशिश करना चाहता हूं। दूसरी फिल्म देश में आज़ादी की लड़ाई के दौर की एक ऐसी कहानी है, जिसमें एक गायक परदे के पीछे रहकर आज़ादी के मतवालों की मदद करता है। तीसरी कहानी पत्रकारिता के दिनों के मेरे अनुभवों पर एक कॉमेडी है। इन तीनों कहानियों को तीन अलग-अलग निर्माता पसंद कर चुके हैं, अब शुरू कौन सी पहले होती है, ये कलाकारों की डेट्स पर निर्भर है। दो भोजपुरी फिल्मों के भी ऑफर हैं। फिलहाल मैं भोले शंकर की कामयाबी का जश्न मना रहा हूं।
-चैनलों और फ़िल्मों में आने वाले नए लोगों के लिए पैग़ाम?
--टीवी पर ढोल बजाने का ज़माना जल्द लदने वाला है। ख़बर में यकीन रखने वालों के दिन फिर से बहुरने वाले हैं। जो लोग हिंदी पत्रकारिता सीख रहे हैं और टीवी में आना चाहते हैं, उनके लिए ज़ी न्यूज़ आज भी सबसे अच्छी पाठशाला है। वरना, सही पत्रकारिता देश में अब बस अंग्रेजी चैनलों में बची है। और, अगर आपको ड्रामा, सस्पेंस और सेंसेशन में ही मज़ा आता है, तो फिर आ जाइए फिल्मी दुनिया में, वाकई यहां अच्छी कहानियों की बहुत डिमांड है।
-ब्लॉंग की दुनिया में भी आप सक्रिय हैं। आपके लिए ब्लॉगिंग के क्या मायने हैं?
--मेरे हिंदी ब्लॉग का नाम है thenewsididnotdo.blogspot.com इस पर मैं अभी तक तो अपनी पहली फिल्म के बारे में लिख रहा था। आगे मेरी इच्छा इस पर फिल्म मेकिंग की विधा और भूले बिसरे कलाकारों के बारे में विस्तार से लिखने की है। अवधी भाषा का पहला ब्लॉग भी मैंने शुरू किया है- manjheriakalan.blogspot.com और इसका उद्देश्य अवधी की कुछ चुनिंदा रचनाओं को आज की पीढ़ी तक पहुंचाना है।
-ज़िंदगी को लेकर आपका नज़रिया....?
--जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलेहि न कछु संदेहू।।
(हिंदी मीडिया के नंबर 1 पोर्टल भड़ास 4 मीडिया से साभार- ये इंटरव्यू आप नीचे दिए लिंक पर क्लिक करके भी पढ़ सकते हैं -