गुरुवार, 28 अगस्त 2008

लखनऊ के लिए प्रस्थान


भोले शंकर (11). गतांक से आगे...

मुंबा देवी की नाराज़गी ही वजह रही होगी कि हम लोग फिल्म भोले शंकर की शूटिंग 21 नवंबर से मुंबई में नहीं कर पाए। उस दिन फिल्म के निर्माता गुलशन भाटिया मेरे और अपने बेटे गौरव के साथ मिथुन दा से मिलने उनके घर मड आइलैंड गए। मिथुन दा भी दुखी थे कि वो चाहकर भी भोले शंकर की शूटिंग नहीं कर पा रहे हैं। उन्होंने उनके और डॉक्टर सुनील के बीच हुए करार के सारे पेपर्स दिखाए, हालांकि इसकी ज़रूरत नहीं थी। लेकिन मिथुन चाहते थे कि हम उन्हें गलत ना समझें। उन्होंने पूरे मामले से जुड़ा एक एक पुर्जा दिखाया। उन सारी बातों का चूंकि भोले शंकर की मेकिंग से ज़्यादा लेना देना नहीं है, इसलिए उनके विस्तार में जाना ठीक नहीं। भाटिया जी थोड़ा परेशान थे क्योंकि मैंने मिथुन से अब तक कोई लिखित करार नहीं किया था, मुझे तो मिथुन दा की ज़ुबान की अहमियत मालूम थी, लेकि भाटिया जी के दिल की बात मैंने फिर भी उनसे कह ही दी। एग्रीमेंट मैं भाटिया जी के कहने पर पहले से ही बना कर लाया था। मिथुन दा की महानता देखिए कि एसोसिएशन के बैन के बावजूद उन्होंने इस एग्रीमेंट पर तुरंत साइन कर दिए और वो भी बिना एक भी लाइन पढ़े। मैंने भाटिया जी की तरफ देखा, उनके चेहरे पर संतोष और हैरानी के मिले जुले भाव थे। मैंने बाद में मिथुन दा के घर से निकलने पर उन्हें बताया कि इंडस्ट्री में ज़ुबान की कीमत ज़्यादा होती है और कागज़ की कम। और ये बात भाटिया जी भी अब मानने लगे हैं।

मिथुन के घर से निकले तो अगला काम था लखनऊ शेड्यूल को सही वक़्त पर शुरू करना। ज़ी न्यूज़ में मेरे सहयोगी रहे गौरव द्विवेदी के लखनऊ में एक दोस्त हैं विशाल कोहली। और कोहली साहब के दोस्त पांडे जी का लखनऊ के करीब गांव लुधमऊ में एक बहुत बड़ा फार्म हाउस है, इसकी विशालता का अंदाज़ा आप बस इसी बात से लगा सकते हैं, कि गोमती नदी इस फार्म हाउस के बीच से बहती है। पांडे जी इटावा के रहने वाले हैं और बड़े ही मानवतावादी इंसान है। इन्हीं के सेवा एग्रीकल्चरल फार्म और आस पास के गांवों में भोले शंकर की शूटिंग पहली दिसंबर से शुरू होनी थी। सो मिथुन दा के घर से निकलने के बाद भाटिया जी और गौरव तो अपने घर चले गए, मैं जा बैठा वापस ऑफिस में। करीब 70 लोगों की टीम को लखनऊ पहुंचाना, उनके रहने का इंतजाम करना और फिर लखनऊ में सारी चीज़ें ठीक ढंग से चलती रहें, इसका इंतजाम करना था। आगे बढ़ने से एक बात आपको और बता दूं, अगर आपको फिल्म मेकिंग में ज़रा सी भी दिलचस्पी है, तो एक बात हमेशा गांठ बांधकर रखिए, कि यहां बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता। मतलब कि जो कुछ भी करना है आपको ही करना है, बाकी सब लगता है जैसे काम बिगाड़ने ही आए हैं। खासतौर से अगर प्रोडक्शन देखने वाला बेइमान निकल जाए, तो फिर भगवान ही बेड़ा पार लगा सकता है। मौके की ताड़ में हर कोई यहां रहता है, मुंबई में ऑटो से सफर करने वाला भी शूटिंग पर एसी गाड़ी मागेगा और घर में चाहे पंखा भी ना हो, शूटिंग पर एयर कंडीशंड कमरा ही मांगेगा। जी हां, भोजपुरी सिनेमा में भी हिंदी फिल्मों की बुराइयां धीरे धीरे आ रही हैं।

खैर, शूटिंग से दो दिन पहले मैं लखनऊ पहुंच गया। गड़बड़ ये हो गई कि रहने की जगह और शूटिंग की लोकेशन में दूरी थोड़ी ज़्यादा थी, और जब हम शूटिंग कर रहे थे तब तक कोहरा पड़ना भी शुरू हो गया तो सुबह 7 बजे की शिफ्ट भी नौ बजे तक शुरू करने के लिए सूरज देवता का इंतज़ार करना पड़ता था। पहले दिन की शूटिंग में कुछ स्थानीय कलाकारों की ज़रूरत थी। गांव के सरपंच के लिए मुझे कन्हैया लाल जैसा कमीनापन दिखा सकने वाला कलाकार नरेंद्र पजवानी में मिला और भोले और शंकर के बचपन के रोल के लिए तय हुए शिवेंदु और उज्ज्वल के नाम। पारवती के बचपन का रोल लखनऊ की ही एक बाल कलाकार बेबी निष्ठा ने निभाने की बात मान ली।

वैसे तो हमने तय किया था कि शूटिंग एक दिसंबर को ही शुरू करेंगे और हमने ये इस लिहाज से तय किया था कि यूनिट 30नवंबर की शाम तक हर हाल मं लखनऊ पहुंच ही जाएगी। लेकिन बलिहारी रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव की कि ट्रेनें इन दिनों राइट टाइम चलने लगी हैं। पूरी यूनिट लखनऊ में 30 नवंबर की सुबह सुबह ही पहुंच गई तो मैने आनन फानन फैसला किया कि शूटिंग एक दिन पहले ही शुरू कर देते हैं। फिल्मों की शूटिंग आगे खिसकने के किस्से तो मुंबई से आई क्रू ने खूब सुने थे, लेकिन शूटिंग तय तारीख से पहले शुरू होने का मौका वो पहली बार देख रहे थे। लेकिन मैं तारीफ करना चाहूंगा यहां पूरी यूनिट की- एक एक लाइट मैन और एक एक स्पॉट ब्वॉय की जिन्होंने दिन रात कंधे से कंधा मिलाकर फिल्म की शूटिंग में मदद की।

भोले शंकर का पहला शॉट गांव लुधमऊ में लोक विश्राम के पावन काल में 30 नवंबर को नरेंद्र पजवानी, शबनम कपूर, मास्टर शिवेंदु और मास्टर उज्ज्वल पर फिल्माया गया। संयोग से फिल्म का भी ये पहला सीन है। पहले सीन के ज़्यादातर शॉट्स हमने पहले दिन फिल्माए। भोजपुरी फिल्मों में शॉट डिवीज़न को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती है। और निर्माता निर्देशकों की कोशिश यही रहती है कि फिल्म जितने कम से कम शॉट्स में बना दी जाए वही बेहतर। कलाकार भी इसमें खुश रहते हैं क्योंकि उन्हें मेहनत कम करनी होती है। लेकिन, एक निर्देशक को ये बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि भाषा हिंदी हो या भोजपुरी या कोई और, उसे अपनी कला के साथ समझौता नहीं करना चाहिए। क्या कोई गायक सिर्फ इसलिए बेसुरा गा सकता है कि वो हिंदी फिल्म का नहीं भोजपुरी का गाना गा रहा है? भोले शंकर की मेकिंग किसी भी मामले में किसी हिंदी फिल्म से उन्नीस नहीं रखने का फैसला मैंने शूटिंग शुरू होने के पहले से ले रखा था। अब इस पर अमल करने का वक़्त आ चुका था। बाकी अगले अंक में, पढ़ते रहिए कइसे बनल भोले शंकर?

कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत रोचक है आपको पढ़ना. आभार.

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  2. समीर भाई (उड़नतश्तरी),

    आपका नाम यही है शायद अनुमान लगा रहा हूं। आप जैसे लोगों के हौसला बढ़ाने की वजह से ही ये मेकिंग नियमित रूप से लिख पा रहा हूं। अपने बारे में थोड़ा विस्तार से बताएं। हार्दिक धन्यवाद।

    सादर,
    पंकज शुक्ल

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  3. रउआ से परसो बतिया के बढ़ियां लगल. www.raviwar.com के रउआ आपन ब्लाग में जोड देले बानी, इ देख के मिजाज हरियर हो गइल.
    आलोक

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  4. राह से राह निकलती है, आलोक भाई। बस आप हरे भरे बने रहें, यही प्रार्थना है ईश्वर से।
    सस्नेह,
    पंकज

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