मंगलवार, 12 अगस्त 2008

अमेरिका से आमंत्रण! बहुत बहुत धन्यवाद!



गतांक से आगे

(कैसे बनी भोले शंकर? - 5)

सबसे पहले धन्यवाद उन सुधी पाठकों का जिन्होंने फिल्म भोले शंकर की मेकिंग पढ़कर हमें ईमेल किए। अमेरिका से शैलेश मिश्र जी का और ब्रिटेन से रोमउजद्दीन (वर्तनी में गलती हो तो अभी से माफी, क्योंकि मेल में ज्यादा साफ समझ आया नहीं) का निमंत्रण आया है कि फिल्म भोले शंकर को वहां भी रिलीज़ किया जाए। इस बारे में मैं जल्द ही अपने प्रोड्यूसर से बात करूंगा और फैसले से भोजपुरी प्रेमियों को अवगत कराउंगा। वैसे भी हमें भोले शंकर के खास शो करने के लिए दुबई और मॉरीशस से भी भोजपुरी प्रेमियों के स्नेह निमंत्रण मिल चुके हैं। जैसा कि आप सब जानते हैं कि ऐसे हर आयोजन में प्रायोजक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, और बात केवल आने जाने के टिकट और रहने की व्यस्था की ही नहीं होती, बल्कि और भी तमाम चीज़ें देखनी होती हैं। ख्वाहिश तो मेरी यही है कि अपनी फिल्म के मुख्य कलाकारों के साथ मैं दुनिया के उन सभी स्थानों पर फिल्म भोले शंकर के खास शोज़ करूं, जहां भोजपुरी प्रेमियों की बस्तियां हैं, बाकी भोले भंडारी की मर्जी।

धन्यवाद, उन प्रकाशकों का भी जिन्होंने भोले शंकर की मेकिंग को पुस्तक स्वरूप में छापने की मंशा जाहिर की है। लोगों ने जो जानकारी चाही तो वो भी मैं यहीं अँजोरिया के माध्यम से ही सार्वजनिक करना उचित समझता हूं कि ऐसे किसी भी प्रयास से मेरा मकसद धन लाभ कतई नहीं है। ये कोशिश है तो बस भोजपुरी सिनेमा को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के करीब लाने की और ये बताने की भोजपुरी सिनेमा में भी ऐसे काम किए जा सकते हैं, जो अब तक हिंदी तो क्या किसी दूसरी भाषा में नहीं किए गए। हिंदी सिनेमा में किसी फिल्म की मेकिंग पर पुस्तकें छापने की परंपरा रही है। शाह रुख खान की इस तरह के प्रयासों में खास दिलचस्पी रहती है, लेकिन भोजपुरी में अभी तक ऐसी कोई कोशिश हुई नहीं है। मेरा पक्का भरोसा है कि मेकिंग ऑफ भोले शंकर को जितना प्यार और जितना स्नेह अँजोरिया पर मिल रहा है, उतना ही दुलार इसके पुस्तक स्वरूप को भी ज़रूर मिलेगा। आखिर कौन भोजपुरी प्रेमी होगा ऐसा जो भोजपुरी सिनेमा की पहली मेकिंग को अपने कॉफी टेबल बुक पर नहीं संजोना चाहेगा।

वाराणसी से रवि शुक्ला ने लिखा है कि किसी फिल्म की मेकिंग को शायद किसी वेबसाइट पर दैनिक कॉलम के रूप में लिखे जाने की ये पहली कोशिश है। रवि भाई, कोशिश को सराहने के लिए कोटि कोटि धन्यवाद। दरअसल भोजपुरी के नाम पर मीडिया मे इधर इतना रायता फैल चुका है कि समझ ही नहीं आता कि सच क्या है और झूठ क्या? लेकिन कहते हैं ना कि हिम्मत करे इंसान तो क्या काम है मुश्किल। और, फिर अपनी ही फिल्म के संस्मरण लिखने से ऐसा लगने लगा है कि जैसे सब कुछ आंखों के सामने दोबारा हो रहा हो।

मुझे याद है कि पिछले बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान जब मैंने ज़ी न्यूज़ के लिए वोट फॉर खदेरन और वोट फॉर चौधरी नाम के दो कार्यक्रम बनाने की ज़िम्मेदारी ली थी, तब भोजपुरी सिनेमा का पुनर्जीवन बस हुआ ही था। दिल्ली के महादेव रोड स्थित फिल्म्स डिवीज़न ऑडीटोरियम में संयोग वश फिल्म ससुरा बड़ा पइसा वाला देखने का मौका मिला, और ये समझ आया कि अगर लोक अंचलो में प्रचलित रीति रिवाजों को ध्यान में रखते हुए भोजपुरी में कोशिश की जाए, तो इस भाषा में मनोरंजन का बड़ा बाज़ार बन सकता है। किसी नेशनल चैनल पर बना वोट फॉर खदेरन देश का पहला भोजपुरी कार्यक्रम है। इसका कार्यकारी निर्माता, लेखक और सीरीज़ निर्देशक होने के नाते ये मुझे ही तय करना था कि इसे होस्ट कौन करे। वोट फॉर चौधरी के लिए मनीष मखीजा (पूजा भट्ट के पति और चैनल वी के पूर्व वीजे ऊधम सिंह) का नाम पहली बार में ही फाइनल हो गया था, बस तलाश थी तो खदेरन की। खदेरन नाम दरअसल एक मशहूर नाटक लोहा सिंह का किरदार है।

इस किरदार को जीने के लिए चाहिए था, एक ऐसा कलाकार जो भोला हो, मासूम हो और लोगों के दिल की बात उनके चेहरे पढ़कर समझ लेता हो। और ससुरा बड़ा पइसा वाला देखने के बाद इसके लिए मुझे बिल्कुल फिट लगे- मनोज तिवारी। वाराणसी में अपने सहयोगी अजय मिश्र को मैंने मनोज तिवारी की तलाश के काम में लगाया और दो दिन बाद ही मनोज तिवारी का मेरे पास फोन आ गया कि भैया कैसे याद किया? मनोज तिवारी की गायिकी का कद्रदान मैं हुआ था कॉलेज के दिनों में आकाशवाणी पर उनका एक गीत 'एमए में लेके एडमीशन कंपटीशन दे ता' सुनकर। मनोज तिवारी को भी वोट फॉर खदेरन का कॉन्सेप्ट अच्छा लगा। सबकुछ समझा बुझा कर मनोज तिवारी को बिहार के गांवों में भेजा गया और मनोज तिवारी ने अपने हुनर और अपनी वाकपटुता से इस पूरे कार्यक्रम को एक बहुत ही दिलचस्प कलेवर दे दिया। उन दिनों मनोज तिवारी की एक फिल्म का गाना - गाड़ के झंडा आइ गइल हो जहां गए संसार में- मैंने मुंबई में सुना था, इसी गाने की धुन को वोट फॉर खदेरन की मोंटाज ट्यून बनाया गया। वोट फॉर खदेरन का असर ये हुआ कि ना सिर्फ ये गाना सुपरहिट हो गया बल्कि मनोज तिवारी की ये फिल्म भी सुपर हिट हो गई। केवल 25 हज़ार रूपये में ससुरा बड़ा पइसा वाला करने वाले मनोज तिवारी इसी प्रोग्राम के बाद भोजपुरी के सुपर स्टार हो गए। आज वो टीवी पर चक दे जैसा सुपर हिट शो करते हैं और हर दिन की फीस लाखों में लेते हैं। लेकिन ना वो वोट फॉर खदेरन को आज तक भूले हैं और ना पंकज शुक्ल को। एक सुपर स्टार का ये बड़प्पन भी है और कृतज्ञता की पहचान भी। जिस किसी ने भी अब तक भोले शंकर के रशेज़ देखे हैं, वो यही कहता है कि भोले शंकर मनोज तिवारी के लिए एक और वोट फॉर खदेरन साबित होगी। बाकी छोटे भाई की तरह भोले शंकर की शूटिंग के दौरान मनोज तिवारी तंग भी मुझे करते रहे, लेकिन बड़े भाई के नाते मैंने कभी उनकी किसी शरारत का बुरा नहीं माना। हर कलाकार का अपना एक मूड होता है और अपनी शोहरत को जीने के कुछ साल होते हैं। और, शोहरत के शिखर पर पहुंचकर सुपर स्टार अगर अपने सुपर स्टार होने का एहसास ना कराए, तो शायद लोग उसे सुपर स्टार मानें भी ना। वैसे अपनी गलती का एहसास होने पर तुरंत माफी मांग लेना अच्छे इंसान की पहली निशानी है, और मनोज तिवारी कम से कम इस पैमाने पर भोजपुरी के दूसरे बाकी कलाकारों से कई दर्जे अच्छे इंसान हैं। आज वादा था कि मनोज तिवारी के फिल्म भोले शंकर के संगीत में योगदान पर चर्चा करनी थी, लेकिन बात कहां से शुरू हुई और कहां पहुंच गई। खैर वादा तो वादा है और निभाना भी पड़ेगा। तो इस विषय पर चर्चा अगले अंक में...आज बस इतना ही।

कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल

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