रविवार, 31 अगस्त 2008

असल बनाम बनावटी


भोले शंकर (12). गतांक से आगे...

भोले शंकर की शूटिंग जैसे ही लखनऊ के करीब लुधमऊ गांव में शुरू हुई, पूरी जवार में हल्ला हो गया। शूटिंग देखने आने वालों की भीड़ जुटनी शुरू हो गई। मुंबई से पहुंची क्रू ने भी पहले दो दिन खूब सवाल किए कि आखिर इसी जगह शूटिंग क्यों? ये काम तो हम कहीं भी कर सकते थे। कहीं भी से उनका मतलब था उन जगहों से जहां इन दिनों ज़्यादातर फिल्मों की शूटिंग होती है। मुंबई के पास कहीं वसई का कोई तालाब, या विरार में हाईवे से थोड़ा हटकर कोई गांव, बहुत हुआ तो गुजरात का राजपीपला या उससे भी ज़्यादा हुआ उससे थोड़ा और आगे निकल गए।

मैंने भोले शंकर बनाने का फैसला लेने के बाद और फिल्म की शूटिंग शुरू करने से पहले लगातार बिला नागा कोई बीसेक भोजपुरी फिल्में देख डालीं। मैं फिल्म देखता था तो किरदारों पर कम और उनके आसपास के माहौल पर मेरा ध्यान ज़्यादा रहता था। मैं देखकर हैरान होता था कि आखिर भोजपुरी के नाम पर ये क्या हो रहा है। हीरो धोती पहने है तो उसे ये भी नहीं पता कि कांच कैसे बांधी जाती है। जनेऊ डाले हैं तो ये पता नहीं कि किस कंधे के ऊपर जनेऊ होता है और किसके नीचे, दीवार पर स्वास्तिक का चिन्ह बना है तो उल्टा, हीरोइन कीचड़ से होकर भागती है तो गांव में है, और गाना गाती है तो ऐसी जगह आ जाती है जहां पेड़ पौधे सब पहली नज़र में दिखावटी नज़र आते हैं। वही राजपीपला की हवेली, वही हवेली के आगे का अहाता, वही पार्क और वही झील वही पहाड़। कहीं किसी भी छोर से ना तो यूपी का रहन सहन और ना ही पटना- छपरा का रहन सहन। घास तक लंबी पत्तियों वाली नज़र आती है। ना ज़मीन पर दूब और ना ही गलियों में नीम निमकौरे। सिनेमा में वातावरण या कहें कि एंबिएंस...ही दर्शकों को बांधे रखता है। लेकिन, भोजपुरी में सब चलता है ना इन सारी फिल्मों का बेड़ा गर्क कर दिया। कहानी में दम ना हो, म्यूज़िक के नाम पर बस शोर शराबा हो तो भला कितना भी बड़ा हीरो क्यों ना हो, फिल्म चलती नहीं है।

खैर, मैं बात कर रहा था लुधमऊ गांव की, जहां कि हमने फिल्म भोले शंकर की शूटिंग शुरू की थी। फिल्म भोले (मनोज तिवारी) और शंकर (मिथुन चक्रवर्ती) के बचपन का रोल दो बाल कलाकारों शिवेंदु और उज्जवल ने किया है। दिसंबर की शुरूआत में कितनी कड़ाके की ठंड पड़ती है, ये तो यूपी बिहार का बच्चा बच्चा जानता है। दो दिसंबर को हम लोगों को वो सीन शूट करना था जिसमें सरपंच रात ढले इन बच्चों की मां पर बुरी नज़र डालता है। कड़ाके की ठंड में हो रही शूटिंग में दोनों बच्चे बस एक पैंट शर्ट पहने थे और नंगे पैर थे। हम सभी ने दो दो स्वेटर और जैकेट डाल रखे थे, लेकिन गरीबी के हालात दिखाने की गरज से दोनों बच्चों को मैं ऊनी कपड़े नहीं पहना सकता था। पास में ही अलाव का इंतज़ाम था और दोनों बच्चे शुरू में शॉट देकर सीधे आग के पास जा बैठते। लेकिन हर शॉट के बाद कैमरामैन को मॉनीटर के पास आकर कुछ देखना शिवेंदु को अपनी तरफ खींच गया। अगली बार शॉट ओके हुआ तो ये बच्चा आग के पास ना जाकर सीधे मॉनीटर के पास आया। बिना किसी से कुछ बोले सीन को फिर से देखता रहा। अगला सीन लगा। कैमरामैन राजू केजी ने फ्रेम संभाला। असिस्टेंट करन त्रिपाठी ने क्लैप बोर्ड हाथ में लिया। मैंने शबनम कपूर, नरेंद्र पजवानी और दोनों बच्चों को आखिरी बार फ्रेम में एंट्री और एक्जिट समझाई और आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया। सारे कलाकारों को अपना काम पता था, लेकिन जैसा कि अमूमन फिल्मों की शूटिंग के दौरान होता है, कोई ना कोई चीफ असिस्टेंट डायरेक्टर या कैमरामैन कलाकारों को फिर से ज्ञान देने ही लगता है, ये दिखाने के लिए कि देखो डायरेक्टर ने जो समझाया वो तो ठीक, लेकिन जब तक हम नहीं बताएंगे तो काम नही होने वाला। लेकिन यहां पासा उलटा पड़ गया।

हुआ यूं कि हमेशा अपनी रौ में रहने वाले राजू केजी ने दोनों बच्चों को फ्रेम में जो एंट्री समझाई वो मेरी बताई एंट्री से उलटी थी। और यही शिवेंदु ने उन्हें पकड़ लिया, बोला अंकल पिछली बार मैं राइट टू कैमरा एक्जिट हुआ था इस बार एंट्री लेफ्ट टू कैमरा ही होगा ना कि राइट टू कैमरा। इस बारह साल के बच्चे ने जो बोला, उसे सुनते ही पूरे माहौल में सन्नाटा छा गया। इतनी तकनीकी भाषा तो अच्छे अच्छे कलाकार भी सालों के बाद बोलते हैं और वो भी शूटिंग का पूरा ग्राफ समझकर। इस बच्चे का अभी तीसरा ही दिन शूटिंग का और उसने राजू केजी जैसे कैमरामैन की चूक पकड़ ली। राजू भाई खुद हैरान थे कि यार ये लड़का कितना होशियार है। सीन खत्म होने के बाद सारे तकनीशियन्स ने शिवेंदु को अपने पास बुलाकर बातचीत शुरू की और बातों बातों में ही समझ लिया कि शिवेंदु को फिल्ममेकिंग सीखने का बड़ा शौक है। शिवेंदु अभी क्लास 6 में है, और एनीमेशन बनाने का शौकीन है। कंप्यूटर के कैमरे से शूट करके और कंप्यूटर पर ही खुद एडिट करके तीन मिनट की फिल्म वो अपने आप बना चुका है। कहते हैं कि पूत के पांव पालने में दिखाई देते हैं, ये लड़का भी आगे जाकर कमाल कर सकता है। शूटिंग के अगले दिन हुआ कौन सा कमाल, जानने के लिए पढ़ते रहिए कैसे बनी भोले शंकर..?

कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

लखनऊ के लिए प्रस्थान


भोले शंकर (11). गतांक से आगे...

मुंबा देवी की नाराज़गी ही वजह रही होगी कि हम लोग फिल्म भोले शंकर की शूटिंग 21 नवंबर से मुंबई में नहीं कर पाए। उस दिन फिल्म के निर्माता गुलशन भाटिया मेरे और अपने बेटे गौरव के साथ मिथुन दा से मिलने उनके घर मड आइलैंड गए। मिथुन दा भी दुखी थे कि वो चाहकर भी भोले शंकर की शूटिंग नहीं कर पा रहे हैं। उन्होंने उनके और डॉक्टर सुनील के बीच हुए करार के सारे पेपर्स दिखाए, हालांकि इसकी ज़रूरत नहीं थी। लेकिन मिथुन चाहते थे कि हम उन्हें गलत ना समझें। उन्होंने पूरे मामले से जुड़ा एक एक पुर्जा दिखाया। उन सारी बातों का चूंकि भोले शंकर की मेकिंग से ज़्यादा लेना देना नहीं है, इसलिए उनके विस्तार में जाना ठीक नहीं। भाटिया जी थोड़ा परेशान थे क्योंकि मैंने मिथुन से अब तक कोई लिखित करार नहीं किया था, मुझे तो मिथुन दा की ज़ुबान की अहमियत मालूम थी, लेकि भाटिया जी के दिल की बात मैंने फिर भी उनसे कह ही दी। एग्रीमेंट मैं भाटिया जी के कहने पर पहले से ही बना कर लाया था। मिथुन दा की महानता देखिए कि एसोसिएशन के बैन के बावजूद उन्होंने इस एग्रीमेंट पर तुरंत साइन कर दिए और वो भी बिना एक भी लाइन पढ़े। मैंने भाटिया जी की तरफ देखा, उनके चेहरे पर संतोष और हैरानी के मिले जुले भाव थे। मैंने बाद में मिथुन दा के घर से निकलने पर उन्हें बताया कि इंडस्ट्री में ज़ुबान की कीमत ज़्यादा होती है और कागज़ की कम। और ये बात भाटिया जी भी अब मानने लगे हैं।

मिथुन के घर से निकले तो अगला काम था लखनऊ शेड्यूल को सही वक़्त पर शुरू करना। ज़ी न्यूज़ में मेरे सहयोगी रहे गौरव द्विवेदी के लखनऊ में एक दोस्त हैं विशाल कोहली। और कोहली साहब के दोस्त पांडे जी का लखनऊ के करीब गांव लुधमऊ में एक बहुत बड़ा फार्म हाउस है, इसकी विशालता का अंदाज़ा आप बस इसी बात से लगा सकते हैं, कि गोमती नदी इस फार्म हाउस के बीच से बहती है। पांडे जी इटावा के रहने वाले हैं और बड़े ही मानवतावादी इंसान है। इन्हीं के सेवा एग्रीकल्चरल फार्म और आस पास के गांवों में भोले शंकर की शूटिंग पहली दिसंबर से शुरू होनी थी। सो मिथुन दा के घर से निकलने के बाद भाटिया जी और गौरव तो अपने घर चले गए, मैं जा बैठा वापस ऑफिस में। करीब 70 लोगों की टीम को लखनऊ पहुंचाना, उनके रहने का इंतजाम करना और फिर लखनऊ में सारी चीज़ें ठीक ढंग से चलती रहें, इसका इंतजाम करना था। आगे बढ़ने से एक बात आपको और बता दूं, अगर आपको फिल्म मेकिंग में ज़रा सी भी दिलचस्पी है, तो एक बात हमेशा गांठ बांधकर रखिए, कि यहां बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता। मतलब कि जो कुछ भी करना है आपको ही करना है, बाकी सब लगता है जैसे काम बिगाड़ने ही आए हैं। खासतौर से अगर प्रोडक्शन देखने वाला बेइमान निकल जाए, तो फिर भगवान ही बेड़ा पार लगा सकता है। मौके की ताड़ में हर कोई यहां रहता है, मुंबई में ऑटो से सफर करने वाला भी शूटिंग पर एसी गाड़ी मागेगा और घर में चाहे पंखा भी ना हो, शूटिंग पर एयर कंडीशंड कमरा ही मांगेगा। जी हां, भोजपुरी सिनेमा में भी हिंदी फिल्मों की बुराइयां धीरे धीरे आ रही हैं।

खैर, शूटिंग से दो दिन पहले मैं लखनऊ पहुंच गया। गड़बड़ ये हो गई कि रहने की जगह और शूटिंग की लोकेशन में दूरी थोड़ी ज़्यादा थी, और जब हम शूटिंग कर रहे थे तब तक कोहरा पड़ना भी शुरू हो गया तो सुबह 7 बजे की शिफ्ट भी नौ बजे तक शुरू करने के लिए सूरज देवता का इंतज़ार करना पड़ता था। पहले दिन की शूटिंग में कुछ स्थानीय कलाकारों की ज़रूरत थी। गांव के सरपंच के लिए मुझे कन्हैया लाल जैसा कमीनापन दिखा सकने वाला कलाकार नरेंद्र पजवानी में मिला और भोले और शंकर के बचपन के रोल के लिए तय हुए शिवेंदु और उज्ज्वल के नाम। पारवती के बचपन का रोल लखनऊ की ही एक बाल कलाकार बेबी निष्ठा ने निभाने की बात मान ली।

वैसे तो हमने तय किया था कि शूटिंग एक दिसंबर को ही शुरू करेंगे और हमने ये इस लिहाज से तय किया था कि यूनिट 30नवंबर की शाम तक हर हाल मं लखनऊ पहुंच ही जाएगी। लेकिन बलिहारी रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव की कि ट्रेनें इन दिनों राइट टाइम चलने लगी हैं। पूरी यूनिट लखनऊ में 30 नवंबर की सुबह सुबह ही पहुंच गई तो मैने आनन फानन फैसला किया कि शूटिंग एक दिन पहले ही शुरू कर देते हैं। फिल्मों की शूटिंग आगे खिसकने के किस्से तो मुंबई से आई क्रू ने खूब सुने थे, लेकिन शूटिंग तय तारीख से पहले शुरू होने का मौका वो पहली बार देख रहे थे। लेकिन मैं तारीफ करना चाहूंगा यहां पूरी यूनिट की- एक एक लाइट मैन और एक एक स्पॉट ब्वॉय की जिन्होंने दिन रात कंधे से कंधा मिलाकर फिल्म की शूटिंग में मदद की।

भोले शंकर का पहला शॉट गांव लुधमऊ में लोक विश्राम के पावन काल में 30 नवंबर को नरेंद्र पजवानी, शबनम कपूर, मास्टर शिवेंदु और मास्टर उज्ज्वल पर फिल्माया गया। संयोग से फिल्म का भी ये पहला सीन है। पहले सीन के ज़्यादातर शॉट्स हमने पहले दिन फिल्माए। भोजपुरी फिल्मों में शॉट डिवीज़न को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती है। और निर्माता निर्देशकों की कोशिश यही रहती है कि फिल्म जितने कम से कम शॉट्स में बना दी जाए वही बेहतर। कलाकार भी इसमें खुश रहते हैं क्योंकि उन्हें मेहनत कम करनी होती है। लेकिन, एक निर्देशक को ये बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि भाषा हिंदी हो या भोजपुरी या कोई और, उसे अपनी कला के साथ समझौता नहीं करना चाहिए। क्या कोई गायक सिर्फ इसलिए बेसुरा गा सकता है कि वो हिंदी फिल्म का नहीं भोजपुरी का गाना गा रहा है? भोले शंकर की मेकिंग किसी भी मामले में किसी हिंदी फिल्म से उन्नीस नहीं रखने का फैसला मैंने शूटिंग शुरू होने के पहले से ले रखा था। अब इस पर अमल करने का वक़्त आ चुका था। बाकी अगले अंक में, पढ़ते रहिए कइसे बनल भोले शंकर?

कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

वो काली रात...


भोले शंकर (10). गतांक से आगे

फिल्म भोले शंकर के क्लाइमेक्स से ठीक पहले भोले और शंकर दोनों भाइयों में जमकर तनातनी होती है और इस धमाकेदार सीन में भोले (मनोज तिवारी) एक डॉयलॉग बोलता हैं, " भइया उ कालिख रात के हमहूं नइखी भूला पइनी, हम इहो मानअ तानी कि ओकर मार सबसे ज्यादा तहरा भुगते के पड़अल, लेकिन भइया तू जवन रास्ता पर चलअ तारअ, ओकर अंत त फेन ओइसने नू होइ। भइया, बस तू छोड़ द, हमहूं इ गीत संगीत के विदा ले तानी, चलअ गांवे खेती कइल जाइ, चलअ छोड़अ इ सब।"

लेकिन, आप लोगों को एक राज़ की बात बताना चाहता हूं और वो ये कि इस फिल्म की शूटिंग से पहले एक काली रात मुझे भी जागते हुए बितानी पड़ी और वो थी 20 नवंबर की रात। दरअसल हुआ यूं कि हमने 21 नवंबर से फिल्म भोले शंकर की शूटिंग मुंबई के कमालिस्तान स्टूडियो में रखी थी। सारी तैयारियां भी उसी लिहाज से चलती रहीं। लाखों रुपये ड्रेस और बाकी चीज़ों पर खर्च हो चुके थे। और 19 नवंबर को मिथुन चक्रवर्ती ने मुंबई पहुंचते ही धमाका किया कि वो फिल्म की शूटिंग नहीं कर सकते। आप समझ सकते हैं कि ऐसी स्थिति में फिल्म के प्रोड्यूसर और डायरेक्टर की क्या हालत हो सकती है? गलती मिथुन दा की भी नहीं थी, पूर्वी भारत की जिस फिल्म संस्था के सम्मानित पदाधिकारी थे, उसी संस्था ने किसी भी बांग्ला कलाकार पर भोजपुरी या मैथिली फिल्म में काम न करने का आदेश जारी कर दिया था।

पूरी गड़बड़ी दरअसल उसी समय शुरू हो गई थी, जब मिथुन चक्रवर्ती की एक हिट बांग्ला फिल्म कुली को भोजपुरी में डब करके रिलीज़ कर दिया गया। बस झगड़ा बढ़ता गया। पहले निर्माताओं और वितरकों की बिहार की एक संस्था ने मिथुन दा और उनके परिजनों की फिल्मों को बिहार और झारखंड में रिलीज़ ना होने देने का ऐलान किया और बदले में आ गया पूर्वी भारत की संस्था का फऱमान। और इन दो संस्थाओं की नाक की लड़ाई का पहला शिकार हुई फिल्म भोले शंकर। 20 नवंबर को पूर दिन हम लोग शूटिंग की तैयारियों को छोड़ मिथुन चक्रवर्ती को शूटिंग के लिए राज़ी करने की कोशिशों में लगे रहे। मिथुन दा उस दिन एम्पायर स्टूडियो में अपने बेटे मिमोह की फिल्म जिमी के किसी गाने की रिकॉर्डिंग में व्यस्त थे। हम लोग वहीं पहुंचे, दादा ने बस एक शर्त रखी कि अगर बिहार और झारखंड की संस्था उन पर लगाया बैन सशर्त वापस ले ले तो वो कोलकाता की संस्था से बात करके मामला खत्म करा देंगे और अगले दिन से भोले शंकर की शूटिंग शुरू हो जाएगी।

बिहार और झारखंड मोशन पिक्चर्स एसोसिएशन के माई बाप कहे जाने वाले डॉक्टर सुनील ही ऐसा कर सकते थे, और मेरा इससे पहले उनसे कोई परिचय भी नहीं था। एक दो शुभचिंतकों ने सलाह भी दी कि सीधे डॉक्टर सुनील को फोन कीजिए और वो इतने नेक इंसान हैं कि किसी निर्माता का नुकसान नहीं होने देंगे। लेकिन मैंने इस मामले में मनोज तिवारी की मदद लेना उचित समझा। मनोज तिवारी ने मामले की गंभीरता को देखते हुए पूरा किस्सा अपने हाथ में ले लिया। डॉक्टर सुनील को उन्होंने फोन भी किया और ये भी कहा कि शाम तक मिथुन दा और उनके परिजनों पर बिहार झारखंड में लगे बैन को वो हटवा देंगे और इस बारे में फैक्स भी मंगवा लेंगे। मैंने यही बात मिथुन दा को बताई, वो अपना काम खत्म करके घर जा चुके थे, लेकिन जाने से पहले वो अपने करीबी विजय उपाध्याय को हमारे दफ्तर में बिठा गए, ये कहकर कि अगर मेरे पास फैक्स आ जाए तो विजय उन्हें इत्तला करेंगे और वो अगले दिन आठ बजे कमालिस्तान पहुंच जाएंगे शूटिंग करने।

सूरज ढल गया, रात घिर आई, तारे निकल आए, लेकिन फैक्स नहीं आया। थोड़ी देर बाद मनोज तिवारी भी दफ्तर आ गए। वो भी हमारी परेशानी में बराबर परेशान दिखे। गुलशन भाटिया जी कहां तो अपनी पहली फिल्म के पहले दिन की शूटिंग के लिए दिल्ली से आए थे, और कहां गले पड़ गई ये मुसीबत। मनोज तिवारी ने एक दो फोन और किए और फिर मुझे खुद लगने लगा कि बात बन नहीं पाएगी। लिहाजा मैंने भाटिया जी से सलाह ली कि हम लोग मुंबई का शेड्यूल कैंसल कर देते हैं और अगले शेड्यूल की तैयारी करते हैं। फिल्म का अगला शेड्यूल मुंबई का शेड्यूल खत्म करते ही एक दिसंबर से लखनऊ में था। मैंने कहा कि जब तक हम लखनऊ में शूटिंग करेंगे तब तक मामला शायद निपट जाए। भाटिया जी और मनोज तिवारी दोनों को मेरी सलाह ठीक लगी और आधी रात के बाद करीब दो बजे हम लोग दफ्तर से निकले सुबह की शूटिंग कैंसिल करने का फैसला लेकर। घर पहुंचकर नींद कहां आनी थी, बस सोचता रहा कि आखिर वजह क्या है, क्या ईश्वर इम्तिहान ले रहा है। कहते हैं कि ईश्वर कुछ भी देने से पहले परीक्षा ज़रूर लेता है। अब लगता है कि शायद ऐसा ही था। हरिवंश राय बच्चन ने अपने बेटे अमिताभ को नैनीताल के शेरवुड स्कूल में एक सीख दी थी, "मन का हो तो अच्छा ना हो तो और भी अच्छा।" इस लाइन का फलसफा समझने का वक्त एक बार और सामने था। वो काली रात शायद मैं भी कभी भूल नहीं पाऊंगा। अंजोरियो होने को थी, लेकिन नींद ना जाने कहां खो चुकी थी। आज बस इतना ही, अगले अंक में भोले शंकर की शूटिंग के पहले दिन के बारे में कुछ बातें।

कहा सुना माफ़,
पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर

रविवार, 24 अगस्त 2008

तैयारी शूटिंग की


भोले शंकर (8), गतांक से आगे...

गानों की रिकॉर्डिंग खत्म होते ही हम लोग जुट गए फिल्म की शूटिंग की तैयारियों में। इस पूरी फिल्म में अगर किसी एक शख्स ने दिन रात लगातार मेरे कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया तो वो हैं मेरे सहायक मनोज सती। मनोज से मेरा परिचय मेरे एक अभिन्न मित्र श्रीनिवासन रामचंद्रन ने कराया, जिन्हें प्यार से हम लोग रामा कहकर बुलाते हैं। रामा उन दिनों टीवी चैनल ज़ूम का चेहरा मोहरा ठीक करने में लगे हुए थे, और जिस फिल्म पर वो काम कर रहे थे, उसके शुरू होने में अभी देर थी। मनोज सती उन दिनों रामा के ही साथ थे, और रामा के कहने पर वो मेरे साथ आ गए। मनोज सती एक अच्छे टेकनीशियन हैं और उससे भी अच्छे इंसान हैं। यश चोपड़ा के संपादक रहे नरेश मल्होत्रा जब निर्देशक बने तो मनोज सती उनके ही साथ थे। और मनोज की सलाह पर ही फिल्म में आए कैमरामैन राजू केजी। राजू केजी के पिताजी यश चोपड़ा के खास कैमरामैन रहे हैं और राजू ने भी यशराज बैनर में रहते हुए कैमरे की कीमियागिरी करीब से सीखी है। इन दोनों के साथ आ जाने के बाद मेरा बोझ काफी हल्का हुआ। ज़ी न्यूज़ में बतौर प्रोड्यूसर काम कर रहे अजय आज़ाद भी तब तक फिल्म से जुड़ चुके थे। अजय के जिम्मे एक ही काम था और वो ये कि फिल्म के कलाकारों की भोजपुरी पर नज़र रखना। आप शायद ये पढ़कर हैरान होंगे, लेकिन शूटिंग से काफी पहले जब एक दिन मनोज तिवारी हमारे ऑफिस आए, तो अजय वही थे। उनकी पहली प्रतिक्रिया यही थी कि मनोज तिवारी की भोजपुरी शुद्ध भोजपुरी नहीं है और हमें अपनी फिल्म में भोजपुरी भाषा को शुद्ध ही रखना चाहिए। इसी के बाद अजय के जिम्मे सारे कलाकारों की बोली पर नज़र रखने का काम सौंपा गया जो उन्होंने बखूबी अंजाम भी दिया। अजय को फिल्म में मैंने एक छोटा सा रोल भी दिया है, अजय काबिल कलाकार हैं और मौका मिले तो राजपाल यादव जैसे कलाकारों की छुट्टी कर सकते हैं।

फिल्म की तकनीकी टीम की सेलेक्शन की जिम्मेदारी कार्यकारी निर्माता की होती है, और इसके लिए मनोज सती ने सुझाया अपने एक करीबी मित्र मुकेश शर्मा का नाम। मुकेश ने शूटिंग शुरू होने से पहले जो काम किया और शूटिंग के दौरान जो काम किया, उसके बारे में बाद में कभी विस्तार से लिखूंगा। फिलहाल के लिए इतना ही काफी है कि वो अकेले शख्स हैं, जिन्हें फिल्म की शूटिंग खत्म होती ही सबसे पहले मैंने बाहर का रास्ता दिखाया। एक बार तकनीकी टीम सेट हो गई तो काम शुरू हुआ फिल्म की कास्टिंग पर। उन दिनों ऑफिस में कलाकारों का तांता लगा रहता था। लेकिन मेरे दिमाग में फिल्म के किरदारों के लिए कुछ नाम पहले से ही थे। भोले के रोल में मनोज तिवारी और शंकर के रोल में मिथुन चक्रवर्ती का नाम तो पहले दिन से तय था। फिल्म के बाकी अहम किरदार हैं फिल्म की हीरोइन गौरी, भोले से एकतरफा प्यार करने वाली रंभा, भोले का दोस्त- संतराम, भोले और शंकर की मां, भोले के गुरुजी और भोले की बचपन की दोस्त पार्वती।

सबसे पहले हमने तलाश शुरू की गौरी की। गौरी के लिए मुझे एक ऐसी लड़की चाहिए थी, जो दिखने में बिल्कुल मिडिल क्लास की लड़की लगे, लेकिन जिसके चेहरे पर तेज़ होना चाहिए, ऐसा इसलिए क्योंकि फिल्म में उसका दमदार किरदार है। भोले शंकर की कहानी का हर किरदार अपने आप में मुकम्मल किरदार है और उसे कहानी में स्थापित होने के लिए हीरो के सहारे की ज़रूरत नहीं होती। गौरी एक आत्मसम्मानी लड़की है, नौकरीपेशा है और अपने भाई और मां की जिम्मेदारी संभालती है। निरहुआ रिक्शावाला की सीक्वेल बताई जा रही श्रीमान ड्राइवर बाबू में निरहुआ के अपोजिट दो लड़कियां हैं- मोनालिसा और वृषाली वांभरे (जो शायद किसी और नाम से भोजपुरी फिल्में करती हैं)। वृषाली का पर्सेनेसिलिटी गौरी के किरदार के करीब करीब ही थी। वृषाली ने बताया कि वो श्रीमान ड्राइवर बाबू में लीड रोल कर रही हैं, इसके बाद उनका ऑडीशन हुआ और हमने उनका सेलेक्शन भी कर लिया। एग्रीमेंट तक साइन हो गया। लेकिन, फिल्म की रिलीज़ होते ही पता चला कि फिल्म में मेन लीड वृषाली का नहीं मोनालिसा का है। ये पता लगने पर मैंने वृषाली को फोन किया। फोन पर वृषाली ने तमाम दलीलें दी, लेकिन मुझे झूठ बोलने वालों से शुरू से सख्त नफरत रही है। बिना देर किए मैंने वृषाली को बाहर किया और मोनालिसा को दफ्तर मिलने बुलवाया। मोनालिसा के बारे में हिंदी सिनेमा में लोग जो भी कहते हों, लेकिन पहली ही मुलाकात में मुझे लगा कि ये लड़की अदाकारा अच्छी है। और वक्त की पाबंद भी। इसी मीटिंग के बाद फिल्म भोले शंकर की हीरोइन हो गईं मोनालिसा। गुरुजी के किरदार में राजेश विवेक को लिया गया, जिनको मैंने ज़ी न्यूज़ के कार्यक्रम होनी अनहोनी में बतौर टीवी एंकर मौका दिया था। राजेश विवेक ने अपना करियर शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन से शुरू किया था। फिल्म जोशीले में वो मुख्य खलनायक थे। बाद के दिनों में उन्हें आपने लगान और स्वदेश जैसी फिल्मों में भी देखा। संतराम के रोल के लिए गोपाल के सिंह को साइन किया गया। गोपाल को आपने राम गोपाल वर्मा की तमाम फिल्मों में देखा होगा। फिल्म ट्रेफिक सिगनल में उन्होंने उस भिखारी का रोल किया था, जो वैसे तो अच्छे कपड़े पहनकर घूमता है और गर्लफ्रेंड के साथ मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखता है, लेकिन सिगनल पर कपड़े उतारकर भीख मांगता है। मां के रोल के लिए शबनम कपूर का नाम फाइनल हुआ। पारवती के लिए किसी लड़की का सेलेक्शन अब तक नहीं हो पाया था। हमें चाहिए थी एक ऐसी लड़की जो देखने में बिल्कुल गांव की लगे। बहुत माथापच्ची के बाद मेघना पटेल और निराली नामदेव पर आकर बात अटक गई और फिल्म के हीरो मनोज तिवारी का वोट गया निराली के पक्ष में।

सब कुछ तय हो गया तो हम बैठ गए फिल्म का शेड्यूल बनाने के लिए। तय हुआ कि फिल्म का मुहूर्त सेट पर ही 21 नवंबर 2007 को मुंबई के कमालिस्तान स्टूडियो में किया जाएगा। पहला शॉट मनोज तिवारी और मिथुन चक्रवर्ती पर लिया जाना था। दोनों कलाकारों ने करीब महीने भर पहले ही डेट्स भी फाइनल कर दीं। और हमने उसी हिसाब से स्टूडियो, लाइट्स, कैमरा, गाड़ियां और बाकी सारी चीज़ें बुक कर दीं। सबके कॉस्ट्यूम्स भी बनकर तैयार हो गए. सीनवार, शिफ्टवार शेड्यूल भी बन गया। शूटिंग की तारीख जैसे जैसे करीब आ रही थी, मेरी धड़कनें तेज़ हो रही थीं। आखिर टीवी के लिए भले दो हज़ार घंटे से ज़्यादा के प्रोग्राम में बना चुका था, पर फिल्म तो पहली ही थी। और, फिर 15 नवंबर को आया मिथुन चक्रवर्ती का फोन? दादा ने बताया कि वो 19 नवंबर को मुंबई पहुंच रहे हैं, शूटिंग के लिए उन्होंने अपनी तरफ से पूरी तैयारी बताई, लेकिन साथ ही जोड़ दिया पुछल्ला कि शायद कुछ दिक्कत भी हो सकती है। क्या थी वो दिक्कत? और किस विवाद ने नवंबर महीने में लगा दी मुंबई में भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग पर पाबंदी? इस पर बात अगले अंक में। पढ़ते रहिए- कैसे बनी भोले शंकर ?

कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

मौली की मस्ती, उज्जयनी की उड़ान



भोले शंकर (8) गतांक से आगे...

गायक से अभिनेता बने किसी कलाकार की फिल्म के संगीत की बात हो और उससे ज़्यादा चर्चा दूसरे गायकों की जाए, तो कई बार ये अजीब सा भी लगता है और फिल्म के हीरो का मूड भी खराब कर सकता है। लेकिन, "भोले शंकर" के हीरो मनोज तिवारी के साथ ऐसा नहीं है। मनोज ने हमेशा नए कलाकारों को बढ़ावा दिया है और अभी पिछली बार ही वो बता रहे थे कि कैसे किंग फिशर एयरलाइंस की एक एयर होस्टेस के मंशा ज़ाहिर करने पर उन्होंने उसे भोजपुरी सिनेमा में काम करने का न्यौता दे डाला। अपने हनुमान बिपिन बहार को भी मनोज एक्टर बना चुके हैं। अच्छे चेहरों की उन्हें अच्छी पहचान है। खैर, हम बात कर रहे हैं फिलहाल "भोले शंकर" के संगीत की। वैसे हिंदी फिल्मों में भी ऐसा होता है, लेकिन आप भोजपुरी की बात करो तो सामने वाला गीतकार और संगीतकार छूटते ही पूछेगा, "आइटम सॉन्ग में किसे ले रहे हैं।" और ये सवाल पूछते समय उसके चेहरे के भाव ऐसे होंगे कि अगर आप शरीफ हुए तो तुरंत धरती के चार फिट नीचे चले जाएंगे, शर्म के मारे। ऐसा एक भी शख्स मुझे अब तक मिलना बाकी है, जिसने भोजपुरी फिल्म की बात चलने पर आइटम सॉन्ग की बात ना छेड़ी हो मानो भोजपुरी सिनेमा और आइटम सॉन्ग एक दूसरे के पर्यायवाची हों। हालांकि सिनेमा होता ही मनोरंजन के लिए लेकिन मनोरंजन के नाम पर भड़ैती और फूहड़ता मेरे गले नहीं उतरती। मेरा मानना है कि सही फिल्म वही (अगर आप यू सर्टिफिकेट के साथ बना रहे हैं) है, जो ससुर व बहू और पिता और बेटी एक साथ बैठकर देख सकें।

"भोले शंकर" बनाते वक्त एक बात मैंने पहले दिन से तय कर ली थी कि ये फिल्म राजश्री संस्कृति के ज़्यादा करीब होगी और भले ही मस्ती के लिए इसमें गाना हो लेकिन वो आइटम सॉन्ग तो कतई नहीं होगा। फिल्म "भोले शंकर" में मनोज तिवारी के साथ तीन लड़कियां हैं। मेन लीड में मोनालिसा, पैरलल लीड में लवी रोहतगी और स्पेशल एपीयरेंस में निराली नामदेव। मोनालिसा, जिनकी हिंदी फिल्मों में छवि एक बोल्ड अभिनेत्री की रही है, को "भोले शंकर" में एक मिडिल क्लास की घरेलू लड़की के तौर पर पेश किया गया है और मिर्च मसाला के लिए फिल्म में हैं लवी रोहतगी। लवी का किरदार उस हॉस्टल के वार्डन की लड़की का है, जहां रहकर भोले शहर में पढ़ाई करता है। और लवी के हिस्से में आया है फिल्म का सबसे मस्ती भरा गाना। ये आइटम गाना इसलिए नहीं है क्योंकि सिर्फ इस गाने के लिए लवी फिल्म में नहीं है। उनका पूरी फिल्म में खास रोल है और ये रोल है रंभा का जो भोले पर पहली ही नज़र में मर मिटी है। कॉलेज फंक्शन में भोले को चिढ़ाने के लिए रंभा गाना गाती है और इसके बोल हैं, "दिल के हाल बताई कइसे, किस्मत के मारी, अनाड़ी हमका मिला रे बालमा।" गाने के बोल और इसके पिक्चराइजेशन में मैंने इस बात का पूरा ख्याल रखा कि ये गाना किसी तरह से फूहड़ ना लगे। एक तो गाने की सिचुएशन के हिसाब से गाना कॉलेज में सारे स्टूडेंट्स और कॉलेज स्टाफ के सामने हो रहा है दूसरे जिम्मेदारी अनावश्यक अंग प्रदर्शन से हीरोइन को बचाने की भी थी।

इस गाने के बोल के लिहाज से मुझे सारेगामापा फाइनलिस्ट मौली दवे की आवाज़ बिल्कुल फिट लगी। गानों की रिकॉर्डिंग जब हमने शुरू की, तो मौली भारत में नहीं थीं। उनके घर में किसी बुजर्ग का इंतकाल हो चुका था और वो मातम में शरीक़ होने अमेरिका गई हुई थीं। मौली को जल्द ही वर्ल्ड टूर पर निकलना था और हमें जल्द से जल्द गानों की रिकॉर्डिंग करनी थी ताकि शूटिंग पर निकला जा सके। भोले शंकर का गाना गाने के लिए मौली अमेरिका से आईं, और दाद देनी होगी इस कलाकार की जिसने पूरी रिकॉर्डिंग के दौरान एक बार भी ये नहीं लगने दिया कि उसके घर में अभी अभी कोई हादसा हुआ है। मौली की आवाज़ में एक अलग सी कशिश है। उसकी आवाज़ रेशमी सी है और यही बात हमें इस गाने के लिए चाहिए थी। मौली जिस दिन भोले शंकर का गाना गाने स्टूडियो में आईं, उस दिन जगजीत सिंह जी भी अपने स्टूडियो में आए हुए थे। मौली को देखकर वो भी खुश हुए। और उसके गाने की खुलकर तारीफ भी की। मुझे पूरा यकीन है कि जब "भोले शंकर" में आप मौली की आवाज़ सुनेंगे तो आपको भी लगेगा कि वाकई ये लड़की हीरा है, ज़रूरत है तो बस कुछ और जौहरियों की, जो इसे थोड़ा और तराश सकें। "भोले शंकर" में मैंने मौका दिया तो उसके बाद मौली को कई और भोजपुरी गानों का भी मौका मिला। और अब तो वो भोजपुरी के लिए नियमित तौर पर गा रही हैं।

सारेगामापा की ही एक और फाइनलिस्ट उज्जयनी ने भी फिल्म "भोले शंकर" के एक गाने में अपनी आवाज़ दी है। और उज्जयनी के लिए हमने करीब एक हफ्ते का इंतज़ार भी किया। लेकिन उज्जयनी ने इस इंतज़ार के नतीजे को अपनी मधुर गायिकी से एक मीठे फल में तब्दील कर दिया। सारेगामापा के चार कलाकारों को अपनी फिल्म में मौका देकर मैंने इन बच्चों के लिए एक नई राह खोली है, "भोले शंकर" शायद पहली फिल्म बन गई है जिसमें सारेगामापा के इतने कलाकार एक साथ गा रहे हैं। इन बच्चों ने उड़ान तो सही ली है, अब बस इन्हें लगातार उड़ते रहना है और नज़र जमाए रखनी है अच्छे संगीत और अच्छे गीतों पर। फिल्म "भोले शंकर" की संगीत यात्रा आज सातवें दिन विराम लेती है। संगीत के भी सात सुर होते हैं और ये भी अजब संयोग है कि फिल्म के संगीत की बात भी हमने सात दिनों में ही जान समझ ली, अब कल से शुरुआत होगी कैमरे के कारीगरों के कमाल की। पढ़ते रहिए, कइसे बनल भोले शंकर।

कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर

सोमवार, 18 अगस्त 2008

तोरी मरजी है क्या बता दे बिधना रे...


भोले शंकर (7)गतांक से आगे..

मनोज तिवारी ने "भोले शंकर" में कुछ और भी बहुत उम्दा गीत गाए हैं। लेकिन, मनोज तिवारी और मोनालिसा पर फिल्माया गया रोमांटिक गीत - "केहू सपना में अचके जगा के" प्यार में खोए प्रेमियों के लिए सावन की फुहारें लेकर आएगा। और, इस गीत में मनोज तिवारी के लिए अपनी आवाज़ दी है मशहूर गायक उदित नारायण ने। अगर फिल्म में मेरे फेवरिट गाने की बात करें तो मुझे पसंद है फिल्म का वो विरह गाना जो पूनम ने गाया है। सारेगामापा फाइनलिस्ट रहीं पूनम की निज़ी ज़िंदगी के बारे में सुनकर मैंने अपनी पत्नी को कई बार घर में रोते देखा है। पूनम को प्लेबैक सिंगिंग के लिए कई लोगों ने वादे किए, लेकिन कितने पूरे हुए, इस बारे में ना तो कभी ज़ी टीवी ने कुछ भी बताने की कोशिश की और ना ही कभी मीडिया में कहीं कोई चर्चा सुनाई दी। पूनम का आवाज़ में दर्द बहुत है, कुछ तो जीवन के संघर्ष का और कुछ उसकी आवाज़ पर ऋचा शर्मा का असर का। "भोले शंकर" के संगीत पर चर्चा के दौरान ही मैंने पूनम का नाम उस गाने के लिए संगीतकार धनंजय मिश्रा को सुझाया, जो फिल्म का टर्निंग प्वाइंट है। भोले की बचपन की दोस्त पारवती की पूरी जवानी की कहानी इस गाने में दूसरे सिरे पर पहुंच जाती है। पूनम की गायिकी के बारे में बात करने से पहले कुछ बातें इस गीत को लिखने के बारे में भी बताता चलूं।

गीतकार बिपिन बहार ने जितनी मेहनत फिल्म के ओपनिंग सॉन्ग "रे बौराई चंचल किरनिया" के लिए की है, उससे कम मेहनत इस गाने के लिए भी नहीं हुई। मैंने बिपिन को समझाना शुरू किया। धनंजय मेरा मुंह ताक रहे हैं। मैंने बिपिन को बताया, "पारवती ने बस अभी अभी भोले को बरसों बाद देखा है। भोले बचपन में शहर जाते समय लड़कई में उससे बोले जाता है, "ए पारवती, जब हम पढ़ लिख लेम, त तोहरा से बियाह करब"। बस पारवती उसी दिन से भोले की याद में गुम है। भोले लौटता है, तो पारवती के घर पर उसकी शादी कहीं और किए जाने की बात चल रही है। दोनों संस्कारी घरों से हैं और जैसा कि अक्सर गांवों में होता है, दोनों में से कोई घरवालों का विरोध नहीं कर पाते। पारवती की शादी तय हो चुकी है। वो रात के अंधेरे में भगवान से अपने दिल का दर्द सुना रही है। गाने का ये पहला हिस्सा है। दूसरे हिस्से में आते आते हमें पारवती की शादी होते हुए दिखानी है। और तीसरे हिस्से में हमें पारवती की विदाई दिखानी है। शॉट कुछ यूं होगा कि कैमरा गांव से बाहर निकलती डोली को कैच करता है, उसे फॉलो करते हुए आगे बढ़ता है और जैसे ही डोली फ्रेम से आउट होती है, कैमरा पैन करते हुए दूर एक टीले पर खड़े भोले को कैच करता है। भोले वहां पारवती को दिलासा देने वाला गाना गा रहा है।"

बिपिन बहार पूरा नरेशन सुनने के बाद आधा घंटा तक कुछ बोले नहीं। फिर बोले, "भइया, इ कइसन होई।" मैंने कहा, "काहे ना होई।" मैंने पूरे गाने का स्टोरी बोर्ड बिपिन को फिर से समझाया। इस बार एक एक एक्शन और उसके भाव के साथ में। अब तक शांत बैठे रहे धनंजय मिश्रा के चेहरे के भाव इस बार बदलने लगे। उनके हाथों में जुंबिश हुई और मुंह से कुछ राग निकले, और साथ ही निकला गाने का पहला बोल- "तोरी मरजी है क्या, बता दे बिधना रे...., काहे मोरा पिया ना मिला...ना मिला रे...काहे मोरा पिया ना मिला।" बस इसके बाद तो जैसे बिपिन बहार को राह मिल गई। भाई ने तीन दिन में गाना लिख डाला। लेकिन आखिरी हिस्से पर आकर वो अब भी अटके हुए थे। बोले, "भइया इ बताइं, भोले को पारवती से प्यार था कि नहीं।" मैंने कहा, "जिस उमर में हमने भोले और पारवती को साथ खेलते दिखाया। उस उमर में बच्चे प्यार का मतलब समझते हैं क्या? गांव की लड़की है, बस किसी सयाने पर दिल हार बैठी। लेकिन भोले को इसका इल्म तक नहीं। हां, मां कुछ इशारा करती है तो बात उसकी समझ में आती है। लेकिन तब तक देर हो चुकी है। तो भोले क्या गाएगा?" बिपिन बहार फिर चुप, "भोले क्या गाएगा?"

दो दिन तक माथा पच्ची चलती रही। और फिर निकले बोल- "किस्मत ना बा अपना हाथ में, खुश रहे तू सजनवा के साथ में।" मनोज तिवारी वैसे तो उछल कूद वाले गाने ही खूब गाते हैं, लेकिन फिल्म में मैंने उनसे दो जगह दर्द भरे नगमे गवाए हैं। पहला तो ये और दूसरा जब वो मुंबई में होते हैं और ज़िंदगी के सबसे बड़े इम्तिहान से दो चार होते हैं। और मेरा वादा है कि मनोज तिवारी की आवाज़ का इतना बेहतरीन इस्तेमाल अभी तक उनकी किसी फिल्म में नहीं हुआ है। जिस गाने की ऊपर हम बात कर रहे हैं, उसकी शुरुआत पूनम के गाने से होती है। लखनऊ की इस लड़की को अपनी फिल्म में मौका देकर एक तरह से मैंने और धनंजय ने उत्तर प्रदेश के कलाकारों को बढ़ावा देने की अपनी अघोषित नीति को आगे बढ़ाया और पूनम ने भी अपना दिल उड़ेल कर रखा दिया है इस गाने में। गाने के बोल बहुत मार्मिक हैं और इतना ही मार्मिक है इसका पिक्चराइजेशन। पूनम तुम यूं ही जगमगाती रहो। वैसे एक दिलचस्प बात भी आपको मैं बताना चाहता हूं। जैसा कि गांव- गलियों की लड़कियों के साथ अक्सर होता है, वैसे ही पूनम भी अब तक मुंबई की चकाचौंध देखकर घबरा जाती हैं। स्टूडियो में रिकॉर्डिंग की बात चलते ही नर्वस हो जाती हैं। ऐसे में संगीतकार के हाथ पांव फूलने ही लगते हैं। मैंने दोनों को हिम्मत बंधाई और तब जाकर ये गाना रिकॉर्ड हुआ। मौली और उज्जयनी की बात अब भी रह गई, खैर इन दोनों नगीनों की बात कल पक्की रही।

कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल
निर्देशक-भोले शंकर

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

मनोज तिवारी की 'मृदुलता'



भोले शंकर (6)गतांक से आगे..
गायकों के अभिनेता बनने की परंपरा भारतीय सिनेमा में बहुत पुरानी है। के एल सहगल हों या किशोर कुमार, सुरैया हों या मुकेश कोई कैमरे के सामने आने के आकर्षण से खुद को बचा नहीं पाया। नई पीढ़ी की बात करें तो सोनू निगम से लेकर पलाश सेन, लकी अली, वसुंधरा दास, हरभजन मान और यहां तक कि अब अदनान सामी भी हीरो बनने को तैयार हैं। इन सबने गायिकी में शोहरत के सोपान चढ़ने के बाद अदाकारी की तरफ छलांग लगाई। भोजपुरी गायक मनोज तिवारी का नाम भी इसी कड़ी में आता है। मनोज तिवारी ने जो भी कमाया है, अपनी मेहनत और अपनी काबिलियत के बूते कमाया है। गांव देहात के रीति रिवाज वो अब भी मानते हैं, बड़ों को पैलगी करना और सम्मान करना इस कलाकार की सबसे बड़ी खूबी है। भोजपुरी सिनेमा को दोबारा जीवन दान किसने दिया, इसे लेकर अक्सर बड़े बड़े दावे होते रहते हैं, लेकिन एक बात तो सबको माननी ही पड़ेगी, कि ससुरा बड़ा पइसावाला की कमाई ही वो दांव था जिसने तमाम निर्माताओं की तिजोरियां भोजपुरी सिनेमा के लिए खुलवा दीं। हिंदी सिनेमा के बड़े बड़े अभिनेताओं ने भी उन्हीं भोजपुरी फिल्मों में काम करने के लिए हामी भरी जिनमें से ज़्यादातर में मनोज तिवारी हीरो थे। ये फिल्में मनोज तिवारी को कैसे मिलीं? इस पर ना भी जाया जाए, तो कम से कम मनोज तिवारी के भोजपुरी सिनेमा के विकास में योगदान को नकारा नहीं जा सकता।

फिल्म भोले शंकर की मेकिंग की शुरुआत हमने इसके म्यूज़िक की बात से की थी। पूरी फिल्म में नौ गाने हैं, और ऐसा शायद पहली बार हुआ कि मनोज तिवारी की फिल्म में आधे से ज्यादा गानों में दूसरे कलाकारों को मौका मिला है। और पाठकों को ये जानकर आश्चर्य हो सकता है कि भोले शंकर के गानों को लेकर मनोज तिवारी से बस और बस एक बार ही सिटिंग हुई। वैसे तो गीतकार बिपिन बहार को भोजपुरी सिनेमा में मनोज तिवारी का हनुमान माना जाता है, लेकिन फिल्म भोले शंकर में बिपिन बहार भी खिसक कर डायरेक्टर के पाले में आ गए। फिल्म के एक एक गाने पर बिपिन बहार खूब कसे गए और कहते हैं कि तबला या ढोलक जितनी कसी होती है, आवाज़ भी उसकी उतनी ही दमदार निकलती है। मनोज तिवारी के सुपरहिट गाने 'एम ए में लेके एडमीशन कंपटीशन दे ता' को मैं फिल्म भोले शंकर में शामिल करने की योजना तब से बनाए था, जब इसकी कहानी बस फाइनल ही हुई थी। लेकिन, इस गाने की सिचुएशन और सीन का मूड देखकर मनोज तिवारी ने इसकी बजाय अपना एक और गाना मुझे सुझाया। मनोज तिवारी का मान मैंने रखा और बजाय अपनी पसंद का गाना रखने के मनोज तिवारी की पसंद का गाना ही फिल्म में रखा। हालांकि बाद में मुझे पता चला कि जिस गाने की सिफारिश मैंने अपनी फिल्म के लिए की थी, वो गाना मनोज तिवारी ने किसी और फिल्म के लिए दे दिया है, उस दिन मुझे बहुत आत्मिक कष्ट भी हुआ। मैंने ये बात अपने एक दो करीबी लोगों से साझा भी की। लेकिन, जब मनोज तिवारी का बताया गया दूसरा गाना बनकर तैयार हुआ, तो दिल को तसल्ली हुई। और वो इसलिए क्योंकि गाना यही बेहतर बन पड़ा है।
नौकरी के लिए भटकते युवाओं के इस पसंदीदा गाने - 'दौड़त धूपत चप्पल जूता फाट गइले भाईजी, नौकरिया नहीं मिलल मन उदास भइले भाईजी' - से जुड़ी हर बात दिलचस्प है। वैसे तो जब इस गाने को आप सुनेंगे तो लगेगा कि इसका म्यूज़िक वाकई शानदार है और गाना सुनकर ये भी लगेगा कि इसकी रिकॉर्डिंग लाइव यानी फुल आर्केस्ट्रा के साथ की गई है। लेकिन आपको ये जानकर हैरानी होगी, कि जब मनोज तिवारी ने ये गाना रिकॉर्ड किया तब इसका म्यूज़िक तैयार ही नहीं हुआ था। संगीतकार धनंजय मिश्रा ने पूरा गाना क्लिक पर रिकॉर्ड किया और मनोज तिवारी की रिकॉर्डिंग हो जाने के बाद इसका संगीत तैयार किया। यही नहीं, इस गाने की शूटिंग का भी किस्सा बहुत दिलचस्प है। जिस दिन लखनऊ के इंटरनेशन सेंटर फॉर स्पेशल एजूकेशन में ये गाना शूट होना था, उस दिन किसी बात को लेकर मनोज तिवारी का मूड खराब हो गया। हमें रात में घुप्प अंधियारा होने के बाद हॉस्टल में इसकी शूटिंग करनी थी। ठंड उस दिन कड़ाके की पड़ रही थी और कॉन्टीन्यूटी के हिसाब से मनोज को केवल शर्ट पैंट पहन कर गाना रिकॉर्ड करना था। लाइटिंग हो गई, साथी कलाकार तैयार हो गए। मनोज तिवारी को बुलाया गया। मनोज आए और आते ही बोले इतनी ठंड में शूटिंग नहीं कर पाऊंगा। तुरंत उनके लिए थर्मल इनर वियर का इंतजाम कराया गया। ये इंस्टीट्यूट लखनऊ से बिल्कुल बाहर है और रात दस बजे इसका इंतजाम कैसे हुआ, ये बात बस हम लोग ही जानते हैं।

अब बारी आई शूटिंग की। कैमरामैन राजूकेजी ने पहले शॉट के लिए क्रेन वगैरह लगाकर पूरी तैयारी कर ली थी। कोरियोग्राफर रिक्की भी बाकायदा अपने स्टेप्स वगैरह के साथ तैयार थे। तभी मेरे और मनोज के बीच एक आइडिया उपजा। मेरा मानना था कि ये गाना पूरी तरह फ्री स्टाइल होना चाहिए, बिल्कुल कैंपस की रॉ अपील के साथ। लेकिन इसके लिए स्टेडीकैम की ज़रूरत पड़ती और वो उस समय लखनऊ में मिलना मुमकिन नहीं था। एरी 3 जैसे वजनी कैमरे को कंधे पर रखकर शूटिंग करना आसान नहीं होता और शायद कोरियोग्राफर व कैमरामैन इसके लिए तैयार भी नहीं होते। लेकिन मेरी परेशानी को मनोज तिवारी ने एक पल में भांप लिया। भोजपुरी सिनेमा का ये शायद पहला गाना होगा, जिसकी कोरियोग्राफी मनोज तिवारी ने खुद की। मनोज तिवारी ने मुझसे मॉनीटर पर जाकर बैठने को कहा, और पूरे गाने की कमान अपने हाथ में ले ली। कोरियोग्राफर रिक्की समझ ही नहीं पाया कि ये क्या हो रहा है। मैंने कहा बस जो हो रहा है उसे शूट करते जाओ। यूनिट का हर सदस्य परेशान कि मनोज तिवारी को ये क्या हो गया। क्यों वो कोरियोग्राफर की बात नहीं सुन रहे। बस जो हो रहा था वो मैं जानता था और जानते थे मनोज तिवारी।

गाने की शूटिंग खत्म हुई। अगले दिन से मनोज तिवारी का लखनऊ में काम खत्म था। यूनिट के ज़्यादातर लोग इस बात को लेकर चर्चा करते रहे कि मनोज तिवारी ने जो किया वो ठीक नहीं किया। मैंने तब जाकर सबको बताया कि ये सब पूरी प्लानिंग के तहत हुआ। हम लोगों ने मुंबई आकर गाना एडिट किया और फिल्म की तकनीकी टीम ने जब इसका फाइनल वर्जन देखा तो हर कोई दंग रह गया। ऐसा कैंपस सॉन्ग अब तक भोजपुरी में तो क्या हिंदी सिनेमा में भी कम ही देखने को मिला है। आज बस इतना ही, कल बात मौली, पूनम यादव और उज्जयनी की।

कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर

मंगलवार, 12 अगस्त 2008

अमेरिका से आमंत्रण! बहुत बहुत धन्यवाद!



गतांक से आगे

(कैसे बनी भोले शंकर? - 5)

सबसे पहले धन्यवाद उन सुधी पाठकों का जिन्होंने फिल्म भोले शंकर की मेकिंग पढ़कर हमें ईमेल किए। अमेरिका से शैलेश मिश्र जी का और ब्रिटेन से रोमउजद्दीन (वर्तनी में गलती हो तो अभी से माफी, क्योंकि मेल में ज्यादा साफ समझ आया नहीं) का निमंत्रण आया है कि फिल्म भोले शंकर को वहां भी रिलीज़ किया जाए। इस बारे में मैं जल्द ही अपने प्रोड्यूसर से बात करूंगा और फैसले से भोजपुरी प्रेमियों को अवगत कराउंगा। वैसे भी हमें भोले शंकर के खास शो करने के लिए दुबई और मॉरीशस से भी भोजपुरी प्रेमियों के स्नेह निमंत्रण मिल चुके हैं। जैसा कि आप सब जानते हैं कि ऐसे हर आयोजन में प्रायोजक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, और बात केवल आने जाने के टिकट और रहने की व्यस्था की ही नहीं होती, बल्कि और भी तमाम चीज़ें देखनी होती हैं। ख्वाहिश तो मेरी यही है कि अपनी फिल्म के मुख्य कलाकारों के साथ मैं दुनिया के उन सभी स्थानों पर फिल्म भोले शंकर के खास शोज़ करूं, जहां भोजपुरी प्रेमियों की बस्तियां हैं, बाकी भोले भंडारी की मर्जी।

धन्यवाद, उन प्रकाशकों का भी जिन्होंने भोले शंकर की मेकिंग को पुस्तक स्वरूप में छापने की मंशा जाहिर की है। लोगों ने जो जानकारी चाही तो वो भी मैं यहीं अँजोरिया के माध्यम से ही सार्वजनिक करना उचित समझता हूं कि ऐसे किसी भी प्रयास से मेरा मकसद धन लाभ कतई नहीं है। ये कोशिश है तो बस भोजपुरी सिनेमा को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के करीब लाने की और ये बताने की भोजपुरी सिनेमा में भी ऐसे काम किए जा सकते हैं, जो अब तक हिंदी तो क्या किसी दूसरी भाषा में नहीं किए गए। हिंदी सिनेमा में किसी फिल्म की मेकिंग पर पुस्तकें छापने की परंपरा रही है। शाह रुख खान की इस तरह के प्रयासों में खास दिलचस्पी रहती है, लेकिन भोजपुरी में अभी तक ऐसी कोई कोशिश हुई नहीं है। मेरा पक्का भरोसा है कि मेकिंग ऑफ भोले शंकर को जितना प्यार और जितना स्नेह अँजोरिया पर मिल रहा है, उतना ही दुलार इसके पुस्तक स्वरूप को भी ज़रूर मिलेगा। आखिर कौन भोजपुरी प्रेमी होगा ऐसा जो भोजपुरी सिनेमा की पहली मेकिंग को अपने कॉफी टेबल बुक पर नहीं संजोना चाहेगा।

वाराणसी से रवि शुक्ला ने लिखा है कि किसी फिल्म की मेकिंग को शायद किसी वेबसाइट पर दैनिक कॉलम के रूप में लिखे जाने की ये पहली कोशिश है। रवि भाई, कोशिश को सराहने के लिए कोटि कोटि धन्यवाद। दरअसल भोजपुरी के नाम पर मीडिया मे इधर इतना रायता फैल चुका है कि समझ ही नहीं आता कि सच क्या है और झूठ क्या? लेकिन कहते हैं ना कि हिम्मत करे इंसान तो क्या काम है मुश्किल। और, फिर अपनी ही फिल्म के संस्मरण लिखने से ऐसा लगने लगा है कि जैसे सब कुछ आंखों के सामने दोबारा हो रहा हो।

मुझे याद है कि पिछले बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान जब मैंने ज़ी न्यूज़ के लिए वोट फॉर खदेरन और वोट फॉर चौधरी नाम के दो कार्यक्रम बनाने की ज़िम्मेदारी ली थी, तब भोजपुरी सिनेमा का पुनर्जीवन बस हुआ ही था। दिल्ली के महादेव रोड स्थित फिल्म्स डिवीज़न ऑडीटोरियम में संयोग वश फिल्म ससुरा बड़ा पइसा वाला देखने का मौका मिला, और ये समझ आया कि अगर लोक अंचलो में प्रचलित रीति रिवाजों को ध्यान में रखते हुए भोजपुरी में कोशिश की जाए, तो इस भाषा में मनोरंजन का बड़ा बाज़ार बन सकता है। किसी नेशनल चैनल पर बना वोट फॉर खदेरन देश का पहला भोजपुरी कार्यक्रम है। इसका कार्यकारी निर्माता, लेखक और सीरीज़ निर्देशक होने के नाते ये मुझे ही तय करना था कि इसे होस्ट कौन करे। वोट फॉर चौधरी के लिए मनीष मखीजा (पूजा भट्ट के पति और चैनल वी के पूर्व वीजे ऊधम सिंह) का नाम पहली बार में ही फाइनल हो गया था, बस तलाश थी तो खदेरन की। खदेरन नाम दरअसल एक मशहूर नाटक लोहा सिंह का किरदार है।

इस किरदार को जीने के लिए चाहिए था, एक ऐसा कलाकार जो भोला हो, मासूम हो और लोगों के दिल की बात उनके चेहरे पढ़कर समझ लेता हो। और ससुरा बड़ा पइसा वाला देखने के बाद इसके लिए मुझे बिल्कुल फिट लगे- मनोज तिवारी। वाराणसी में अपने सहयोगी अजय मिश्र को मैंने मनोज तिवारी की तलाश के काम में लगाया और दो दिन बाद ही मनोज तिवारी का मेरे पास फोन आ गया कि भैया कैसे याद किया? मनोज तिवारी की गायिकी का कद्रदान मैं हुआ था कॉलेज के दिनों में आकाशवाणी पर उनका एक गीत 'एमए में लेके एडमीशन कंपटीशन दे ता' सुनकर। मनोज तिवारी को भी वोट फॉर खदेरन का कॉन्सेप्ट अच्छा लगा। सबकुछ समझा बुझा कर मनोज तिवारी को बिहार के गांवों में भेजा गया और मनोज तिवारी ने अपने हुनर और अपनी वाकपटुता से इस पूरे कार्यक्रम को एक बहुत ही दिलचस्प कलेवर दे दिया। उन दिनों मनोज तिवारी की एक फिल्म का गाना - गाड़ के झंडा आइ गइल हो जहां गए संसार में- मैंने मुंबई में सुना था, इसी गाने की धुन को वोट फॉर खदेरन की मोंटाज ट्यून बनाया गया। वोट फॉर खदेरन का असर ये हुआ कि ना सिर्फ ये गाना सुपरहिट हो गया बल्कि मनोज तिवारी की ये फिल्म भी सुपर हिट हो गई। केवल 25 हज़ार रूपये में ससुरा बड़ा पइसा वाला करने वाले मनोज तिवारी इसी प्रोग्राम के बाद भोजपुरी के सुपर स्टार हो गए। आज वो टीवी पर चक दे जैसा सुपर हिट शो करते हैं और हर दिन की फीस लाखों में लेते हैं। लेकिन ना वो वोट फॉर खदेरन को आज तक भूले हैं और ना पंकज शुक्ल को। एक सुपर स्टार का ये बड़प्पन भी है और कृतज्ञता की पहचान भी। जिस किसी ने भी अब तक भोले शंकर के रशेज़ देखे हैं, वो यही कहता है कि भोले शंकर मनोज तिवारी के लिए एक और वोट फॉर खदेरन साबित होगी। बाकी छोटे भाई की तरह भोले शंकर की शूटिंग के दौरान मनोज तिवारी तंग भी मुझे करते रहे, लेकिन बड़े भाई के नाते मैंने कभी उनकी किसी शरारत का बुरा नहीं माना। हर कलाकार का अपना एक मूड होता है और अपनी शोहरत को जीने के कुछ साल होते हैं। और, शोहरत के शिखर पर पहुंचकर सुपर स्टार अगर अपने सुपर स्टार होने का एहसास ना कराए, तो शायद लोग उसे सुपर स्टार मानें भी ना। वैसे अपनी गलती का एहसास होने पर तुरंत माफी मांग लेना अच्छे इंसान की पहली निशानी है, और मनोज तिवारी कम से कम इस पैमाने पर भोजपुरी के दूसरे बाकी कलाकारों से कई दर्जे अच्छे इंसान हैं। आज वादा था कि मनोज तिवारी के फिल्म भोले शंकर के संगीत में योगदान पर चर्चा करनी थी, लेकिन बात कहां से शुरू हुई और कहां पहुंच गई। खैर वादा तो वादा है और निभाना भी पड़ेगा। तो इस विषय पर चर्चा अगले अंक में...आज बस इतना ही।

कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल

सोमवार, 11 अगस्त 2008

मिथुन की आवाज़- शैलेंद्र सिंह


भोले शंकर (4)
गतांक से आगे..

फिल्म भोले शंकर में एक बहुत ही मार्मिक छठ गाना भी है। ये गीत फिल्म में उस वक्त आता है, जब शंकर (मिथुन चक्रवर्ती) बीस साल बाद अपनी मां से मुंबई में मिलता है और मां छठ मैया से मांगी गई मन्नत पूरी होने की बात करती है। शंकर और मां के मिलन का सीन फिल्म के चुनिंदा दृश्यों में से है, और मैं पहले से ही माफी मांग लेता हूं क्योंकि इसे देखने के बाद घर की मां-बहनें रो ना पड़े, ऐसा हो नहीं हो सकता। मिथुन दा से जब फिल्म भोले शंकर की कहानी को लेकर चर्चा हो रही थी, तभी उनको मैंने बताया कि फिल्म का एक गाना उन पर भी पिक्चराइज़ किया जाना है। मिथुन दा वैसे तो अब भी हिंदी फिल्मों में लटके झटके दिखाते रहते हैं, लेकिन भोले शंकर में उन पर फिल्माया गया गाना बहुत ही साधारण तरीके से और मां- बेटे के प्रेम को दर्शाते हुए फिल्माया गया है।

गाने के भाव सुनकर मिथुन ने पूछा कि इसे गाएगा कौन? मेरे मुंह से छूटते ही जवाब निकला- शैलेंद्र सिंह। फिल्म बॉबी (मैं शायर तो नहीं, मुझे कुछ कहना है...आदि उनके फिल्म बॉबी के मशहूर गाने हैं) से हिंदी सिनेमा में मशहूर हुए शैलेंद्र सिंह ने बाद में मिथुन चक्रवर्ती के लिए ढेरों हिट गीत गाए। फिल्म तराना में मिथुन के लिए गाए शैलेंद्र सिंह के सारे गाने हिट रहे थे। उनमें से 'गुंजे लगे हैं कहने, फूलों से गीत चुना है तराना प्यार का, कहता है दिल आके मिल ओ मेरी तनहा ना बीत जाए दिन बहार का...' गाना आज भी मिथुन के चाहने वालों को याद होगा। मिथुन दा खुद शैलेंद्र सिंह को अपना खास मानते हैं। उन्होंने तुरंत फोन निकाला और शैलेंद्र सिंह को फोन किया। फोन लगा नहीं तो मिथुन ने सोचा शायद नंबर बदल गया होगा। फिर उन्होंने अपने करीबी शशि रंजन (जिनकी फिल्म धूम धड़ाका हाल ही में रिलीज़ हुई है) को फोन किया। शशि रंजन ने बताया कि शैलेंद्र सिंह शायद दुबई गए हुए हैं। खैर, मिथुन ने संदेश छोड़ा कि वो एक फिल्म कर रहे हैं और उसमें एक बहुत ही इमोशनल गाने की सिचुएशन है, जिसे फिल्म के डायरेक्टर उनसे गवाना चाहते हैं।

दिन बीत गए। लेकिन शैलेंद्र सिंह का पता नहीं चला। इस बीच संगीतकार धनंजय मिश्रा भी शैलेंद्र सिंह की खोजबीन लेते रहे। इसी बीच मेरे एक मित्र ने बताया कि शैलेंद्र सिंह लौट आए हैं और इनदिनों किसी टीवी सीरियल में ऐक्टिंग कर रहे हैं। मैंने पहले धनंजय से ही फोन करने को कहा। मिथुन का नाम सुनते ही शैलेंद्र सिंह की बांछे खिल गईं। फिर रिकॉर्डिंग का दिन तय हुआ। शैलेंद्र सिंह तय समय पर स्टूडियो पहुंचे और गाना रिकॉर्ड किया, जिसके बोल कुछ इस तरह से हैं।

माई के ममता एतना पावन
जैसे गंगा के पानी
माई के करजा कबहूं ना उतरे
बेद औ ग्रंथ के बानी ....

गाते गाते शैलेंद्र सिंह खुद भाव विभोर हो गए। उस दिन मनोज तिवारी को मैंने खास तौर से स्टूडियो बुलाया हुआ था। अपने अपने फन के माहिर दो दिग्गज गायकों का संगम हुआ। शैलेंद्र सिंह से मिलकर मनोज तिवारी भी काफी खुश हुए। किसी भोजपुरी फिल्म के लिए शैलेंद्र सिंह का ये पहला गाना था और भगवान ना करे कि आखिरी भी हो, क्योंकि शैलेंद्र सिंह तकरीबन गायिकी को अलविदा कह चुके हैं। फिल्म भोले शंकर के लिए भी ये गाना उन्होंने सिर्फ इसलिए गाया क्योंकि इसे मिथुन चक्रवर्ती पर फिल्माया जाना था। इस गाने में मां के लिए उत्तर प्रदेश की मशहूर लोक गायिका मालिनी अवस्थी ने आवाज़ दी है। मालिनी अवस्थी को किसी नेशनल चैनल पर लाइव गाने का मौका मैंने ज़ी न्यूज़ में रहते हुए दिया था, और ये उनकी प्रतिभा का सही सम्मान भी था। मालिनी जी का स्नेह ही था कि वो ये गाना गाने खास तौर से दिल्ली से मुंबई आईं और वो भी अपने पति अवनीश अवस्थी के साथ। अवनीश जी उत्तर प्रदेश शासन में बहुत ही सीनियर आईएएस अफसर हैं। लेकिन, मालिनी जी में इस बात का रंच मात्र भी कहीं कोई अभिमान नहीं दिखा। जैसे बौर आने पर पेड़ झुक जाते हैं, वैसे ही ख्याति होने पर सच्चा कलाकार विनम्र होता जाता है। मालिनी अवस्थी और शैलेंद्र सिंह दोनों इसकी मिसाल हैं। कलाकारों का ये बड़प्पन आज के उन कलाकारों के लिए सीख है, जो ज़रा सा नाम होते ही खुद को दूसरों का नियंता मानने लगते हैं। फिल्म भोले शंकर के गीतों में मशहूर गायक मनोज तिवारी के 'योगदान' पर चर्चा कल करेंगे।


कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर

शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

जिया तोसे लागा रे...


भोले शंकर (3)
गतांक से आगे....

विनय बिहारी जो काम नहीं कर सके, वो काम एक उभरते गीतकार बिपिन बहार ने किया। बिपिन इतने नए गीतकार भी नहीं हैं, लेकिन वो अब तक वही लिखते रहे हैं, जो उनसे मांगा गया। भोले शंकर फिल्म की शुरुआत एक गाने से होती है। गाना ऐसा है जो गांव- देहात, वहां के दस्तूर, रीति रिवाज और वहां की बेफिक्र ज़िंदगी की झांकी पेश करता है। बिपिन को मैंने गाने की ओपनिंग सिचुएशन बताई, "कैमरा उगते सूरत पर चार्ज होता है। अगले सीन में पेड़ों की फुनगियों पर पड़ती सूरज की किरणों को कैच करते हुए कैमरा गुरुजी पर आता है। गुरुजी गाना गा रहे हैं। लेकिन कैमरा उन्हें छोड़ आगे बढ़ जाता है। आगे पानी भरती लड़कियां हैं। खुले में नहाते नौजवान है। पानी में नहाती भैसों के साथ अठखेलियां करते बच्चे हैं। नदी है, पानी है, हरियाली है, गांव की गोरियां हैं..."

बिपिन ने गाना लिखा-

रे बौराई चंचल किरिनियां
तनी हमसे कुछ बात कर ले
उतर आव पेड़वा से नीचे
के बहिया में हम तोका भर लें
बंधा कौन सा ऐसा धागा रे
जिया तोसे लागा रे...

फिर मैंने बिपिन से एक ऐसा अंतरा लिखने की फरमाइश की, जिसे सुनकर गांव छोड़कर शहर में जा बसे हर व्यक्ति के दिल में वापस गांव लौटने की हूक ज़रूर जागे उठे। बिपिन ने लिखा-

बिधाता जे बरदान देवें
त गउवां से दे ना जुदाई
भले तन बसेला बिदेस में
मगर मनवा फिर लौट आई

अगर स्वर्ग बाटे कहीं त
इ पक्का बाटे के यहीं बा
जेवन सुख बा गउवां देहात में
उ दुनिया में कतहू नहीं बा

निछावर जीवन एकरा आगा रे
जिया तोसे लागा रे..

और गाने के हर बोल से पहले बिपिन के लिए संजीवनी का काम करते रहे संगीतकार धनंजय मिश्रा। धनंजय बड़े नाम वाले संगीतकार हैं। राग रागिनी और लोक गीतों के अच्छे जानकार हैं। वो मेरे चेहरे की तरफ देखते जाते थे। और झट से हारमोनियम पर कुछ बजा देते थे। सौ सौ साल जिए बिपिन बहार, जो हारमोनियम की हर तान पर शब्दों की एक नई कतार पिरो देते थे। फिल्म का पहला गाना ही कोई पंद्रह दिन की मेहनत के बाद सामने आया। मुझे लगा कि पूरी फिल्म के गाने बनने में तो ऐसे आधा साल बीत जाएगा। लेकिन, धनंजय मिश्रा का ही कमाल रहा कि बाकी के आठ गाने भी फटाफट होते गए।

मेरे दिमाग में पहले गाने के लिए राहत फतेह अली खान का नाम ना जाने कब से चल रहा था। राहत के बारे में पता करने मैं अपने बेहद करीबी मुकेश भट्ट जी से मिलने गया, तो पता चला कि राहत कहीं विदेश में टूर पर हैं। मुझे लगा कि गाना अभी नहीं हुआ तो शूटिंग का पहला शेड्यूल लेट हो सकता है। मन किया कि एक बार राजा हसन को ट्राइ करना चाहिए। धनंजय ने भी मेरी राय से सहमति जताई। वो लग गए संगीत तैयार करने में और मैं राजा हसन को तलाश करने में। पता चला कि सारेगामापा के सारे फाइनलिस्ट वर्ल्ड टूर पर जा रहे हैं और हमारे पास गाना रिकॉर्ड करने के लिए बचा है बस एक हफ्ता। इन सात दिनों में ही धनंजय ने दिन रात मेहनत करके गाना तैयार किया, जगजीत सिंह जी का संगीत स्टूडियो बुक किया गया। राजा हसन को बुलाया गया और बना वो गाना, जिसे सुनने के बाद बिपिन बहार भी भरे गले से बोल उठे, "इससे सुंदर गीत अब हमसे कौन लिखवा पाएगा। ये मेरे करियर का ऐसा मील का पत्थर है, जिसे पार करने में मुझे पूरा जीवन लगा देना होगा।" राजा हसन ने अपनी गायिकी में पूरा दिल उड़ेल दिया है। जिसने भी अब तक ये गाना सुना है, चाहे उसे भोजपुरी समझ आती हो या ना आती हो, बिना भावुक हुए नहीं रह सका। कभी पंकज उधास का गाया... चिट्ठी आई है..सुनकर मैं मुंबई छोड़ वापस गांव लौट गया था। अगर राजा हसन का गीत सुनकर एक भी भलमानुस गांव की याद में रो भी पाया, तो हम सबकी मेहनत का असली ईनाम वही होगा।

(...जारी)

पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर

सोमवार, 4 अगस्त 2008

कसौटी पर फेल विनय बिहारी



भोले शंकर (2)
गतांक से आगे...
मिथुन दा और मनोज तिवारी से मुलाक़ात और दोनों की हां के बाद प्रोड्यूसर गुलशन भाटिया निश्चिंत हो गए। फिल्म का एक मोटा मोटा बजट तय हुआ और भाटिया जी ने फिल्म की पूरी कमान मेरे हाथ में सौंप दी। मैंने दिल्ली से विदा ली और आकर ठौर जमा लिया मुंबई में। मनोज तिवारी के घर के ठीक पास में भाटिया जी का दफ्तर खुला और बैठकी शुरू होते ही सबसे पहला काम मैंने शुरू किया फिल्म के संगीत का।

बचपन में रेडियो सुनने को मुझे बहुत शौक रहा है। तब एफएम चैनल तो होते नहीं थे। और रेडियो हर वक़्त सुनने की घर में इजाज़त भी नहीं थी। हां, सुबह आठ बजे के समाचार से पहले रेडियो खोला जाता था और सुबह नौ बजे तक इसे हर कोई सुन सकता था। पापा की दिलचस्पी सुबह आठ बजे के समाचार में होती और अपनी साढ़े सात बजे प्रसारित होने वाले कार्यक्रम संगीत सरिता में। इस कार्यक्रम में हर दिन किसी ना किसी शास्त्रीय राग के बारे में बताया जाता और फिर उसी राग पर आधारित कोई फिल्मी गीत सुनाया जाता। धीरे धीरे इतना तो समझ में आने लगा था कि गाना कोई भी हो अगर उसका आधार शास्त्रीय है तो वो कानों को अच्छा लगता ही लगता है। संगीत की राग माला धीरे धीरे समझ आती रही। कई बार मन भी हुआ कि संगीत सीखना चाहिए, लेकिन लालटेन की रोशनी में पढ़ाई के दिनों में ये मुमकिन नहीं था और ना ही पूरी जवार में कोई संगीत का गुणी ही ऐसा नज़र आया, जिसे गुरु बनाया जा सके। सो हुआ ये कि बजाय तानसेन बनने के अपन कानसेन बन गए। बचपन से ही दोस्तों में चित्रलोक पर गाना बजते ही शर्त लगती कि गाना हिट होगा या नहीं। दस पैसे की ये शर्त छठी से लेकर आठवीं तक लगातार तीन साल मैं कभी हारा नहीं।

खैर, लौटते हैं वापस भोले शंकर के संगीत की तरफ। फिल्म का खाका अपने दिमाग में था और ये भी तय कर लिया था कि फिल्म का कोई भी गाना बस गाने के लिए फिल्म में नहीं होगा। हर गाने को कहानी का हिस्सा होना चाहिए। और गाना शुरू होने से पहले से लेकर गाना खत्म होने तक फिल्म की कहानी आगे बढ़ चुकी होनी चाहिए, ऐसा मेरा मानना रहा है। उन दिनों निरहुआ की फिल्म निरहुआ रिक्शा वाला सुपर हिट हो चुकी थी। और श्रीमान ड्राइवर बाबू का हर तरफ हल्ला हो रहा था। कई बार मन हुआ कि मिट्टी के इस लाल से मिलना चाहिए। लेकिन, सिनेमा की सियासत हवा तब तक मुझ तक पहुंचने लगी थी। मनोज तिवारी और रवि किशन की खेमेबंदी के बारे में लोगों ने बताया। लोगों ने ये भी बताया कि निरहुआ का भी एक अलग खेमा बन रहा है। फिल्म बनाने से पहले अपन पेशे से पत्रकार थे, और अब भी हैं, ऐसे मामलों में निष्पक्ष रहने की अपनी पुरानी आदत रही है। लिहाजा, पता लगाया कि निरहुआ रिक्शा वाला के संगीतकार कौन हैं, राजेश - रजनीश नाम के दो नए संगीतकारों का पता चला और संपर्क होते ही दोनों से मिलने की इच्छा मैंने जाहिर की। पहली मुलाकात में ही मैंने अपनी फिल्म की सारी सिचुएशन्स इनके सामने रखी, तो पता चला कि भोजपुरी सिनेमा में मैं शायद पहला निर्देशक था उनके लिए, जो सिचुएशन बताकर संगीत बनाने की बात कर रहा था। खैर, दोनों ने तब भी कहा कि काम हो जाएगा। मैंने अपने गानों का स्टोरी बोर्ड दोनों को समझाया और कहा कि गीतकार बताइए। दोनों ने भोजपुरी सिनेमा के मशहूर गीतकार विनय बिहारी का नाम लिया। और अगले ही दिन उनको लेकर दफ्तर भी आ गए।

विनय बिहारी गुणी गीतकार हैं। उनके गाने हिट होते रहे हैं, और उनकी काबिलियत उनसे पहली मुलाक़ात के दौरान समझ भी आ गई। लेकिन, साथ ही ये भी समझ आ गया कि नए संगीतकार विनय बिहारी के नाम का फायदा किस तरह उठाना चाहते हैं। खैर विनय बिहारी को भी मैंने सारे गीतों की सिचुएशन समझाई। और उनसे बस फिल्म का पहला गाना लिखकर लाने को कहा। मैंने वायदा किया कि अगर ये गाना फिल्म की कसौटी पर ख़रा उतरा, तो पैसे जो वो मांगेगे मिलेंगे, लेकिन बाकी गाने भी कहानी की कसौटी पर खरे उतरने चाहिए। राजेश रजनीश से मैंने अलग से कहा कि आप दोनों विनय बिहारी को सिचुएशन की मांग के हिसाब से ट्यून समझा दीजिए, ताकि गाना उसी हिसाब से लिखा जाए। मैंने ये भी सलाह दी कि गाना अगर राग पहाड़ी पर बन सके तो बहुत बेहतर होगा। राजेश और रजनीश ने ये सुनकर जो रीएक्शन दिया, उसे देखकर मुझे थोड़ा हैरानी हुई। लेकिन, मैं शांत रहा और अगले दिन की मीटिंग का इंतज़ार करने लगा।

कोई दो या तीन दिन बाद राजेश - रजनीश दफ्तर आए। मुझे बताया गया कि ये म्यूज़िक सिटिंग होगी। लेकिन राजेश रजनीश आए तो खाली हाथ। ना हारमोनियम और ना ही कोई रिदम वाला। मैंने कहा कि सिटिंग कैसे करोगे, तो बोले बस हो जाएगी। थोड़ी देर में विनय बिहारी भी आ गए। उन्होंने तुरंत एक फाइल बनाई। सुंदर ही हैंडराइटिंग में अपना, मेरा और फिल्म का नाम फाइल पर लिखा। और अंदर से दो तीन पन्ने निकाले। गाना वो लिखकर लाए थे। जैसा कि अमूमन होता है, म्यूज़िक सिटिंग में गाने के बोल संगीतकार ही गाकर सुनाता है और गीतकार उस पर अपनी राय देता है। लेकिन, यहां उल्टा हुआ। गीतकार ने गाना शुरू किया, किसी बहुत ही घिसे पिटे गाने से मिलते जुलते गाने की पैरोडी टाइप के इस गाने के बोल विनय बिहारी के मुंह से निकलते ही, राजेश - रजनीश में से एक ने टेबल बजाना शुरू कर दिया और दूसरे ने अपने मुंह से ही रिदम निकालनी शुरू कर दी।

फिल्म पत्रकारिता के दिनों में फिल्म इंडस्ट्री के कई दिग्गज संगीतकारों से मिलना हुआ। गीतकारों से भी बात होती रही है। तमाम म्यूज़िक सिटिंग्स में भी बैठने का सौभाग्य मिला। लेकिन जो कुछ मेरे सामने हो रहा था, उसे देखकर मैं तय नहीं कर पा रहा था कि ये क्या है। खैर जैसे तैसे विनय बिहारी ने अपना पहला गाना खत्म किया। कुछ और गाने भी वो लिखकर लाए थे। कुछ चोली के पीछे क्या है टाइप और कुछ वैसे गाने जैसे मनोज तिवारी के अलबमों में अक्सर सुनने को मिल जाते हैं। और ये सब इसके बावजूद कि भोले शंकर का संगीत खाका मैं इन तीनों को विस्तार से समझा चुका था, और ये भी निवेदन कर चुका था कि मुझे चालू माल नहीं चाहिए। विनय बिहारी का मैंने नाम बहुत सुना था, लिखते भी वो अच्छा ही होंगे। लेकिन, शायद मेरी ही गलती रही होगी कि मैं अपनी बात ढंग से उन्हें समझा नहीं पाया। नहीं तो गीतकार तो चेतक की तरह होता है, डायरेक्टर की पुतली फिरने से पहले ही कलम दिल का हाल ना लिख दे तो वो गीतकार ही क्या? फिल्म भोले शंकर की टेक्निकल टीम तैयार करने के दौरान ये मेरा पहला बड़ा फैसला था कि विनय बिहारी से फिल्म के गीत नहीं लिखवाने हैं। राजेश - रजनीश ही विनय बिहारी को लेकर आए थे, लिहाजा उन्हें भी नमस्ते कहना पड़ा। मनोज तिवारी के बुलावे पर मैं कई बार उनके यहां निजी समारोहों में शामिल हुआ। वहां अक्सर एक लड़का बाल रंगाए हुए, और बैगी पैंट पहने दिखता रहा। बाद में मनोज तिवारी ने इस लड़के का मुझसे परिचय बिपिन बहार के तौर पर कराया। कैसे बिपिन बहार ने लिखा, अपने करियर का बेहतरीन गाना, और कैसे धनंजय मिश्रा जैसे धुरंधर संगीतकार का भी फिल्म भोले शंकर के लिए हुआ लिटमस टेस्ट? ये अगले अंक में...


कहा सुना माफ़

पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर


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