रविवार, 11 मई 2008

मां



मुंबई
11 मई 2008


इतवार की सुबह सबेरे छह बजे उठना हो, तो ऐसा लगता है कि मानो काला पानी की सज़ा भुगतनी पड़ रही है। लेकिन पिछले करीब नौ महीनों से अगर खादिम मोहल्ला की गलियों में आबपाशी नहीं कर पाया, तो इसकी वजह रही एक ऐसा जुनून, जिसमें इंसान सब कुछ भुला देता है। ये जुनून है बड़े परदे पर एक कहानी को उतारने का, और आज अगर मैं मोहल्ले की गलियों में लौटा हूं तो इसलिए नहीं कि फिल्म का तकरीबन सारा काम आज सिरे तक पहुंच गया और निर्माता ने फिल्म को फाइनल मिक्सिंग के बाद बड़े परदे पर देखकर बेइंतेहा खुशी ज़ाहिर की, बल्कि उस फोन की वजह से जो सुबह सुबह बेटे ने दिल्ली से किया। बोला- मां को हैप्पी मदर्स डे बोल दीजिए। अब उसके लिए उसकी मां सबकी मां है, लेकिन ये फोन आते ही मुझे याद आई अपनी मां, जो आज भी रोज़ाना चार घंटे बिजली वाले एक गांव में शाम होते ही छत पर बैठकर पेड़ों की फुनगियों को निहारती है, कि पत्ता हिलेगा तो तन को हवा भी लगेगी।

तीन किलोमीटर रोज़ाना बस्ता लादकर पैदल जब हम छठी में पढ़ने जाते थे, तब भी जून की तपती दोपहर मां ऐसे ही बिताती थी, और आज भी उसकी गर्मियां ऐसे ही बीतती हैं। मांएं सुखी क्यों नहीं रह पातीं ? चिल्ला जाड़े की कड़कड़ाती ठंड में सुबह सुबह बर्फ जैसे ठंडे गोबर को उतने ही ठंडे पानी में मिलाकर अहाता लीपते मां को बचपन में कई बार देखा है। सुबह शाम कुएं से बीस बीस बाल्टी पानी भरने के बाद हाथों में जो ढड्ठे पड़ते थे, उन पर मां ने कई बार मरहम भी लगाया है। कोई पांच हज़ार फिट में फैले पूरे घर को लीपने के बाद पंद्रह लोगों का दो टाइम खाना, दो टाइम नाश्ता बनाने वाली मां ने कुछ तो हसरतें हम लोगों की निकरें धोते हुए पाली होंगी। पर, आज तक वो कभी बेटों ने जानी नहीं। मांएं खुलकर बोल क्यों नहीं पातीं?

हम गांव में ही थे, जब मां बुआ के घर कानपुर गईं थीं और वहां से संतोषी मां की फोटो और शुक्रवार व्रत कथा की किताब लेकर लौटी थीं। फिल्म जय संतोषी मां रिलीज़ होने के बाद पूरे देश में मुझ जैसे तमाम बच्चों से शुक्रवार की इमली छिन गई थी। कभी गलती से स्कूल में शुक्रवार को चाट भी खा ली, तो लगता था कि कुछ ना कुछ अनिष्ट होकर रहेगा। संतोषी माताएं हमारी मांओं जैसी क्यों नहीं होतीं? शायद वो शुक्रवार का दिन ही रहा होगा, जब आले मे रखा मट्ठा नीचे रखी बर्तनों की पेटी पर गिर गया था। मां ने उस दिन पीतल और कांसे के बर्तन बड़े जतन से मांज मांज कर चमकाए थे, और शाम होती ही सारे बर्तन कसैले हो गए। मां की आंखों की किसी कोर में उस दिन आंसू आ गए थे। मांएं इतनी संवेदनशील क्यों होती हैं?

और, मां का वो चेहरा तो सामने आते ही जैसे पूरा संसार जम सा जाता है, जब मां ने अपने सबसे छोटे बेटे के लिए किडनी देने का फैसला किया था। लखनऊ एम्स के गलियारे में जिस तरह हम दोनों भाई, बहन, और पापा मां के सामने बैठे थे, ऐसा लग रहा था, मानो मां को कसाई के हाथों सौंपने जा रहे हैं। तीसरा भाई जिसने अभी ये भी नहीं समझा कि जवानी क्या होती है, शायद पढ़ाई के बोझ के मारे या किसी शुक्रवार को इमली खाने की वजह से आईसीयू में मौत से बख्शीश मांग रहा था। मांएं कसौटी पर बार बार क्यों कसी जाती हैं? मां की कुर्बानी काम ना आ सकी। छोटा भाई घर तो लौटा, लेकिन इस बार भी उसे भगवान के यहां जाने की जल्दी थी। कमबख्त, मेरे मुरादाबाद से लौटने का इंतज़ार भी न कर सका। बस स्ट्रेचर पर बेहोशी की हालत में मिला। मेरा हाथ लगते ही बोला- भाईजी स्कोर क्या हुआ है? क्रिकेट बहुत देखता था वो, उसे क्या पता कि भगवान उसकी गिल्ली कब की उड़ा चुके हैं। मेरा बेटा भी क्रिकेट बहुत खेलता है। छोटे भाई को भगवान ने जिस तारीख को अपने पास बुलाया, उसके ठीक नौ महीने बाद- ना एक दिन आगे ना एक दिन पीछे- इन महाशय ने अपनी दादी की गोद गंदी की। और, अब इतने बड़े हो गए हैं कि फोन करके मदर्स डे याद दिलाते हैं? हम जैसे गांव वालों को माएं मदर्स डे पर याद क्यों नहीं आतीं?

और चलते चलते वो गाना जो मां के लिए हमने बचपन में सीखा था...

तुझको नहीं देखा हमने कभी
पर इसकी ज़रूरत क्या होगी..
ऐ मां, तेरी सूरत से अलग
भगवान की सूरत क्या होगी..

कहा सुना माफ़...

पंकज शुक्ल

10 टिप्‍पणियां:

  1. "माँ" -इस शब्द का विस्तार आँक पाना हमारे आपके वश में कहाँ.

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  2. बहुत ही भावुक लेख।

    माँ तो बस माँ है।

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  3. माँ तो आंसू है , याद आते ही छलक जाती है
    गाँव की याद दिला दी आपने
    अत्यन्त मर्मस्पर्शी संस्मरण है

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  4. बहुत दिन बाद मिले पंकज और मिलते ही दिल एक बार मुट्ठी में भींच कर छोड़ दिया, खुद को संभाल रहा हूं।
    तुम कैसे हो, कहां हो यही लिख भेजो.
    आजकल लखनऊ, द पायनियर में रिपोर्टरी कर रहा हूं. ढाई साल का टीपू है- आज चंदा मामा को सहारा गंज ले गया था एस्केलेटर पर घुमाने। गंदे बच्चे की तरह भम्म से गिर पड़े वहां तब से छलम के मारे बादल राजा के भीतर छिपे हुए हैं.

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  5. बहुत दिनों के बाद आपके ब्लॉग पर आया। वक्त ही नहीं मिलता...कि कुछ पड़ सकूं...आज घर जल्दी चला आया, कोई किताब घर में बची ही नहीं कि उसे पढ़ूं, तो आपका ब्लॉग खोल लिया...गलती हो गई नहीं आना चाहिए था...हांलाकि मदर्स डे निकल गया है, मगर सिर्फ एक दिन तीन शब्द यानि हैप्पी मदर्स डे बोलकर मां का कर्ज़ चुकता हो जाता तो बात ही ख़त्म थी।
    आपसे जलन होती है...आज जो कुछ भी लिखता हूं, लोग दोनो हाथ तालियां बजाकर तारीफ़ करते हैं। मगर मैं कभी आप सा नहीं लिख सकता...क्योंकि आप जितनी ज़िंदगी मैने नहीं देखी।
    बस अब और कुछ नहीं लिख सकता...।

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  6. यूं ही, पता नहीं क्या सोचकर आपकी गली में आ गया। मां पर आपकी पोस्ट फिर से पढ़ी। पहले पढ़ी थी तब अच्छी लगी थी, आज पढ़कर आंखों में पानी की हल्की सी परत है। अपनी रूलाई को फूटने से रोकने की भरसक कोशिश भी कर रहा हूं। इसी महिने, दो जुलाई को मेरी मां चल बसीं।
    रवींद्र व्यास, इंदौर

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  7. पँकज जी,
    "माँ" शब्द मेँ ईश्वर और सम्पूर्ण ब्रह्माम्ड समाया हुआ है !
    आपकी माताजी की छवि जो आपने सभी के साथ बाँटी है, उन्हेँ मेरे सादर प्रणाम -
    ऐसी ही होतीँ हैँ माँ: -
    मेरी अम्मा की बहुत याद आई !
    ..यादेँ तो जब तक जीवन है, साथ ही रहेँगीँ ..
    हाँ उनके सीखाये रास्तोँ पे अगर हम चलेँ तब उनके आशिष हमेँ , मुक्ति की राह दीखलायेँगेँ ऐसा विश्वास भी है . मैँ पिता क्या होते हैँ वो भी जानती हूँ पर पिता की शालीनता भी सिर्फ माँ के त्याग और बलिदान से ही सँभव है ये भी अनकही बात है जिसे सारा जग जानता है ..
    आपने बहुत भाव से माँ को पूजा है!
    ..इसी तरह लिखते रहेँ और खूब नाम कमाइयेगा ~~
    आपके चुने हुए कार्य मेँ,
    सफलता की अभिलाषा के साथ,
    स्नेहाशिष सहित,
    - लावण्या

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  8. क्‍या कहूं क्‍या लिखूं, बहुत ढुंढने से बस एक शब्‍द मिला है और भी पूरा नही पड रहा - "गजब का"
    इतने शानदार तरीके से बेहद नफासत के साथ उपयोग किए गए शब्‍दों ने सब कुछ बता दिया...

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  9. सर आपकी वास्तविक ज़िंदगी के इस पहलू को मैं जानता था, लेकिन वो इतना दर्द भरा था ये मुझे नहीं पता था। फिर भी दर्द के इन पहलुओं को जितनी सहजता के साथ आपने अपने शब्दों में बयान कर दिया है उससे एक बात तो तय है की तीन साल पहले ये ब्लाग लिखते हुए आपकी आंखों में आंसू जरुर छलके होंगे। क्यूंकी आज इसे पढ़ते हुए मेरी आंखे भर आई हैं।

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  10. शुक्रिया याज्ञवल्क्य और मनोज.

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