शनिवार, 31 मई 2008

कैसे बनी "भोले शंकर" (१)

कृपा बांके बिहारी की...


पिछले साल की बात है, बहुत दिनों से मन हो रहा था बांके बिहारी के दर्शन करने के लिए। साल में कम से एक बार वृंदावन की धूल माथे पर लगाने का प्रयास रहता है, तो बस बाल गोपालों के साथ एक दिन छुट्टी लेकर बोल दिया - जय कन्हैया लाल की। दिल्ली से वृंदावन ज़्यादा दूर नहीं है और भाई हरेंद्र चौधरी के सहयोग से दर्शन भी बांके बिहारी के बड़े सुंदर हुए। भगवान के सामने आकर पता नहीं क्यों मुझे कुछ मांगने में संकोच होने लगता है। अपना अनुभव ये कहता है कि जब भी भगवान से आपकी अंतरात्मा कुछ मांगती है, तो मिलता ज़रूर है। इसलिए मांगना तभी चाहिए, जब आत्मा इसमें आपका साथ दे। हां, भगवान वरदान देने से पहले इस बात का इम्तिहान भी लेता है, कि आप उसके काबिल हैं या नहीं। ज़्यादातर लोग परीक्षा की इसी घड़ी में भगवान पर अपना भरोसा खो देते हैं।

तो बांके बिहारी के दर्शन करने के बाद अगले दिन दफ्तर में सब सामान्य चल रहा था (उन दिनों में ज़ी न्यूज़ की स्पेशल डेस्क का प्रभारी था और चार दैनिक और तीन साप्ताहिक कार्यक्रमों को बनाने की ज़िम्मेदारी निभा रहा था), तभी एचआर से बुलावा आया। कुछ फैसले जो पहले ही लिए जा चुके थे, उनके बारे में बताया गया। इनका खुलासा भी कभी वक्त आया तो तफसील से ज़रूर करुंगा। बस ये मानिए कि बांके बिहारी की कृपा ही रही होगी, जो उसी दिन नौकरी से अलग होने की भूमिका बन गई।

ज़ी न्यूज़ में काम करने के दौरान सिनेमा के हम तीन शौकीनों की एक तिकड़ी थी। मैं, गौरव द्विवेदी और अश्वनी कुमार। एक दिन पता नहीं ईश्वर प्रेरणा से या कुछ और मैंने संकल्प ले लिया कि 2007 में मुंबई शिफ्ट होना है और इसी साल फिल्म भी बनानी है। जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिले ना कुछ संदेहू।

एक नए चैनल एमएच वन न्यूज़ की लॉन्चिंग से फारिग ही हुआ था कि अपने बेहद करीबी हरीश शर्मा का एक दिन फोन आया। होटल ली मेरीडियन में उन्होंने दिल्ली के बीजेपी सभासद गुलशन भाटिया से भेंट कराई। भाटिया जी के बेटे गौरव को फिल्ममेकिंग का पैशन रहा है, और पहली ही मुलाक़ात में भाटिया जी ने फिल्म भोले शंकर के लिए ग्रीन सिगनल दे दिया। लेकिन उन्हें आशंका थी तो इस बात की कि जो कॉम्बीनेशन मैं उन्हें इस फिल्म के लिए बता रहा हूं, वो मेरे बस की बात है भी या नहीं। भोले के रोल के लिए मैंने मनोज तिवारी का और शंकर के रोल के लिए मिथुन चक्रवर्ती का नाम आगे रखा था।

मनोज तिवारी तो खैर छोटे भाई की तरह हैं, कभी मेरा कोई आग्रह टालते नहीं। एक ही बुलावे पर दिल्ली आए, भाटिया जी से मिले और साइनिंग का चेक लेकर अगले बुलावे पर आने की बात कहकर चले गए। भाटिया जी को बेक़रारी थी मिथुन दा से मिलने की। जिस शाम को उनसे मिलने का वक़्त तय हुआ, भाटिया जी उसी शाम को मुझे लेकर दिल्ली से निकले। फ्लाइट लेट हो गई और मिथुन दा ने उस शाम देर हो जाने की वजह से माफी मांग ली। उन्हें सुबह सुबह कोलकाता जाना था, सो तय हुआ कि मुलाकात हवाई अड्डे पर ही होगी।

भाटिया जी का भरोसा डोलता सा दिखा। लेकिन, जितना दादा को मैं जानता हूं, वो ये कि वो बात के पक्के हैं। भोले शंकर की भूमिका बनने से पहले ही दादा ने मेरी एक भोजपुरी फिल्म में काम करने का वादा किया था, और मुझे यकीन था कि दुनिया इधर की उधर हो जाए, मिथुन चक्रवर्ती अपने बात से नहीं डिग सकते। हवाई अड्डे पर ही मैंने गुलशन भाटिया जी की भेंट मिथुन चक्रवर्ती से कराई। मिथुन दा ने बस एक वाक्य में पूरी बात खत्म कर दी, 'शुक्लाजी को मैंने कह दिया कि मैं फिल्म करूंगा, तो बात खत्म हो गई। बाकी बातें आप विजय से कर लीजिए। (विजय उपाध्याय दादा के बरसों पुराने अभिन्न हैं, और फिल्मों से जुड़े मसले वही देखते हैं)'

बस दो मिनट में हाथ मिलाकर मिथुन चक्रवर्ती हवाई अड्डे के भीतर दाखिल हो गए। गुलशन भाटिया जी को शायद यकीन ही नहीं हो पा रहा था कि वो मिथुन चक्रवर्ती को लेकर बनने वाली पहली भोजपुरी फिल्म के प्रोड्यूसर बनने जा रहे हैं। बस मुझे गले लगाया और आभार जताया कि ये सब मेरी वजह से हो रहा है। लेकिन, उन्हें क्या पता कृपा तो बांके बिहारी की थी। (....जारी)

कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर

(पाठक अपनी प्रतिक्रियाएं पंकज शुक्ल को pankajshuklaa@gmail.com पर भी भेज सकते हैं)

रविवार, 11 मई 2008

मां



मुंबई
11 मई 2008


इतवार की सुबह सबेरे छह बजे उठना हो, तो ऐसा लगता है कि मानो काला पानी की सज़ा भुगतनी पड़ रही है। लेकिन पिछले करीब नौ महीनों से अगर खादिम मोहल्ला की गलियों में आबपाशी नहीं कर पाया, तो इसकी वजह रही एक ऐसा जुनून, जिसमें इंसान सब कुछ भुला देता है। ये जुनून है बड़े परदे पर एक कहानी को उतारने का, और आज अगर मैं मोहल्ले की गलियों में लौटा हूं तो इसलिए नहीं कि फिल्म का तकरीबन सारा काम आज सिरे तक पहुंच गया और निर्माता ने फिल्म को फाइनल मिक्सिंग के बाद बड़े परदे पर देखकर बेइंतेहा खुशी ज़ाहिर की, बल्कि उस फोन की वजह से जो सुबह सुबह बेटे ने दिल्ली से किया। बोला- मां को हैप्पी मदर्स डे बोल दीजिए। अब उसके लिए उसकी मां सबकी मां है, लेकिन ये फोन आते ही मुझे याद आई अपनी मां, जो आज भी रोज़ाना चार घंटे बिजली वाले एक गांव में शाम होते ही छत पर बैठकर पेड़ों की फुनगियों को निहारती है, कि पत्ता हिलेगा तो तन को हवा भी लगेगी।

तीन किलोमीटर रोज़ाना बस्ता लादकर पैदल जब हम छठी में पढ़ने जाते थे, तब भी जून की तपती दोपहर मां ऐसे ही बिताती थी, और आज भी उसकी गर्मियां ऐसे ही बीतती हैं। मांएं सुखी क्यों नहीं रह पातीं ? चिल्ला जाड़े की कड़कड़ाती ठंड में सुबह सुबह बर्फ जैसे ठंडे गोबर को उतने ही ठंडे पानी में मिलाकर अहाता लीपते मां को बचपन में कई बार देखा है। सुबह शाम कुएं से बीस बीस बाल्टी पानी भरने के बाद हाथों में जो ढड्ठे पड़ते थे, उन पर मां ने कई बार मरहम भी लगाया है। कोई पांच हज़ार फिट में फैले पूरे घर को लीपने के बाद पंद्रह लोगों का दो टाइम खाना, दो टाइम नाश्ता बनाने वाली मां ने कुछ तो हसरतें हम लोगों की निकरें धोते हुए पाली होंगी। पर, आज तक वो कभी बेटों ने जानी नहीं। मांएं खुलकर बोल क्यों नहीं पातीं?

हम गांव में ही थे, जब मां बुआ के घर कानपुर गईं थीं और वहां से संतोषी मां की फोटो और शुक्रवार व्रत कथा की किताब लेकर लौटी थीं। फिल्म जय संतोषी मां रिलीज़ होने के बाद पूरे देश में मुझ जैसे तमाम बच्चों से शुक्रवार की इमली छिन गई थी। कभी गलती से स्कूल में शुक्रवार को चाट भी खा ली, तो लगता था कि कुछ ना कुछ अनिष्ट होकर रहेगा। संतोषी माताएं हमारी मांओं जैसी क्यों नहीं होतीं? शायद वो शुक्रवार का दिन ही रहा होगा, जब आले मे रखा मट्ठा नीचे रखी बर्तनों की पेटी पर गिर गया था। मां ने उस दिन पीतल और कांसे के बर्तन बड़े जतन से मांज मांज कर चमकाए थे, और शाम होती ही सारे बर्तन कसैले हो गए। मां की आंखों की किसी कोर में उस दिन आंसू आ गए थे। मांएं इतनी संवेदनशील क्यों होती हैं?

और, मां का वो चेहरा तो सामने आते ही जैसे पूरा संसार जम सा जाता है, जब मां ने अपने सबसे छोटे बेटे के लिए किडनी देने का फैसला किया था। लखनऊ एम्स के गलियारे में जिस तरह हम दोनों भाई, बहन, और पापा मां के सामने बैठे थे, ऐसा लग रहा था, मानो मां को कसाई के हाथों सौंपने जा रहे हैं। तीसरा भाई जिसने अभी ये भी नहीं समझा कि जवानी क्या होती है, शायद पढ़ाई के बोझ के मारे या किसी शुक्रवार को इमली खाने की वजह से आईसीयू में मौत से बख्शीश मांग रहा था। मांएं कसौटी पर बार बार क्यों कसी जाती हैं? मां की कुर्बानी काम ना आ सकी। छोटा भाई घर तो लौटा, लेकिन इस बार भी उसे भगवान के यहां जाने की जल्दी थी। कमबख्त, मेरे मुरादाबाद से लौटने का इंतज़ार भी न कर सका। बस स्ट्रेचर पर बेहोशी की हालत में मिला। मेरा हाथ लगते ही बोला- भाईजी स्कोर क्या हुआ है? क्रिकेट बहुत देखता था वो, उसे क्या पता कि भगवान उसकी गिल्ली कब की उड़ा चुके हैं। मेरा बेटा भी क्रिकेट बहुत खेलता है। छोटे भाई को भगवान ने जिस तारीख को अपने पास बुलाया, उसके ठीक नौ महीने बाद- ना एक दिन आगे ना एक दिन पीछे- इन महाशय ने अपनी दादी की गोद गंदी की। और, अब इतने बड़े हो गए हैं कि फोन करके मदर्स डे याद दिलाते हैं? हम जैसे गांव वालों को माएं मदर्स डे पर याद क्यों नहीं आतीं?

और चलते चलते वो गाना जो मां के लिए हमने बचपन में सीखा था...

तुझको नहीं देखा हमने कभी
पर इसकी ज़रूरत क्या होगी..
ऐ मां, तेरी सूरत से अलग
भगवान की सूरत क्या होगी..

कहा सुना माफ़...

पंकज शुक्ल