शनिवार, 27 दिसंबर 2008

सफलता के सौ दिन !


भोले शंकर (23)। गतांक से आगे...


फिल्म भोले शंकर ने बिहार में शानदार सौ दिन पूरे कर लिए हैं। फिल्म की नेट कमाई केवल बिहार से पौन करोड़ के करीब पहुंच चुकी है। फिल्म इस हफ्ते भी कोई पांच सिनेमाघरों में अब भी चल रही है। समझ में ना आने वाली बात ये है कि भोजपुरी फिल्मों की बिहार में जो कमाई होती है कि वो प्रोड्यूसर तक क्यों नहीं पहुंचती। क्या भोजपुरी फिल्मों की रीढ़ तोड़ने के लिए वो वितरक ज़िम्मेदार नहीं हैं, जिन्होंने फिल्म निर्माताओं का वाजिब हक़ मारने की कसम सी खा रखी है। किसी भी फिल्म का प्रोड्यूसर अपने खून पसीने की कमाई जोड़कर एक फिल्म बनाने की हिम्मत जुटाता है तो क्या वो कोई गुनाह करता है। ऐसे तमाम फिल्म निर्माता हैं जिन्होंने भोजपुरी सिनेमा को अपनाया है और दूसरे भी अपनाना चाहते हैं। लेकिन सबके मन में शंका एक ही है कि बिहार के वितरक उनके फिल्म से होने वाली कमाई उन तक पहुंचने देंगे या नहीं। और, भोजपुरी सिनेमा में मंदी की दौर की यही सबसे बड़ी वजह है। क्या भोजपुरी फिल्मों की रीढ़ तोड़ने के लिए वो वितरक ज़िम्मेदार नहीं हैं, जिन्होंने फिल्म निर्माताओं का वाजिब हक़ मारने की कसम सी खा रखी है।


अपने वाजिब हक़ के लिए भोजपुरी फिल्म निर्माताओं को एक मंच पर आना बहुत ज़रूरी है। यहां अक्सर निर्माता वितरक के आगे घुटनों पर नज़र आते हैं। भोजपुरी सिनेमा को अपना गौरव पाना है तो इसमें से बिचौलियों की भूमिका खत्म करनी होगी और फिल्म को दर्शकों तक पहुंचाने के लिए कोई ऐसा सिस्टम तैयार करना होगा, जिसमें पाई पाई का हिसाब निर्माता और वितरक के बीच पानी की तरह साफ हो। आम लोगों की तो खैर बात ही क्या करें, फिल्म निर्माण से जुड़े लोगों को ही ये नहीं पता है कि बिहार में किसी बाहरी व्यक्ति को फिल्म वितरण में घुसने की अघोषित पाबंदी है। और जब तक वहां की सरकार ये पाबंदी दूर नहीं करती, बिहार को हमेशा फिल्म नगरी में शंका से देखा जाता रहेगा। अपना हक़ पाने की पहल निर्माता भी करें और बिहार की सरकार भी बस भोजपुरी सिनेमा के लिए ज़मीन देकर किनारे ना हो जाए, वो पहल करे भोजपुरी सिनेमा के कारोबार में पारदर्शिता लाने की। तभी सबको अपना अपना वाजिब हक़ मिल पाएगा।


मिथुन चक्रवर्ती ने फिल्म भोले शंकर के पहले सीन में भी यही किया। मिथुन ने इस फिल्म के लिए पहले दिन वो शॉट दिया जिसमें भोले का दोस्त संतराम उनके पास गौरी का अपहरण हो जाने की खबर लेकर आता है। कमालिस्तान के क्रिस्टल हाउस में इस सीन की शूटिंग होनी थी, और हम लोग तय समय पर सारा माल असबाब लेकर वहां पहुंच गए। मिथुन के लिए मैंने फिल्म गुलामी में उनकी कॉस्ट्यूम से मिलती जुलती ड्रेस तैयार करवाई और जब वो पीच कलर की ये ड्रेस पहनकर कैमरे के सामने आए तो पूरी यूनिट ने दिल खोलकर तालियां बजाईं। इसे कहते हैं असली सितारे की चमक। मिथुन को बतौर कलाकार भी और बतौर एक इंसान भी बॉलीवुड का बच्चा बच्चा पसंद करता है। वो भोजपुरी फिल्म में काम करने को राज़ी हुए, ये उनका बड़प्पन है।


लोग अक्सर मुझसे ये पूछते हैं कि आखिर दादा (मिथुन चक्रवर्ती) फिल्म भोले शंकर में काम करने को राज़ी कैसे हुए? फिल्म भोले शंकर के लिए हां करने से पहले मिथुन ने कम से कम दस भोजपुरी फिल्मों के ऑफर्स ठुकराए थे। यहां तक कि बिहार के बड़े ड्रिस्टीब्यूटर और प्रोड्यूसर डॉक्टर सुनील के साथ हुए झगड़े की जड़ में भी एक भोजपुरी फिल्म ही है। लेकिन, ना तो हम लोगों को इस झगड़े के बारे में पहले से पता था और ना ही मुझे इस बात में ज़रा भी ईमानदारी नज़र आती है कि एक कलाकार की फिल्म भारत के किसी राज्य में इसलिए ना प्रदर्शित होने दी जाए क्योंकि ये कलाकार सूबे के एक नेता की फिल्म में काम नहीं करना चाहता। मिथुन चक्रवर्ती की हिंदी फिल्मों की बिहार में रिलीज़ पर एक लाख रुपये का फाइन लगाने वाले फिल्म भोले शंकर को बिहार में रिलीज़ होने देने के लिए दस लाख रुपये मांग रहे थे। ये है मिथुन की पहली भोजपुरी फिल्म का बिहार में क्रेज। (जारी)

रविवार, 14 दिसंबर 2008

कहानी की कीमत तीन लाख रुपये!

-पंकज शुक्ल
हिंदुस्तान में किसी फिल्म की कहानी लिखने के लिए लेखक को कितना पैसा मिल सकता है? नामी लेखकों की बात छोड़ दें तो शायद ही कोई लेखक इसके लिए लाखों मिलने की बात सपने में भी सोच सकता होगा। लेकिन फिल्म राइटर्स एसोसिएशन, मुंबई की चली तो आने वाले दिनों में किसी भी लेखक को फिल्म की कहानी लिखने के लिए कम से कम तीन लाख रुपये मिलेंगे और अगर वही लेखक फिल्म की पटकथा और संवाद भी लिखना चाहे तो उसे छह लाख रुपये और मिलेंगे।
जी हां, मुंबई में दो दिन तक चली दूसरी इंडियन स्क्रीनराइटर्स कांफ्रेंस में सर्वसम्मति से इस बारे में प्रस्ताव पारित किया गया। यही नहीं मुंबई के नामी वकीलों की सहायता से फिल्म राइटर्स एसोसिएशन ने लेखकों का शोषण रोकने के लिए एक मॉडल कॉन्ट्रैक्ट भी तैयार किया है, जिसे फिल्म उद्योग की सबसे बड़ी संस्था वेस्टर्न इंडिया फेडरेशन ऑफ फिल्म एम्पलॉयीज़ की मंजूरी मिलने के बाद लेखकों को तमाम और फायदे भी मिलने वाले हैं। मसलन अगर किसी लेखक की लिखी फिल्म को दोबारा किसी अन्य भाषा में बनाया जाता है, तो लेखक को फिर पैसे मिलेंगे। यही नहीं अगर कोई निर्माता किसी फिल्म के किरदारों को लेकर कोई दूसरे प्रोडक्ट मसलन खिलौने वगैरह बनाना चाहता है तो उसके लिए भी लेखक को रॉयल्टी मिलेगी। युवा और प्रगतिशील फिल्म लेखकों की पहल पर पुणे में हुई पहली कांन्फ्रेंस की कामयाबी के बाद मुंबई में हुई इस कान्फ्रेंस में दो दिन तक फिल्म निर्माण में लेखक की भूमिका के अलग अलग पहलुओं पर जमकर बहस हुई।
कान्फ्रेंस मशहूर नाटक और पटकथा लेखक विजय तेंदुलकर को समर्पित की गई लिहाजा इसका पहला सेशन तेंदुलकर पर ही केंद्रित रखा गया। इस सेशन में कुछ ऐसी जानकारियां सामने आईं जो इंडस्ट्री के लोगों के लिए भी चौंकाने वाली हो सकती हैं। जैसे गोविंद निहलानी की मशहूर फिल्म अर्द्ध सत्य का जो क्लाइमेक्स हमने आपने देखा है वो दरअसल विजय तेंदुलकर ने लिखा ही नहीं था। ये क्लाइमेक्स गोविंद निहलानी को फिल्म बनाते वक्त सूझा और उन्होंने शूटिंग के वक्त अपनी पसंद का और लेखक की पसंद का दोनों क्लाइमेक्स शूट कर लिए। बाद में निहलानी और तेंदुलकर दोनों ने फिल्म दोनों क्लाइमेक्स के साथ देखी और तेंदुलकर मान गए कि निहलानी का सोचा क्लाइमेक्स फिल्म को ज़्यादा शूट करता है। ऐसा ही कुछ वाक्या मशहूर अभिनेता और निर्देशक अमोल पालेकर ने भी साझा किया। पालेकर ने बताया कि उनकी बतौर निर्देशक पहली फिल्म आक्रीत के लिए जो पटकथा विजय तेंदुलकर ने उनकी बताई कहानी पर काफी दिनों की मेहनत के बाद लिखी थी, वो उन्होंने रिजेक्ट कर दी थी। और, आक्रीत एक ऐसी पटकथा पर बनी जो विजय तेंदुलकर ने बाद में उन्होंने दी। यही नहीं, निहलानी की तरह ही पालेकर को भी शूटिंग के दौरान एक नया क्लाइमेक्स सूझा और उन्होंने तेंदुलकर का लिखा क्लाइमेक्स बदल दिया।
चेन्नई से खास तौर पर इस कार्यक्रम में शरीक होने आए अभिनेता और निर्देशक कमल हासन और लंदन से आईं नसरीन मुन्नी कबीर ने भारतीय फिल्मों की पटकथा की खासियत पर बहस में हिस्सा लिया। नसरीन ने जहां भारतीय फिल्मों को लेकर पश्चिम की सोच के बारे में विस्तार से चर्चा की, वहीं कमलहासन ने फिल्म राइटर्स कान्फ्रेंस से खास तौर से अनुरोध किया कि ऐसे आयोजन चेन्नई में भी होने चाहिए। मुन्नाभाई सीरीज़ में निर्देशक राजकुमार हीरानी को लेखन में सहायता करने वाले ओहियो से आए आभिजात जोशी ने गांधीगीरी को कागज़ पर उतारने के किस्से सुनाए। तो, जाने तू या जाने ना के निर्देशक अब्बास टायरवाला ने इस बात की ओर इशारा किया कि हिंदी सिनेमा को खलनायक अब नायक के भीतर ही तलाशने होंगे। पचास-साठ के दशक के ज़मींदार, सत्तर के दशक के स्मगलर्स, अस्सी के दशक के बदनाम नेता और नब्बे के दशक के आतंकवादियों से दर्शकों की बढ़ती ऊब की तरफ इशारा करते हुए टायरवाला ने भारतीय परंपरा और अतीत में फिर से झांकने की ज़रूरत समझाई और रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों के दुविधा में पड़े चरित्रों से कहानियों के नए सिरे तलाशने का गुरुमंत्र समझाया।
कान्फ्रेंस में रविवार के पहले सत्र में उस समय अजीब स्थिति पैदा हो गई, जब अपना भाषण लंबा खींचने पर मशहूर लेखक कमलेश पांडे की हूटिंग शुरू हो गई। कमलेश अपनी हिट और सुपरहिट फिल्मों के बारे में लगातार बताते जा रहे थे, जबकि चर्चा इस सत्र में फिल्मों के सियासी जामे पर होनी थी। इस सेशन में सबसे ज़्यादा तालियां असमिया फिल्मों के मशहूर निर्देशक जानू बरुआ ने बटोरीं, जिनकी पहली हिंदी फिल्म मैंने गांधी को नहीं मारा को देश विदेश में खूब शोहरत मिली। उन्होंने कहा कि पश्चिम का ये कहना कि भारतीय फिल्मकार गरीबी बेचते हैं, गलत है। उन्होंने कहा कि गरीबी तुलनात्मक नजरिया है। और भारत का मज़दूर या किसान अगर अपनी सीमित कमाई में अपने परिवार के साथ खुश है तो किसी दूसरे को उसे गरीब कहने का कोई हक़ नहीं है। अपनी सियासी फिल्मों से देश विदेश में मशहूर हो चुके लेखक निर्देशक प्रकाश झा ने सामयिक विषयों पर फिल्म बनाने के लिए ज़रूरी बातों की तरफ लेखकों का ध्यान खींचा और विकास की सबसे तेज़ सदी में धर्म के बढ़ते दबदबे की तरफ भी ध्यान दिलाया।
कान्फ्रेंस में सबसे लंबी चर्चा लेखकों खासकर फिल्म लेखकों के अधिकारों पर हुई। मुंबई के नामी वकीलों अश्नी पारेख और रोहिणी वकील के सहयोग से छह महीनों की मेहनत और इंडस्ट्री के तमाम लेखकों, निर्देशकों और निर्माताओं से परामर्श के बाद फिल्म राइटर्स एसोसिएशन ने एक मॉडल कॉन्ट्रैक्ट तैयार किया है। इसे मंजूरी मिलने के बाद फिल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले हर लेखक को कम से कम मेहनताना मिलने की गारंटी हो जाएगी। इसमें कहानी, पटकथा और संवाद तीनों के लिए तीन-तीन लाख रुपये की न्यूनतम रकम तय की गई है। एसोसिएशन का कोई भी सदस्य इससे कम पर किसी भी निर्माता के लिए काम नहीं करेगा। और जो निर्माता ये रकम देने से इंकार करेगा, उसके खिलाफ फेडरेशन बॉयकॉट का नोटिस भी जारी कर सकेगा। इस मॉडल कॉन्ट्रैक्ट में बदलते दौर में ज़रूरी हो चले तमाम पहलुओं को शामिल किया गया है। कान्फ्रेंस में लेखकों-निर्देशकों और लेखकों-निर्माताओं के दो समूहों ने फिल्म निर्माण में लेखक की भूमिका के क्रिएटिव और फाइनेंशियल पहलुओं पर अलग से भी चर्चा की। धूम सीरीज़ के निर्देशक संजय गडवी ने जहां खुद को पूरी तरह से लेखक पर निर्भर निर्देशक बताया और विदेशी फिल्मों से प्रेरित होने को निर्देशक की निजी राय बताया, वहीं माई ब्रदर निखिल और सॉरी भाई बनाने वाले ओनीर ने कहा कि फिल्म के पहले प्रिंट तक फिल्म निर्माण में लेखक की बराबर की भागीदारी ज़रूरी है।
मशहूर लेखक अंजुम राजाबली के संचालन में हुई कान्फ्रेंस के कुल सात सेशन्स के दौरान एक बात जो सामान्य रूप से हर लेखक या लेखक-निर्देशक ने मानी वो ये कि किसी भी कहानी को लिखने से पहले लेखक का उस पर यकीन होना ज़रूरी है। और, अगर किसी लेखक ने किसी किरदार को करीब से देखा, परखा, समझा या जिया नहीं है तो किसी कहानी को परदे के लिए लिख पाना नामुमकिन सा होता है। कान्फ्रेंस में नए लेखकों को एक बार फिर ये जानकारी दी गई कि इंडस्ट्री के कायदों के मुताबिक कोई भी निर्माता किसी भी ऐसे शख्स को काम पर नहीं रख सकता है जो अपनी कला से संबंधित यूनियन का सदस्य नहीं है।
फिल्म राइटर्स एसोसिएशन का सदस्य भारत में कहीं भी रहते हुए बना जा सकता है। इसके लिए लेखक tfwa@rediffmail.com या एसोसिशन के दफ्तर में फोन (022-26733027 या 022-26733108) कर सकते हैं।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

दादा की दरियादिली


भोले शंकर (22) । गतांक से आगे...

लखनऊ में फिल्म भोले शंकर का पहला शेड्यूल खत्म होने के बाद पूरी यूनिट ने मुंबई लौटने की तैयारी शुरू कर दी। फिल्म उद्योग को सरकारी लापरवाही का शिकार किस तरह होना पड़ता है, इसकी एक मिसाल भी इसी दौरान हमें देखने को मिली। रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव की नज़रें इन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश पर टिकी हैं। अपनी पार्टी का अधिवेशन भी वो हाल ही में यहां कर चुके हैं। मंशा ये बताई जा रही है कि पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से मिलकर बन सकने वाले भोजपुरी बहुल इलाके को एक नए राज्य की शक्ल दी जाए, और कम से कम ऐसा एक तो प्रदेश हो, जहां आरजेडी की सत्ता फिर से कायम की जा सके। कभी ज़ी टीवी तो कभी स्टार प्लस की टीआरपी बढ़ाने के लिए इनके शोज़ में पहुंचने वाले लालू प्रसाद यादव को भोजपुरी फिल्म जगत से इसका दस फीसदी भी लगाव हो जाए तो इस सिनेमा का बेड़ा पार हो सकता है। भोजपुरी सिनेमा का कोई माई बाप नहीं है। मुट्ठी भर लोग आकर मुंबई में सिनेमाघरों से भोजपुरी फिल्में उतरवा जाते हैं, और मुंबई से लेकर दिल्ली तक सब कुछ बयानबाजी के बाद शांत हो जाता है।
जहां की भाषा भोजपुरी है, वहां के लोगों को इस सिनेमा की परवाह नहीं और जहां इस सिनेमा की परवरिश हो रही है, वहां इसे घुसपैठिया करार दिया जा चुका है। खैर, मैं बात कर रहा था फिल्म भोले शंकर की यूनिट के मुंबई लौटने की। कोई सत्तर लोगों की क्रू को एक साथ किसी ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिल सकता था, लिहाजा रेल मंत्री के कार्यालय से संपर्क किया गया। भरोसा मिला कि काम हो जाएगा। अब एक साथ कोई शख्स सत्तर टिकटें लखनऊ से मुंबई की खरीदे तो रेल मंत्रालय चाहे तो ट्रेन में नई बोगी भी लगवा सकता है। और बात जब भोजपुरी सिनेमा की हो तो लालू के मंत्रालय को तो इसकी तरफ खास तवज्जो देनी चाहिए। लेकिन, रेल मंत्री के कार्यालय से ऐन मौके पर जवाब आया कि काम नहीं हो पाया। अब इसमें किसकी कितनी गलती है, इस पर बहस का वक्त नहीं था। वक्त था अब ज़मीनी धरातल की असलियत को समझने का। जिन रेल मंत्री के कार्यालय ने एक भोजपुरी फिल्म के तकनीशियनों को अपनी रेल में जगह देने से हाथ खड़े कर दिए। उसी रेल विभाग के कर्मचारियों ने हमारी मज़बूरी का फायदा उठाते हुए हमसे लखनऊ स्टेशन पर मोटी रिश्वत ली और उसी ट्रेन में जगह दिला दी, जिस ट्रेन में जगह ना होने का रोना थोड़ी ही देर पहले रेल मंत्री कार्यालय के अफसर हमसे रो चुके थे।
खैर, किसी तरह सब लोग मुंबई पहुंचे। सारा माल असबाब करीने से लगा दिया गया। अब तक की शूटिंग का रिजल्ट भी हमने लैब में जाकर देख लिया। हम चुनौती थी, मुंबई शेड्यूल शुरू करने की, जिसके लिए हर दिन ज़रूरत थी हिंदी सिनेमा के कल्ट स्टार मिथुन चक्रवर्ती की। लेकिन उनके और बिहार के वितरक डॉक्टर सुनील के बीच चल रहा विवाद अब तक काफी तूल पकड़ चुका था। यहां तक कि भोजपुरी सिनेमा के दो खेमों में बंटने तक की नौबत आ गई, मुंबई से लेकर पटना तक बयानबाज़ी के दौर शुरू हो चुके थे और ऐसे में मिथुन ने फैसला लिया, सब कुछ फेडरेशन पर छोड़ देने का। उनका कहना था कि अब जो भी फैसला होगा वो फेडरेशन ही करेगी और फिल्म भोले शंकर की शूटिंग भी उसके बाद ही होगी। इस बीच मिथुन की समर्थन लॉबी ने अपने हीरो की नज़रों में चढ़ने के लिए कुछ अजीब हरकतें शुरू कर दीं। इन लोगों ने कमालिस्तान और दूसरे स्टूडियोज़ में जाकर भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग बंद करा दीं। ये बात मुझे पता चली तो मैंने दादा को बताया, वो उस दिन पुणे में किसी फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। दादा की दरियादिली देखिए, उन्होंने वहीं से फोन करके इन फिल्मों के निर्माताओं से बात की और कहा कि उनके विवाद के चलते वो भोजपुरी सिनेमा का नुकसान कतई नहीं चाहते। अगले दिन निजी दिलचस्पी लेकर मिथुन चक्रवर्ती ने किसी भी यूनियन को किसी भी भोजपुरी फिल्म की शूटिंग से दूर रहने को कहा। लेकिन फिल्म भोले शंकर में उनकी ऐक्टिंग को लेकर असमंजस अब भी कायम था।
दो तीन दिन बाद मिथुन वापस मुंबई लौटे, पता चला कि वो फिल्म सिटी में फिल्म सी कंपनी की शूटिंग कर रहे हैं। मैं वहां जाकर उनसे मिला तो महसूस हुआ कि बिना बात के बतंगड़ ने इस भले कलाकार को कितना दुखी कर दिया है। मिथुन हमेशा से दूसरों की मदद करने के लिए आगे आते रहे हैं। लेकिन, फिल्म भोले शंकर की शूटिंग में वो चाहकर भी शरीक नहीं हो पा रहे थे। उन्होंने उस दिन यहां तक कह दिया कि आपका प्रोड्यूसर परेशान हो तो वो साइनिंग अमाउंट वापस करने को तैयार हैं, लेकिन मैंने भी दादा से कह दिया कि फिल्म भोले शंकर में अगर कोई शंकर बनेगा तो वो मिथुन ही होंगे और इसके लिए मुझे उनका झगड़ा खत्म होने का इंतज़ार करने में कोई गुरेज नहीं। कहकर मैं वहां से वापस लौट आया। और उसके कोई हफ्ते दस दिन बाद ही दादा का मेरे पास फोन आया, बोले, “शुक्लाजी, जो भी परेशानी हुई उसके लिए माफी चाहता हूं। भोले शंकर की शूटिंग कब शुरू करनी है?” भोले शंकर की शूटिंग करने पहुंचे मिथुन चक्रवर्ती का कैसा रहा पहला दिन? और कैसे पूरी यूनिट को बना लिया दादा ने पहले ही दिन अपना मुरीद? जानने के लिए पढ़ते रहिए- कैसे बनी भोले शंकर?




गुरुवार, 20 नवंबर 2008

बेरोज़गारी से दो दो हाथ...


भोले शंकर (21)॥गतांक से आगे...

फिल्म भोले शंकर की कहानी अब तक आप लोगों को काफी कुछ साफ हो चुकी होगी। ये कहानी एक विधवा मां और उसके दो बेटों की है। ये कहानी बताती है कि कैसे एक बेसहारा मां अपने बच्चों को अपने बल बूते पाल पोस कर बड़ा करती है। ये कहानी बताती है कि कैसे समाज के उसूल एक औरत से उसकी शादीशुदा ज़िंदगी का सुख छीन लेते हैं। और, ये कहानी ये भी बताती है कि अगर इंसान चाहे और परिवार का साथ मिले तो गांव का भी एक बच्चा पढ़ लिखकर अपने बूते कुछ बन सकता है। इसके लिए ज़रूरी नहीं कि वो सरकारी नौकरी ही करे, बेरोजगारी अपने देश की बड़ी समस्या है और इससे देश के किसी भी कोने का युवा वर्ग अछूता नहीं है। लेकिन अगर आज के युवा बजाय सीधी सादी सरकारी नौकरी के, किसी हुनर में अपना हाथ साफ करें, तो रोज़गार के अवसर आज भी कम नहीं हैं। चूंकि मेहनत का रास्ता कठिन और परेशान कर देने वाला होता है, लिहाजा कई बार बुरी संगत में पड़कर शंकर जैसे लोग गलत रास्तों पर भी निकल जाते हैं, लेकिन भोले जैसे लोग चाहें तो राह भटके लोगों को भी फिर से विकास की मुख्यधारा में जोड़ सकते हैं।

इधर भोले शंकर की मेकिंग हर दिन आप तक नहीं पहुंच पा रही है। इसके लिए मैं आप लोगों से माफी चाहता हूं। कुछ नित्य जीवन की उठा पटक और कुछ दूसरे प्रोजेक्ट्स के लिए भागदौड़ के चक्कर में इस बार अंतराल कुछ लंबा ही हो गया। चुनाव आते हैं, वादे होते हैं, लेकिन नेताओं की गाड़ियों के गुबार की तरह हर बार पीछे रह जाते हैं आम लोगों के सपने। ऐसा ही एक सपना फिल्म भोले शंकर के भोले ने देखा है। लेकिन मां की संगीत से दूर रहने की ज़िद के आगे उसने अपना सपना कुर्बान कर दिया। दोस्त यार सब जानते हैं कि भोले बढ़िया गाता है। भोले के गुरुजी भी चाहते हैं कि किसी दफ्तर में क्लर्की या खेत में किसानी करने की बजाय भोले अपने इस हुनर को रियाज़ से मांजे और गांव का नाम पूरी दुनिया में रौशन करे। लेकिन, मां की मर्जी जब तक नहीं होती, वो भला कैसे मीलों दूर मुंबई जा सकता है।

तमाम असमंजस के बाद मां भोले को मुंबई जाने की इजाज़त दे भी देती है, लेकिन शोहरत के शिखर पर पहुंचना आसान नहीं होता। जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूं कि भगवान कोई बड़ा ईनाम देने से पहले हमारी काबिलियत का इम्तिहान ज़रूर लेता है, भोले की भी ऐसी ही परीक्षा होती है। और, लखनऊ में गानों की शूटिंग के बाद हमें करनी थी उस सीन की शूटिंग जिसमें भोले के सब्र का ये इम्तिहान होना है। भोले ने अपनी गायिकी के गुण दिखाकर म्यूज़िक कंपनी के अफसरों का दिल तो जीत लिया है, लेकिन म्यूज़िक कंपनी चाहती है कि भोले भोजपुरी रैप तैयार करे। रैप का वैसे तो दूसरी लोक भाषाओं से संगम हो चुका है, ये वो विधा है जिसके ज़रिए आज की पीढ़ी अपनी जड़ों से जुड़ने की कोशिश करती है। पंजाबी की पश्चिमी देशों में लोकप्रियता की एक बड़ी वजह ये भी है, वहां की पुरानी पीढ़ी ने आज के नौजवानों को अपने लोकगीतों को उनके हिसाब से ढालने की मोहलत दे दी है। पंजाबी पॉप और रैप का कनाडा और ब्रिटेन जैसे देशों में इस तरह के संगीत का भरा पूरा बाज़ार है। और, अब वक्त आ गया है जब भोजपुरी को भी विदेशों में पली बसी नई पीढ़ी से जोड़ा जाए। इसी सोच के मद्देनज़र हमने फिल्म भोले शंकर में एक भोजपुरी रैप सॉन्ग भी रखा।

और, आज जिस दृश्य की मैं बात करने जा रहा हूं वो फिल्म में ठीक इस भोजपुरी रैप के पहले आता है। ये वो सीन है जब भोले मुंबई में शंकर के घर से तैयार होकर निकलता है और उसे शो से पहले रिहर्सल करना है। रिहर्सल से ठीक पहले कैसे शंकर की असलियत भोले के सामने खुलती है, इसकी चर्चा बाद में कभी होगी। आज इस सीन की बात। तो भोले घर से निकलकर हॉल में पहुंच चुका है। ना मां को पता है कि भाइयों के बीच क्या हुआ और ना ही गुरुजी जानते हैं कि भोले परेशान क्यों है? ये पूरा सीन करीब 18 शॉट्स में पूरा हुआ, जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूं कि भोजपुरी सिनेमा में किसी सीन को कम से कम शॉट्स में पूरा करने की परंपरा चली आ रही है और शायद इसीलिए भोजपुरी सिनेमा को वो दर्जा अब तक हासिन नहीं हुआ जो बस एक एक प्रदेश की भाशा होने के बावजूद तमिल, तेलुगू और मलयालम सिनेमा को हासिल हो चुका है। भोजपुरी सिनेमा के ज़्यादातर कलाकार से लेकर तकनीशियन तक काम को किसी तरह निपटाने में लगे रहते हैं, मेरी और मनोज तिवारी की तक़रार की वजह यही रही।

इस पूरे सीन में गौरी के आने से पहले तक मनोज तिवारी को बस एकाध लाइन के ही संवाद बोलने थे, बाकी पूरा उनका अभिनय बस चेहरे पर भावों का प्रकटीकरण ही था। सीन शुरू होता और मैं माइक पर वो शंकर के वो संवाद बोलने लगता, जो भोले के अवचेतन मष्तिष्क में घुमड़ रहे हैं। शंकर की बातें याद कर करके भोले परेशान है। वो गा नहीं पा रहा है। गुरुजी आते हैं और भोले को हौसला बंधाते हैं, लेकिन भोले गा नहीं पा रहा। इस सारे सीन में भोले को अपने चेहरे पर परेशानी के भाव दिखाने थे और मनोज तिवारी का उस दिन मूड काफी खुशनुमा था। लेकिन एक दो बार सीन को लेकर मेरी और मनोज तिवारी की तक़रार हुई तो मैं भी थोड़ा तनाव में आ गया और मनोज तिवारी भी। परंतु ये बात मैंने ज़ाहिर नहीं होने दी क्योंकि मुझे तो वैसे भी मनोज तिवारी के चेहरे पर तनाव ही चाहिए था। अब सिचुएशन ये बनी कि मनोज तिवारी मेरी किसी बात से चिढ़कर तनाव में थे और मैं शॉट पर शॉट लिए जा रहा था क्योंकि उनके चेहरे पर ठीक वैसे ही भाव आ चुके थे, जैसे मुझे अपने सीन के लिए चाहिए थे।

तनाव का सीन खत्म हुआ तो एंट्री होनी थी गौरी यानी मोनालिसा की। मोनालिसा की ऐक्टिंग तो वैसे ही परफेक्ट होती है। उसे इस सीन में पहले भोले का हौसला बंधाना था और भोले के फिर भी ना गा पाने पर रोते हुए हॉल से बाहर भाग जाना था। महज दो तीन रिहर्सल में ही सारे शॉट्स ओके हो गए हालांकि इस सीन को भी मैंने छह शॉट्स में बांटा था। मोनालिसा ने इन शॉट्स में भी कमाल की ऐक्टिंग की है। अगले दिन मनोज तिवारी का पैकअप था, मैंने मनोज से चार दिसंबर से 15 दिसंबर तक का ही समय लिया था और आज तेरह दिसंबर ही थी। अगले दिन सुबह सुबह हमने मनोज के कुछ सीन्स उस गाने की खातिर लिए जिसमें रंभा स्टेज शो के दौरान भोले को रिझाने की कोशिश करती है। गाना हम पहले ही शूट कर चुके थे, बस अगले दिन सुबह सुबह हमने मनोज तिवारी, गोपाल के सिंह और अजय आज़ाद को बिठाकर तीनों के रीएक्शनस शूट किए और हो गया हमारा लखनऊ से रवानगी का वक्त। तय शेड्यूल से एक दिन ही हमारा लखनऊ शेड्यूल पूरा हो गया। अगले अंक में हम लौटेंगे मुंबई और जानेंगे कि फिल्म भोले शंकर के लिए मिथुन चक्रवर्ती के पहले दिन की शूटिंग से पहले हुई कितनी भागदौड़? आप पढ़ते रहिए – कैसे बनी भोले शंकर?

और हां, चलते चलते आज की ताज़ा खबर। आजीवन ब्रह्मचारी रहने की ठाने बैठे फिल्म भोले शंकर के असिस्टेंट डायरेक्टर अज़य आज़ाद पर गोरखपुर की एक मेनका का जादू चल गया है। कल रात वो सात फेरे लेकर गृहस्थी की गाड़ी के हकैया बन गए हैं। अजय आज़ाद को भोले शंकर की पूरी टीम की तरफ से हार्दिक बधाई।

कहा सुना माफ़,
पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

उस दिन मैं बाथरूम जाकर खूब रोया...

हिंदी मीडिया के नंबर 1 पोर्टल भड़ास 4 मीडिया से साभार
Written by यशवंत सिंह
सपने देखने वाले उसे किस तरह यथार्थ में बदल देते हैं, पंकज शुक्ल भी इसके उदाहरण हैं। एक सामान्य देहाती और हिंदी वाला नौजवान बिना गॉडफादर के, उबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते हुए एक दिन मंजिल के करीब पहुंच जाता है, पंकज का जीवन इसका प्रतीक है। अखबार, टीवी के बाद अब फिल्म क्षेत्र में पंकज ने अपने काम से नाम कमाया है। 'भोले शंकर' बनाकर पंकज ने वर्षों के अपने सपने को पूरा किया। पिछले दिनों दिल्ली आए पंकज ने भड़ास4मीडिया के एडीटर यशवंत सिंह से खुलकर बातचीत की।
उन्होंने अखबार और टीवी की नौकरी के दौरान की कई घटनाएं बताईं। कई जानकारियां तो आंख खोलने वाली थीं। उनकी बातें बेबाक और दिलचस्प लगीं। इसे देखते हुए तय किया गया कि हिंदी के इस हीरो की दास्तान को भड़ास4मीडिया के पाठकों तक भी पहुंचाया जाए। इसीलिए इस बार हमारा हीरो में पंकज शुक्ल। उम्मीद है इंटरव्यू पसंद आएगा।
-पंकज जी, जर्नलिज्म में लंबी पारी खेलने के बाद अब आपने फिल्म बनाने का सपना 'भोले-शंकर' के जरिए पूरा किया। इस वक्त आप अपने सपने को जी रहे हैं, कैसे पूरा हुआ ल लाइफ का रीयल सपना?
--हां, जरा रुक कर देखता हूं, तो सब सपने जैसा ही लगता है। कभी चोरी छिपे फिल्में देखने वाला गांव देहात का एक लड़का मुंबई पहुंचकर भोजपुरी की सबसे महंगी फिल्म बनाएगा, शायद ही किसी ने सोचा होगा। लेकिन, बरसों पहले मिथुन चक्रवर्ती के बांद्रा वाले घर के सामने बने पार्क में बैठकर मैंने एक सपना देखा था। वो सपना भोले शंकर की कामयाबी के साथ पूरा हो गया है। वो कहते हैं कि ना कि सपने होंगे तो सच होंगे। इंसान को सपने ज़रूर देखने चाहिए क्योंकि तभी वो उनको सच करने के लिए मेहनत करता है।
भोले शंकर की प्लानिंग मैंने तब की थी, जब मैं ज़ी न्यूज़ में डेली और वीकली स्पेशल प्रोग्रामिंग देखता था। ज़ी न्यूज़ में मैं चुनाव डेस्क का भी प्रभारी रहा। चुनावों के दौरान ही मैंने मुनीष मखीजा (चैनल वी के ऊधम सिंह और पूजा भट्ट के पति) को लेकर वोट फॉर चौधरी और मनोज तिवारी को लेकर वोट फॉर खदेरन सीरीज़ बनाई थी। दोनों सीरीज़ हिट रहीं और इसी दौरान मेरा मनोज तिवारी से नजदीकी रिश्ता बना। फिल्म को बनाने का मेरा सपना पूरा करने में मेरे करीबी हरीश शर्मा ने मदद की। मुझे फिल्म के निर्माता गुलशन भाटिया से मिलवाकर। यहां तक किस्मत ने साथ दिया और इसके बाद मैंने दिन रात मेहनत करके इस फिल्म को सिनेमाघरों तक पहुंचाया।
-रास्ता लंबा रहा, सफ़र कठिन। शुरुआती सफ़र पर रोशनी डालें?
--मैंने जो भी कामयाबी पाई, वो काफी मुश्किलों को झेलने के बाद पाई। घर वाले मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे। सीपीएमटी में दूसरी बार पास तो हुआ लेकिन सेलेक्शन बीएचएमस के लिए हुआ। घर वाले एमबीबीएस से नीचे वाले को डॉक्टर नहीं मानते थे। हालात ऐसे बदले कि मैं बंबई भाग गया। वहीं, पृथ्वी थिएटर के चक्कर लगाने के दौरान फिल्मी सितारों से मिलना-जुलना शुरू हुआ। उन दिनों मैं मुंबई की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम भी करने लगा था। मुंबई में ही मैंने होटल मैनेजमेंट का शॉर्ट टर्म कोर्स भी किया। फिर बीच में घर आया यूपी सैनिक स्कूल, लखनऊ में संपत्ति प्रबंधक के लिए वैकेंसी निकली। इंटरव्यू देने गया और सेलेक्शन भी हो गया। इसी के साथ मुंबई से बना मेरा पहला रिश्ता टूट गया। इस सरकारी नौकरी के दौरान ही मुझे पहली बार भ्रष्टाचार का अंदाजा हुआ। कहने को तो इस स्कूल के आला अफसरान एयर फोर्स के बड़े अधिकारी थे, लेकिन सब चाहते थे कि मैं भ्रष्टाचार की उनकी योजनाओं का हिस्सा बनूं। मैंने इस सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर एक दो जगह और नौकरियां की। दैनिक जागरण ग्रुप का कानपुर में जब पहला स्कूल पूर्णचंद्र विद्यानिकेतन खुला तो मैं वहां भी संपत्ति प्रबंधक था। राजीव गांधी ने इस स्कूल का उदघाटन किया था। शायद मेरी मंजिल वो नहीं थी, जिसे मैं अपना मान रहा था। लिहाजा यहां भी ज़्यादा दिनों तक टिक नहीं पाया। तब दैनिक जागरण के मालिकों में से एक महेंद्र मोहन गुप्त ने मेरी रवानगी के कागज़ पर दस्तखत किए थे। तभी मैंने तय किया था कि कुछ ऐसा करना है कि दैनिक जागरण वाले मुझे बुलाने पर मज़बूर हो जाएं। भारतीय विद्या भवन से पत्रकारिता का कोर्स करने के बाद ऐसा हुआ भी। अमर उजाला में कानपुर से मुरादाबाद, वहां से बरेली और मेरठ होते हुए जब मैं नोएडा आया तो राजीव सचान एक बार मुझसे मिलने आए और कभी दफ्तर आकर मिलने की बात ज़ोर देकर कह गए, वो दैनिक जागरण की तरफ से आया पहला फीलर था।
अमर उजाला ने मुझे बहुत कुछ सिखाया। राजुल माहेश्वरी ने हमेशा बड़े भाई जैसा स्नेह दिया। इसी अखबार ने मुझे हिंदी सिनेमा में एक पहचान दिलाई। लेकिन, इस अखबार को मुझे दुखद हालात में छोड़ना पड़ा। फिल्म रहना है तेरे दिल में की न्यूज़ीलैंड में शूटिंग कवरेज के लिए दिल्ली से जाने वाले तीन पत्रकारों में से टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदू के अलावा हिंदी अखबारों से सिर्फ मेरा ही चयन फिल्म के निर्माता वाशू भगनानी ने किया था। लेकिन, अमर उजाला के तत्कालीन संपादक राजेश रपरिया को शायद मेरा तेज़ी से आगे बढ़ते जाना (इसी साल मुझे मातृश्री पुरस्कार मिल चुका था और नेशनल फिल्म अवार्ड में बेस्ट फिल्म क्रिटिक कैटगरी के लिए भी नामांकन हुआ) अच्छा नहीं लगा। विदेश दौरे पर जाने की अनुमति के फॉर्म पर खुद हस्ताक्षर करने के बावजूद राजेश रपरिया ने मालिकों को ये बताया कि मैं बिना किसी को बताए विदेश चला गया हूं। लौटकर आया तो उन्होंने एक हफ्ते की छुट्टी पर जाने को कहा। मैं इसके बाद दफ्तर ही नहीं गया। फिल्म रहना है तेरे दिल में की एक भी रपट अमर उजाला में नहीं छपी, इसके बावजूद वाशू भगनानी से मेरे रिश्ते आज भी इतने करीबी हैं, कि वो मेरे हर एसएमएस का जवाब देते हैं और अरबों रुपये के रीयल स्टेट कारोबार में बिज़ी रहने के बावजूद एक फोन कॉल पर ही मिलने का समय दे देते हैं। राजेश रपरिया के केबिन से निकलकर मैं सीधे दैनिक जागरण के संपादक संजय गुप्ता से मिलने चला गया। उन्होंने एक दो टेढ़ी बातें की लेकिन, अगले दिन से ही ज्वाइन करने की बात भी कह दी, फिर शायद मालिकों का अहं बीच में आड़े आ गया, या पता नहीं क्या हुआ। मामला टलता गया और फिर मैंने बीएजी ज्वाइन कर लिया, इसके बाद दूरदर्शन के लिए खबरों की दुनिया कार्यक्रम का आउटपुट देखा और वहां से ज़ी न्यूज़ पहुंच गया।
-यूपी के एक गांव से गोरेगांव तक, मतलब फ़िल्म सिटी तक के सफ़र में आपको कितना वक़्त लगा?
--मेरा गांव मंझेरिया कलां, उत्तर प्रदेश के ज़िला उन्नाव में गंगा के किनारे है। और, इन दिनों रहता हूं गोरेगांव के करीब, तो सवाल आपका बिल्कुल ठीक है। लेकिन दिलचस्पी जगाने वाले किस्से तमाम हैं। रिश्तों में यकीन रखने वाला हिंदी सिनेमा कैसे काम करता है इसका एक दिलचस्प किस्सा है। मीडिया में साल के आखिर में वार्षिकी बनाने की परंपरा है। ज़ी न्यूज़ में ऐसे ही एक कार्यक्रम की एंकरिंग कराने के लिए सीनियर्स ने महेश भट्ट का नाम तय किया। इससे एक साल पहले जब अलका सक्सेना आउटपुट देखती थीं तो सारे विषयों पर वार्षिकी मैंने ही बनाई थी, लेकिन इस साल निज़ाम बदल चुका था और नए निज़ाम में ऐसे लोगों की पूछ बढ़ गई थी, जो बैठकी में यकीन करते थे। मैं उस दिन अपने गांव में था जब मेरे पास नोएडा से फोन आया कि महेश भट्ट से एंकरिंग करानी है। मैंने वहीं गांव से ही फोन किए, महेश भट्ट का समय लिया और अनुरोध किया वो जाकर ज़ी न्यूज़ के लोअर परेल दफ्तर में एंकरिंग कर दें। महेश व्यस्त थे, वो रात 12 बजे समय निकाल पाए। जूहू से जाकर उन्होंने लोअर परेल में एंकरिंग की और काम खत्म करने के बाद रात डेढ़ बजे मुझे फोन किया। महेश ने कहा, "अपने मालिकों को बता देना कि ये काम मैंने सिर्फ पंकज शुक्ल के लिए किया है। ज़ी के लिए नहीं।" इसके कुछ दिनों बाद ज़ी न्यूज़ के संपादक राजू संथानम और सीईओ हरीश दुरईस्वामी मुंबई गए महेश भट्ट से मिलने। महेश भट्ट ने कहा कि ज़ी न्यूज़ में तो वो एक ही आदमी को जानते हैं और वो हैं पंकज शुक्ल। मुझे उसी दिन लग गया कि ज़ी न्यूज़ का नया निज़ाम अब मुझे चैन से रहने नहीं देगा।
-जर्नलिज़्म के दिनों में प्रिंट में आपका स्ट्रगल कैसा रहा?
--प्रिंट की फुल टाइम नौकरी अमर उजाला में शुरू करने से पहले भी मैं दूसरे अखबारों में लिखता रहा। योगेन्द्र कुमार लल्ला जब स्वतंत्र भारत में थे, तो उन्होंने मुझे बहुत प्रोत्साहन दिया। बाद में अमर उजाला में भी उनके सानिध्य में काम करने का अवसर मिला। प्रिंट में मेरे लिए हर दिन एक नया स्ट्रगल लेकर आता था। खेमेबाजी में यकीन ना रखने के कारण मैं हर गुट के निशाने पर रहता था, लेकिन मेरा काम ऐसा था कि कोई चाहकर के भी कुछ नहीं कर पाता था।
अमर उजाला में रहते हुए ही मैंने प्रियंका गांधी और रॉबर्ट वढेरा की प्रेम कहानी के राज़ खोले थे। मैंने ये पता लगाया था कि आखिर देश के प्रधानमंत्री की बेटी कैसे मुरादाबाद के एक बिज़नेसमैन के बेटे पर फिदा हो गई। अमर उजाला में ये कहानी पहले पन्ने पर ऑल एडीशन छपी। इसे पढ़कर दिल्ली के तमाम पत्रकार मुरादाबाद पहुंचे और इन्हीं में से एक थीं भावदीप कंग। उन्होंने मुझसे कहा, "यू आर वेस्टिंग योर टाइम एंड एनर्जी एट रॉन्ग प्लेस। योर राइट प्लेस इज़ इन देहली।"
मुरादाबाद में ही रहते हुए मैंने तब असम के लॉटरी किंग और अब सांसद एम एस सुब्बा की एक ऐसी खबर निकाली थी, जो अमर उजाला के मालिक प्रकाशित करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। इसके लिए मैं दिल्ली आया और कनॉट प्लेस मे हनुमान मंदिर के पास चलने वाले दफ्तर एस एस एसोसिएट्स से तमाम कागज जुगाड़ कर ले गया था। ये खबर कई दिनों तक मुरादाबाद से बरेली और बरेली से मेरठ के बीच बंडलों में टहलती रही और बाद में मुरादाबाद के एडीटोरियल चीफ नर नारायण गोयल ने मेरे सामने ये सवाल रख दिया कि अगर ये खबर छपी तो अमर उजाला में रोज़ मिलने वाला एक पेज का लॉटरी विज्ञापन बंद हो जाएगा। अब बताओ खबर छापें या ना छापें। हार्ड न्यूज़ से मोह भंग करने वाली मेरे करियर की ये सबसे बड़ी घटना रही।
-कलम के सिपाही से आप अचानक कंप्यूटर और कैमरे के खिलाड़ी बन गए?
--असली पत्रकार के लिए प्रिंट ही सही जगह है। टीवी का आकर्षण मुझे खींच तो लाया, लेकिन इस मीडियम में कम से कम हिंदी चैनलों में ना तो क्रिएटिविटी बची है और ना ही कुछ अच्छा करने की गुंजाइश। जब अच्छे-बुरे में फर्क करने वाले ही सीनियर पोस्ट पर ना हों तो अच्छे-बुरे में फर्क करे कौन। जो अच्छे सीनियर हैं, वो रीढ़ से कमज़ोर हैं। कहा जाता है कि अच्छे लोग पत्रकारिता में आना नहीं चाहते। मैं कहता हूं कि अच्छे लोगों की परिभाषा क्या है? कौन है अच्छा जो संस्थान के लिए दिन रात एक करता है या फिर वो जो संपादकों की हर बात में हां में हां मिलाता है। आज के संपादकों को ना सुनने की आदत नहीं रही। वो बहस में यकीन नहीं करते। कुर्सी बड़ी होते ही पत्रकार के चोले पर स्वास्तिक का जर्मन निशान चमकने लगता है। खुद खेमेबाजी को बढ़ावा देने वाले पंडित दूसरों को हितोपदेश देते दिखते हैं।
लेकिन, सारे संपादक ऐसे ही होते हैं, ऐसा भी नहीं है। ज़ी न्यूज़ का एक वाक्या यहां बताना चाहूंगा। मशहूर अभिनेता प्राण के जन्मदिन पर मैंने एक कार्यक्रम बनाया- बॉलीवुड के प्राण। रात आठ बजे ये कार्यक्रम प्रसारित होना था और उसी दिन सानिया मिर्ज़ा किसी अहम मुकाबले में थी। रात आठ बजे से ये मैच शुरू होना था और साढ़े सात बजे से सारे चैनलों पर सानिया ही सानिया चलने लगा। उस दिन अलका सक्सेना ने फैसला लिया कि नहीं, हम प्राण वाला प्रोग्राम ही चलाएंगे। उनका फैसला सही साबित हुआ क्योंकि टीआरपी आई तो रात आठ बजे के स्लॉट में ज़ी न्यूज़ सबसे आगे था।
-न्यूज़ चैनल की दुनिया में पैनिक का निजी ज़िंदगी पर कितना असर महसूस किया?
--अक्टूबर 2002 से लेकर मई 2007 तक ज़ी न्यूज़ में रहा। इस दौरान किसी भी रिश्तेदार के यहां खुशी-ग़म में शरीक न हो सका। यहां तक कि बेटी के पैर में जब फ्रैक्चर हुआ तो भी मैं ऑफिस जाता रहा। वो सिर दर्द की शिकायत करती रही लेकिन डॉक्टर के पास ले जाने का वक्त तक नहीं निकाल सका। बाद में पता चला कि उसकी आंखें इतनी कमज़ोर हो गईं हैं कि उसे हमेशा के लिए नज़र का मोटा चश्मा लगाना पड़ेगा। मेरी बहन एक बार बहुत गंभीर हालत में थी। मुझे उसे देखने रायबरेली जाना था। लेकिन ऐन मौके पर आउटपुट हेड विनोद कापड़ी ने मेरी छुट्टी कैंसिल कर दी। मैं उस दिन बाथरूम में जाकर खूब रोया। नसीरुद्दीन शाह का इंटरव्यू लेने मुंबई पहुंचा तो कमर तक पानी में चलकर होटल पहुंचा। घुटनों तक पानी में चलकर उनके दफ्तर गया, टाइम फिक्स करने। लौटकर आया तो बीमार पड़ गया, लेकिन आरोप लगा कि अलका सक्सेना के जाने के बाद से मैं पूरे मनोयोग से काम नहीं करता हूं। ज़ी न्यूज़ में 2006 के आखिर तक शायद ही ऐसा कोई दिन हो जब मैंने 12-14 घंटे काम न किया हो।
-टीवी जर्नलिज़्म में आपने नया क्या किया?
--ये बातें अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने जैसी लगती है। ज़ी न्यूज़ में मेरे रहने के दौरान जो भी नया दैनिक या साप्ताहिक कार्यक्रम शुरू हुआ, उसका आइडिया भी मेरा होता था और एक्जक्यूशन भी। जो नए प्रोग्राम मैंने ज़ी न्यूज़ में शुरू कराए, उनमें से कुछ आज भी चल रहे हैं, मसलन, प्राइट टाइम स्पेशल, बोले तो बॉलीवुड, मियां बीवी और टीवी, बचके रहना। बाद के तीनों कार्यक्रमों के नाम अब बदल गए हैं लेकिन स्वरूप बहुत कुछ वैसा ही है। मैंने बॉलीवुड बाज़ीगर, भूत बंगला, होनी अनहोनी और लिटिल स्टार्स जैसे कार्यक्रम भी बनाए। ये कार्यक्रम मेरे ज़ी न्यूज़ छोड़ने के कुछ ही महीनों बाद बंद हो गए। रूटीन में मुझे घुटन होने लगती है, मेरे साथ दिक्कत ये है कि मेरे अंदर हरदम कुछ चलता रहता है। शायद यही मुझमें नया करने की धुन पैदा करता है।
-संजीदा ख़बरों के बाद बॉलीवुड की गॉसिप में आपकी दिलचस्पी कैसे हुई?
--बॉलीवुड गॉसिप मेरी पसंद कभी नही रही। ये धंधे की मज़बूरी थी। इसकी शुरुआत अमर उजाला के रंगायन में पहले पन्ने के लिए गॉसिप तलाशने से हुई। बाद में ये रोग टीवी में भी आ गया। लेकिन, गॉसिप के इस रोग ने मुझे व्यक्तिगत तौर पर बड़ा नुकसान पहुंचाया है। आमिर खान के कथित नाजायज बच्चे के बारे में स्टारडस्ट में छपी एक रिपोर्ट को एक बार सारे चैनलों ने खूब चलाया। ये खबर ज़ी न्यूज़ पर भी चली। मैंने इसका विरोध भी किया लेकिन किसी चैनल पर खबर चलाने के लिए संबंधित बीट या डेस्क देखने वाले का सहमत होना ज़रूरी नहीं होता। शाम को खबर चली और रात को आमिर खान का मेरे पास एसएमएस आया, "आई प्रे टू गॉड दैट हू एवर हैज़ बीन एसोसिएटेड विद दिस न्यूज़ ऑफ किलिंग माइ कैरैक्टर शुड गेट हिज़ ड्यूज़ इन दिस लाइफ ओनली।" इस गॉसिप न्यूज़ ने मेरा आमिर खान के साथ रिश्ता हमेशा के लिए तोड़ दिया। ज़ी न्यूज़ पर ये इसके बावजूद हुआ कि मंगल पांडे की रिलीज़ के बाद विदेश से लौटने पर सबसे पहला इंटरव्यू आमिर खान ने मेरे प्रयासों से ज़ी न्यूज़ को ही दिया था। ज़ी न्यूज़ तो इसके बाद मुझसे छूट गया, लेकिन आमिर खान से रिश्ते दोबारा पहले जैसे नहीं हो पाए।
-चैनलों में आपका सबसे ज़्यादा वक़्त ज़ी न्यूज़ में गुज़रा, कुछ किस्से?
--साहब, टीवी चैनल की दुनिया अपने आप में एक किस्सा है। इसके कुछ नज़ारे आपको मेरी एक आने वाली फिल्म में भी दिखाई देंगे। यहां हर रोज़ एक नया किस्सा बनता है। यहां आपको कब किसी और के सामने मोहरा बनाकर पेश कर दिया जाए, पता ही नहीं चलता।
ज़ी न्यूज़ में आने से पहले 2002 में ही मैंने आज तक में आवेदन किया था। टेस्ट पास किया और फिर अरुण पुरी, प्रभु चावला, उदय शंकर और दूसरे लोगों की पूर्ण पीठ ने मेरा इंटरव्यू लिया। बीट वगैरह की भी बात होने लगी थी। लेकिन, इंटरव्यू के आखिरी सवाल का मेरा जवाब शायद उन लोगों को बेतुका लगा। उदय शंकर ने मुझसे पूछा कि आज से पांच साल बाद आप खुद को कहां देखना चाहते हैं। मैंने बिना एक पल सोचे बोल दिया- एक फिल्म डायरेक्टर के तौर पर। पता नहीं अरूण पुरी, प्रभु चावला और उदय शंकर को अब याद हो ना हो, लेकिन मुझे अपना जवाब याद रहा। 30 नवंबर 2007 को बतौर फिल्म डायरेक्टर मैंने पहला सीन शूट किया।
अब बात ज़ी न्यूज़ की। अलका सक्सेना जब प्रोग्रामिंग देखती थीं, तो उन्होंने मुझे इंटरटेनमेंट चीफ बनाकर नोएडा से मुंबई भेजने की बात डायरेक्टर लक्ष्मी गोयल जी से की। अगले ही दिन आदेश भी पारित हो गया। लेकिन, ज़ी न्यूज़ के तत्कालीन आउटपुट हेड विनोद कापड़ी को ये बात अच्छी नहीं लगी। उनके खास पराग छापेकर के जिम्मे तब ये काम था। उन्होंने मुझे इमोशनली तैयार किया कि मैं मुंबई जाने के लिए मना कर दूं। विनोद कापड़ी ने ही ज़ी न्यूज़ में मेरा इंटरव्यू कराया था, लिहाजा इस एहसान को मानते हुए मैंने ऐसा कर भी दिया। लेकिन टीवी में ये मेरा सबसे गलत फैसला था। एक किस्सा इसी के बाद और हुआ जिसने अलका सक्सेना का भरोसा मेरे ऊपर फिर कायम कर दिया। उस दिन ज़ी न्यूज़ पर गुड़िय़ा मामले में पंचायत लगी थी। मैं दफ्तर में सुबह से था। देर रात तक अलका ने इस पंचायत को होस्ट किया। वो कार्यक्रम खत्म करके निकलीं तो मैं घर के लिए जा ही रहा था। रास्ते में मुझे देखते ही वो बोलीं कि ये कार्यक्रम एडिट होकर एक घंटे का करना है और कल सुबह रिपीट होना है। मैंने कहा- हो जाएगा। उन्होंने पूछा- कैसे। मैंने कहा- ये मैं देख लूंगा। मैं उस रात घर नहीं गया। ज़ी न्यूज़ के काबिल वीटी एडीटर्स में से एक प्रशांत त्यागी को मैंने अपने साथ लिया और पूरी रात बैठकर प्रोग्राम एडिट किया। सुबह जब प्रोग्राम टेलीकास्ट हो गया तो दफ्तर से ही अलका जी को फोन किया और फिर घर गया।
इसी तरह अमिताभ बच्चन पर एक बार एक घंटे का प्रोग्राम बनना था तो मैं दो दिन तक लगातार काम करता रहा। मेरे सहायक बदलते गए, लेकिन मैं लगातार 48 घंटे काम करता रहा। महाराष्ट्र इलेक्शन के दौरान बेगम अख्तर पर प्रोग्राम बनाने का आइडिया आया तो चुनाव के साथ साथ इसमें भी जुट गए। मैं सौभाग्यशाली रहा कि टीवी में मुझे कुछ बहुत ही अच्छे सहयोगी मिले। उनमें से कुमार कौस्तुभ, गिरिजेश मिश्र, अश्वनी कुमार, राकेश प्रकाश, पृथा रुस्तगी और अजय आज़ाद का मैं नाम यहां ज़रूर लेना चाहूंगा।
-टीवी के दौर का कोई ऐसा लम्हा जिसने सपने देखने वाली आपकी आंखों में आंसू ला दिए?
--ज़ी न्यूज़ की रिपोर्टिंग टीम के साथी दिलीप तिवारी किसी कवरेज के लिए चित्रकूट गए थे। वहां उन्हें एक ऐसा बच्चा मिला जो वहां घूमने आए एक परिवार से काफी पहले बिछड़ गया था। आउटपुट हेड संजय पांडे ने स्टोरी का जिक्र मुझसे किया। अनुरोध किया कि इस पर लाइव रीएल्टी शो की ज़िम्मेदारी मैं संभालूं। हम लोगों ने इस स्टोरी को शाम सात बजे से चलाना शुरू किया। रात दस बजे से पहले ही हमने इस बच्चे के माता-पिता को गुजरात में खोज निकाला। गुजरात में इस बच्चे के माता-पिता के घर में टीवी तक नहीं था। रिश्तेदारों से उनका पता हमें चला। इस बच्चे को इसके रिश्तेदार ने जब टीवी पर पहचाना तो मेरी आंखों में आंसू आ गए। इस बच्चे का इसके माता-पिता से मिलन भी ज़ी न्यूज़ ने अगले दिन करा दिया। लेकिन, मेरा दिल तब बहुत रोया जब संजय पांडे ने कुछ दिनों बाद मुझे ये बताया कि उन पर किसी ने इस स्टोरी को प्लांट करने का आरोप लगाया है। इस पूरी स्टोरी के पोस्ट प्रोडक्शन और लाइव प्लानिंग में सबसे ज़्यादा ऊर्जा मेरी ही लगी थी, लिहाजा दुख भी मुझे ही ज़्यादा हुआ।
-अमर उजाला के बाद आपकी पारियां छोटी होने लगीं। कोई ख़ास वजह?
--शायद, मैं उस तरफ नहीं जा रहा था जहां नियति मुझे ले जाना चाह रही थी। अमर उजाला में मैं करीब आठ साल रहा। ज़ी न्यूज़ में पांच साल। इसके बाद अलका सक्सेना जी के बुलावे पर मैंने बतौर आउटपुट हेड एमएच वन न्यूज़ चैनल लॉन्च कराया। ई 24 के न्यूज़ कंटेट के लिए अजीत अंजुम जी ने मुझे बुलवाया। इन दोनों चैनलों की लॉन्चिंग के बाद इसके कंटेट को मिली तारीफ ने मुझमें नया हौसला भरा है। टीवी की फुल टाइम नौकरी बहुत ऊर्जा और बहुत समय मांगती है। और, पिछले साल की शुरुआत से ही मैंने तय कर लिया था कि अब एक ही जगह सारी ऊर्जा लगाने से बेहतर है कि इसे ऐसी जगहों पर लगाया जाए जहां मेहनत का सही मूल्यांकन हो सके। मैं फिल्म निर्देशन का काम जारी रखना चाहता हूं, लेकिन ये भी चाहता हूं कि मेरे अंदर का लेखक भी खाद पानी पाता रहे। इसके लिए मैं किसी अच्छे हिंदी अखबार से नियमित तौर पर जुड़ने की ख्वाहिश रखता हूं।
-कुछ ऐसी बातें, जो आपको पीठ पीछे सुनने को मिली हों?
--एक कहावत है कि जब बहुत सारे लोग आपके बारे में बहुत सारी उल्टी बातें करें तो समझ लीजिए कि आप यकीनन बहुत सारा अच्छा काम कर रहे हैं। इस कहावत ने कभी मुझे हौसला नहीं खोने दिया। मेरे बारे में लोग मेरे पीठ पीछे क्या कहते हैं, इससे मुझे बहुत ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता। मेरे साथ जिन लोगों ने काम किया है वो जानते हैं कि मैं जब भी जहां काम करता हूं पूरी ईमानदारी से करता हूं और सिर्फ काम करता हूं। बुराई भी मैं किसी की पीठ पीछे नहीं करता बल्कि जो भी दिल में होता है सीधे मुंह पर कह देता हूं।
मेरे बारे में पीठ पीछे क्या कहा जाता है ये सबसे पहले मुझे दैनिक जागरण के संपादक संजय गुप्ता ने बताया। उनसे मेरी वो पहली और अब तक की आखिरी मुलाकात थी। राजेश रपरिया के रवैये से नाराज़ होकर जब मैं अमर उजाला से निकला तो सीधे संजय गुप्ता के पास गया। उन्होंने कहा कि आपका रहन सहन आपके वेतन से कहीं बेहतर है और इस वजह से लोग कहते हैं कि आप फिल्मों की समीक्षाएं पैसे लेकर लिखते हैं। (तब तक मैं राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में बेस्ट फिल्म क्रिटिक कैटगरी के लिए दो बार नामित हो चुका था।)
फिल्म की समीक्षाओं में उनकी बड़ाई लिखने के लिए हिंदी सिनेमा में पैसे बंटते हैं, ये बात सारे फिल्म समीक्षक जानते हैं। मुझे तो फिल्म मर्डर के दौरान सीधे-सीधे महेश भट्ट ने ऐसा ऑफर किया था। लेकिन, उस दिन की ना ने ही शायद महेश भट्ट जैसे फिल्म मेकर के दिल में मेरे लिए एक सम्मानजनक जगह बना दी। मैं अच्छा खाने और अच्छा पहनने में यकीन रखता हूं। इसके लिए रातों को जाग जागकर मेहनत भी करता हूं। टीवी के लिए मैं तब से लिख रहा हूं जब मैं अमर उजाला के लिए नोएडा आया ही था। तब मैं संजय खन्ना (जिन्होंने दूरदर्शन का मशहूर सीरियल नींव बनाया) के लिए लिखा करता था। इंटरनेट पत्रकारिता के बारे में जब लोग एबीसीडी सीख रहे थे तब मैं अमेरिका से संचालित होने वाली वेबसाइट http://www.smashits.com/ के लिए लेख और समीक्षाएं लिखा करता था। मेरा चयन दिल्ली के तमाम पत्रकारों के बीच से किया गया था और वो भी एक हिंदी अखबार का होने के बावजूद। अमर उजाला में तब मुझे जितनी तनख्वाह पूरे महीने काम करके मिलती थी, उससे कहीं ज़्यादा पैसे मैं इस वेबसाइट के लिए हफ्ते में चार स्टोरी लिखकर कमा लेता था। इसके लिए मैंने अपने घर में उस दौर में इंटरनेट और कंप्यूटर का इंतजाम किया था, जब हिंदी के पत्रकार ई मेल करना भी नहीं जानते थे।
-आपके स्वभाव में प्रेम और गुस्से का प्रपोर्शन क्या है?
--मैं अपने काम से बहुत मोहब्बत करता हूं। इसमें कोई कमी मुझसे बर्दाश्त नहीं होती। मैं अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाने के लिए अधिकार भी चाहता हूं। बिना अधिकार मिले मैं मेहनत नहीं कर पाता। परफेक्शन के लिए सनक की हद तक पागल रहता हूं। जितने भी मेरे करीबी रहे हैं, वो इस बात को जानते हैं। मेरी इसी बात के लिए वो मुझसे प्यार भी करते हैं। मैंने अपने किसी भी सहयोगी को कभी अपना जूनियर नहीं, बल्कि अपना छोटा भाई समझा। रात में घर तक छोड़ने भी गया, एक दो दिन नहीं, कई-कई महीने। बाद के दिनों में हर साल एक ऐसा सहयोगी तैयार किया जो मेरी गैर-मौजूदगी में मेरी जगह संभाल सके। ये सारे लोग मेरे संपर्क में आज भी हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि ये लोग मेरे गुस्से की वजह समझते हैं, इसीलिए बुरा नहीं मानते। मेरी बदकिस्मती रही कि मुझे अपने जैसा बड़ा भाई मीडिया में नहीं मिला।
-टीवी जर्नलिज़्म की सबसे बड़ी ख़ासियत?
--इसकी मार दूर तक होती है।
-टीवी पत्रकारिता की बुराई, एक लाइन में?
--पत्रकार यहां अच्छे वेतन के लालच में पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों का सौदा करते हैं।
-आपने कई लोगों को मौक़े दिए। कुछ बताएंगे इस बारे में?
--महात्मा गांधी का कथन है कि जो अकेले चलते हैं वो तेज़ बढ़ते हैं। मौका दिया तो खैर बहुत बड़ा शब्द है, मैं तो बस चंद लोगों को उनकी सही जगह तक पहुंचाने में माध्यम भर रहा। मैं मानता हूं कि वही उनकी सही जगह थी और मैं नहीं तो कोई और उन्हें वहां तक पहुंचाता। मैंने भी ज़िंदगी में जाने-अनजाने कुछ लोगों के भरोसे को तोड़ा है, तो जब मेरे साथ ऐसी कोई घटना होती है तो मैं उसे उसका प्रतिफल मान लेता हूं। ऐसी हर घटना बहुत ही व्यक्तिगत होती है और उसका जिक्र करना यहां मुनासिब नहीं होगा।
-आप टीवी से दूर, फ़िल्मों के क़रीब हैं। भोले-शंकर के बाद कोई नया प्रोजेक्ट?
--भोले शंकर बिहार, नेपाल और भोजपुरी भाषी कुछ दूसरे क्षेत्रों में रिलीज़ हो चुकी है। फिल्म ने पहले हफ्ते में ही इन इलाकों में अपनी लागत वसूल कर ली। वहां ये फिल्म अब भी कारोबार कर रही है। पंजाब में भी ये फिल्म रिलीज़ होने वाली है। भोले शंकर को हम दीवाली पर मुंबई में रिलीज़ करना चाहते थे, लेकिन महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के आतंक के चलते मुंबई और महाराष्ट्र के सिनेमाघर वाले भोजपुरी फिल्मों के प्रदर्शन के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं।
पिछले एक साल काफी मेहनत की है, अब कुछ आराम करने की और फिर काम करने की इच्छा थी। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। भोले शंकर के बाद इन दिनों मैं एक साथ तीन कहानियों पर काम कर रहा हूं। पहली कहानी मेरे अपने बचपन की कहानी है, जिसमें आज के हालात को जोड़कर मैं हिंदुओं और मुसलमानों के बीच फैल रही खाई को पाटने की कोशिश करना चाहता हूं। दूसरी फिल्म देश में आज़ादी की लड़ाई के दौर की एक ऐसी कहानी है, जिसमें एक गायक परदे के पीछे रहकर आज़ादी के मतवालों की मदद करता है। तीसरी कहानी पत्रकारिता के दिनों के मेरे अनुभवों पर एक कॉमेडी है। इन तीनों कहानियों को तीन अलग-अलग निर्माता पसंद कर चुके हैं, अब शुरू कौन सी पहले होती है, ये कलाकारों की डेट्स पर निर्भर है। दो भोजपुरी फिल्मों के भी ऑफर हैं। फिलहाल मैं भोले शंकर की कामयाबी का जश्न मना रहा हूं।
-चैनलों और फ़िल्मों में आने वाले नए लोगों के लिए पैग़ाम?
--टीवी पर ढोल बजाने का ज़माना जल्द लदने वाला है। ख़बर में यकीन रखने वालों के दिन फिर से बहुरने वाले हैं। जो लोग हिंदी पत्रकारिता सीख रहे हैं और टीवी में आना चाहते हैं, उनके लिए ज़ी न्यूज़ आज भी सबसे अच्छी पाठशाला है। वरना, सही पत्रकारिता देश में अब बस अंग्रेजी चैनलों में बची है। और, अगर आपको ड्रामा, सस्पेंस और सेंसेशन में ही मज़ा आता है, तो फिर आ जाइए फिल्मी दुनिया में, वाकई यहां अच्छी कहानियों की बहुत डिमांड है।
-ब्लॉंग की दुनिया में भी आप सक्रिय हैं। आपके लिए ब्लॉगिंग के क्या मायने हैं?
--मेरे हिंदी ब्लॉग का नाम है thenewsididnotdo.blogspot.com इस पर मैं अभी तक तो अपनी पहली फिल्म के बारे में लिख रहा था। आगे मेरी इच्छा इस पर फिल्म मेकिंग की विधा और भूले बिसरे कलाकारों के बारे में विस्तार से लिखने की है। अवधी भाषा का पहला ब्लॉग भी मैंने शुरू किया है- manjheriakalan.blogspot.com और इसका उद्देश्य अवधी की कुछ चुनिंदा रचनाओं को आज की पीढ़ी तक पहुंचाना है।
-ज़िंदगी को लेकर आपका नज़रिया....?
--जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलेहि न कछु संदेहू।।
(हिंदी मीडिया के नंबर 1 पोर्टल भड़ास 4 मीडिया से साभार- ये इंटरव्यू आप नीचे दिए लिंक पर क्लिक करके भी पढ़ सकते हैं -

रविवार, 26 अक्तूबर 2008

दीवाली मुबारक़...

आओ एक दीया जलाएं..
आओ एक मुस्कान सजाएं।

कहीं किसी दूर बस्ती में कहीं,
कहीं कोई पास में अपना हो यहीं,
इक टूटे हुए दिल में कोई आस जगाएं..
आओ एक दीया जलाएं..
आओ एक मुस्कान सजाएं।।

इन रस्तों में न हो कांटा भी कोई,
भूल जाएं गर हो अदावत भी कोई,
अंधियारे को हर इक दिल से मिटाएं...
आओ एक दीया जलाएं,
आओ एक मुस्कान सजाएं।।

दीवाली मुबारक़।

कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल

शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

जब जब आवे याद तोहार...

भोले शंकर (20). गतांक से आगे...

लखनऊ के आनंदी रिसोर्ट में मोनालिसा और मनोज तिवारी के ऊपर जिस दिन हम लोगों ने - केहू सपना में अचके जगाके - गाने का तीसरा अंतरा शूट किया, उसी दिन सुबह से लेकर दोपहर तक हम लोगों ने एक और गाने के दो अंतरे शूट किए। इनमें से एक अंतरा मोनालिसा पर और दूसरा अंतरा लवी रोहतगी पर फिल्माया गया। इस गाने के बोल हैं- जब जब आवे याद तोहार, ई मनवा तरसे ला....। ये गाना फिल्म में उस वक्त आता है, जब भोले म्यूज़िक कंपनी में अपना ऑडीशन दे रहा होता है, गाने की शुरुआत म्यूज़िक कंपनी के स्टूडियो से होती है और पहला अंतरा भोले ऑडीशन देते हुए गा रहा होता है। इस गाने को गाते हुए उसे गौरी की याद बार बार आती है, गाना मुंबई में शुरू होता है, और दूसरे अंतरे में हम गौरी के पास पहुंच जाते हैं और तीसरा अंतरा लवी पर फिल्माया गया, जिसमें वो भोले को याद कर रही है..।

इस गाने के पहले अंतरे की शूटिंग हमें बाद में मुंबई में करनी थी, लिहाजा हमने लखनऊ में दूसरे और तीसरे अंतरे का शूट पूरा कर लिया। गाने के दूसरे अंतरे में गौरी की विरह वेदना को दिखाया गया है और इसके लिए हमने मोनालिसा का पूरा गेटअप वैसा ही रखा। सफेद परिधानों में लिपटी मोनालिसा ने जब गौरी का रूप धरा तो पूरी यूनिट के लोग उसे देखते ही रह गए। सुबह के आठ बज रहे थे और इधर यूनिट अभी चाय पी ही रही थी और मोनालिसा पूरी तरह तैयार होकर लोकेशन पर पहुंच गई। कैमरामैन राजू केजी और कोरियोग्राफर रिक्की ने मोर्चा संभाला और मैंने उन्हें गाने का स्टोरी बोर्ड समझाना शुरू किया। इस गाने का जो अंतरा मोनालिसा पर फिल्माया गया है, उसे मेरी कल्पना के हिसाब से राजू केजी और रिक्की ने उम्मीद से कहीं बेहतर फिल्माया। मौसम सुबह से ही खुशगवार था और मोनालिसा गाने के बोल सुनकर पूरे जोश में थी, अरसे बाद उसे कोई ढंग का गाना बड़े परदे पर मिला था, जिसमें उसके चेहरे के भावों को पेश किया जाना था। मोना दिल ही दिल में खुश थी लेकिन गाने के हिसाब से उसे करना था रोने का अभिनय। पूरे अंतरे को हमने छह हिस्सों में बांटा और रिसॉर्ट के एक हिस्से में कुएं के आस पास खड़े यूकेलिप्टस के पेड़ों को ध्यान में रखते हुए हमने गाने की शूटिंग पूरी की। मोनालिसा ने इस गाने में खूब मेहनत की।

इसी गाने के दूसरे अंतरे के लिए हमने लोकेशन चेंज की और आ गए रिसॉर्ट के वाटर पार्क के अंदर। रिसॉर्ट के इस हिस्से की अलग अलग जगहों पर हमें गाने का तीसरा अंतरा शूट करना था। दूसरे अंतरे में भोले की याद करती गौरी जहां विरह वेदना से दुखी हैं, वही तीसरे अंतरे में हमें रंभा के अंदर भोले को लेकर उमड़ती काम इच्छा को दिखाना था। बैकग्राउंड को खुशनुमा बनाने के लिए वाटर पार्क के सारे राइड्स ऑन करा दिए गए, और हर राइड पर पानी भी बहने लगा। इस बीच पता चला कि लवी रोहतगी ने नखरे दिखाने शुरू कर दिए हैं। यूनिट के कुछ सीनियर लोगों का कहना था कि हमने लवी को ज़रूरत से ज़्यादा सिर पर चढ़ा रखा है और ये सारे नखरे भी वो तभी दिखा रही है।

वैसे भोले शंकर के लिए मिथुन चक्रवर्ती और मनोज तिवारी के नाम फाइनल होने के बाद हीरोइन्स की बात छिड़ने पर सबसे पहले हम लोग लवी रोहतगी से ही मिले थे और वो इसलिए क्योंकि हम फिल्म में ज्यादा से ज्यादा कलाकार उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले ही लेना चाहते थे। लवी आगरा की रहने वाली है, इसलिए हम लोगों का उसके लिए थोड़ा सॉफ्ट कॉर्नर भी था। लेकिन लवी ने गाने की शूटिंग से ठीक पहले अपना मुंबइया रंग दिखाना शुरू कर दिया। वो अपना पेमेंट कैश में चाहती थी और चूंकि पूरी फिल्म में हमने सारा हिसाब किताब ऑन पेपर रखने का फैसला किया था लिहाजा उसे कैश देना मुश्किल था। चेक लेने को वो राज़ी नहीं हुई, किसी तरह प्रोड्यूसर के बेटे गौरव भाटिया ने उसके लिए कैश का जुगाड़ किया और तब जाकर वो शूटिंग के लिए राज़ी हुई। गाने की डिमांड के लिहाज से लवी को थोड़ा मॉडर्न कपड़े पहनने थे। बामुश्किल वो लोकेशन पर आई और उसके इतना सब नाटक करने के बाद भी हमने उसे परदे पर खूबसूरती से पेश करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। लवी ने इस अंतरे की शूटिंग के बाद एक गलती और कर दी और ये ऐसी गलती थी कि जिसके लिए उसे माफ करना किसी भी प्रोड्यूसर के लिए मुश्किल होता। और कोई प्रोड्यूसर होता तो उसके खिलाफ तगड़ा कानूनी कदम उठा सकता था, लेकिन मेरे समझाने पर गौरव ने बात को रफा दफा कर दिया। लेकिन लवी की नादानी ने मुझे ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि कहीं मैंने उसका सेलेक्शन करके कोई गलती तो नहीं कर दी? अगले अंक में जानिए फिल्म के क्लाइमेक्स से ठीक पहले वाले सीन की शूटिंग को लेकर क्यों हुई मेरी और मनोज तिवारी की तक़रार? पढ़ते रहिए- कैसे बनी भोले शंकर।

कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

लखनऊ में कश्मीर...

भोले शंकर (19). गतांक से आगे...

फिल्म भोले शंकर की मेकिंग के दौरान कई बार ऐसा हुआ कि यूनिट से जुड़े सभी लोगों का सिर ईश्वर के सामने धन्यवाद के लिए झुक गया। कहते हैं कि तकदीर हौसला करने वालों का ही साथ देती है और भोले शंकर का पूरा लखनऊ शेड्यूल इसी हौसले के साथ चलता रहा। ऐसा कम ही होता है कि किसी फिल्म का शेड्यूल तय समय से एक दिन पहले ही खत्म हो जाए, लेकिन हमने भोले शंकर की मेकिंग के दौरान ऐसा भी किया। फिल्मों के गानों की शूटिंग के दौरान अक्सर हम देखते हैं कि पेड़ों के पीछे एक खास तरह की धुंध दिखती है, साफ मौसम में इसके लिए ना जाने कितने जतन करने पड़ते हैं। फॉग मशीन मंगाओ, बड़े बड़े फैन्स मंगाओ, पूरी लाइटिंग उसी लिहाज से सेट करो और इसके बावजूद भी भरोसा नहीं रहता है कि जैसा चाहिए वैसा असर आएगा भी या नहीं।

फिरंगियों के चक्कर में जो गाना हम दो अंतरे करके चले आए थे, उसका बाकी बचा अंतरा हमने अगले दिन लखनऊ में दूसरी जगह शूट करने का फैसला किया। कोरियोग्राफर रिक्की जो आदतन घुमक्कड़ टाइप के हैं, ने लखनऊ में जहां हम ठहरे थे, उसी रिसॉर्ट के दूसरी तरफ एक नायाब लोकेशन गाने के लिए तलाश ली। ये लोकेशन ऐसी है कि परदे पर आपको लगेगा कि गाना कश्मीर में शूट हुआ है। और, इस अंतरे की शूटिंग में हम पर कुदरत भी पूरी तरह मेहरबान रही। साफ मौसम ने अचानक अंगड़ाई ली और पूरे आसमान को बादलों ने ढंक लिया। पूरा मौसम बिल्कुल गाने के मूड के हिसाब से अपनेआप बन गया। छुटपुट बारिश भी शुरू हो गई और लाइट बस इतनी कि गाना शूट हो सके। इस दिन ईश्वर ने तो बहुत साथ दिया, लेकिन हमारे हीरो मनोज तिवारी दूसरो को खुश करने के चक्कर में हमें परेशान कर गए।

दरअसल मनोज तिवारी जल्दी जल्दी किसी को ना नहीं कर पाते। कहते हैं कि ना कहना भी एक कला है। और कामयाबी के लिए इसे सीखना भी बहुत ज़रूरी होता है। एक स्टार और एक चमकते सिक्के में ज़्यादा फर्क नहीं होता। सिक्का जितना कम चलता है, उसकी चमक उतने ही ज़्यादा दिन कायम रहती है और स्टार भी जितना सोच समझ कर कम फिल्में करता है, उसके करियर की गाड़ी भी उतनी ही लंबी चलती है। मनोज तिवारी की शुरू की दो फिल्में ससुरा बड़ा पइसा वाला और दरोगा बाबू आई लव यू जैसे ही हिट हुईं, धनकुबेरों ने उनके लिए अपनी तिजोरियां खोल दीं। टी सीरीज के ऑफिस की कैंटीन में पूरा पूरा दिन गुजार देने वाले किसी भी गायक को अपने नाम की ऐसी कीमत पता चले तो ज़ाहिर है वो मुश्किल से ही अपने पर काबू रख पाएगा। मनोज तिवारी ने कुछ रिश्ते निभाने के लिए, कुछ बॉलीवुड के बड़े बड़े नामों के साथ अपना नाम जोड़ने के लिए और कुछ बस पैसे कमाने के लिए एक के बाद एक दनादन फिल्में साइन कर लीं। चार साल में पैंतीस फिल्में करना किसी भी कलाकार के लिए फख्र की बात हो सकती है। लेकिन, इसका नुकसान भी मनोज तिवारी को हुआ है। लोगों ने मनोज तिवारी का नाम कैश कराने के लिए मार्केट में बेसिर पैर की फिल्मों की लाइन लगा दी। अब भोजपुरी फिल्में देखने वाले बाहर से तो आने से रहे और बिहार, मुंबई, पंजाब, दिल्ली और यूपी में लोग फिल्म देखने जाते हैं मनोरंजन के लिए, लेकिन ये दर्शक ऐसे हैं कि इन्हें आप अमिताभ बच्चन का नाम लेकर भी बुद्धू नहीं बना सकते।

खैर हम बात कर रहे थे केहू सपना में अचके जगा के गाने के तीसरे अंतरे की। ये अंतरा हमने दोपहर बाद शूट करने का प्लान बनाया था, लिहाजा एक दिन पहले शाम को ही मैंने मनोज को बता दिया कि अगले दिन उनकी ज़रूरत दोपहर दो बजे पड़ेगी। मैं अपने कमरे से सुबह आठ बजे बाहर निकला तो मनोज सोए हुए थे। मनोज तिवारी के स्पॉट ब्वॉय विकास को मैंने समझा दिया कि वो मनोज को सोने दें और करीब 11 बजे ही जगाएं ताकि तैयार होकर वो दो बजे लोकेशन पर पहुंच सकें। करीब 12 बजे से मैंने अंतरे की शूटिंग के लिए शॉट लगवाना शुरू किया और साथ ही मनोज को फोन किया। पता चला कि वो तो कब के तैयार होकर लखनऊ के किसी थिएटर में अपनी किसी फिल्म का प्रचार करने निकल गए हैं। पूरी यूनिट के तो हाथों के तोते उड़ गए। दोपहर दो बजे के लिए लग रहा शॉट तो एक घंटे में ही रेडी हो गया, लेकिन उस दिन मनोज तिवारी सेट पर तय समय से पूरे दो घंटे लेट पहुंचे। लोकेशन पर आते ही मनोज तिवारी को मेरे गुस्से का अंदाज़ा हो गया था, लिहाजा वो बडी देर तक चुहल करते रहे, मेरा मूड ठीक करने की कोशिश में उन्होंने सबके सामने अपने हाथ से एक विदेशी घड़ी निकालकर भी मुझे ऐलानिया तौर पर गिफ्ट कर दी, घड़ी कम से कम लाख रुपये की रही होगी। गलती मनोज तिवारी की भी नहीं थी, ऐसे में गलती होती है उन लोगों की, जो शूटिंग के बीच पहुंचकर किसी सितारे से अपने रिश्तों को तौलने बैठ जाते हैं। अब हीरो इनसे बात ना करे तो ये नाराज़ और इनसे बात करने के दौरान अगर शूटिंग रुकी रही तो फिल्म का प्रोड्यूसर- डायरेक्टर नाराज़।

मैंने भी कह दिया कि अगर सूरज ढलने के पहले ये अंतरा शूट नहीं हुआ तो फिल्म में गाना दो अंतरे का ही जाएगा। ये तीसरा अंतरा दोबारा और कहीं शूट नहीं होगा। रूसा रूसी के इस माहौल को हल्का करने का काम किया मौसम ने। सूरज ने बादलों के बीच से आंख मिचौनी करनी शुरू कर दी, और कोरियोग्राफर रिक्की ने मनोज तिवारी की चापलूसी। बाद में मुझे पता चला कि मनोज तिवारी को देरी से आने के लिए रिक्की ने ही कहा था और ये काम रिक्की ने मनोज की दूसरी जगह व्यस्तता को देखते हुए कहा या फिर अपनी फिल्म छुटका भइया ज़िंदाबाद के लिए डेट्स निकलवाने की ख़ातिर उनको खुश करने के लिए, ना मैंने जानने की कोशिश की और ना ही मैंने इसकी ज़रूरत समझी। रिक्की ने जो किया था, वो कतई प्रोफेशनल नहीं था, और ये बात मैंने रिक्की से स्पष्ट तौर पर कह भी दी। इसके बाद रिक्की और मनोज तिवारी ने मिलकर समय के नुकसान की भरपाई के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया। किसी तरह जल्दी जल्दी हम लोगों ने गाना शूट किया। कैमरा मैन राजूकेजी आखिर तक कन्फ्यूज रहे कि उन्हें सही लाइट मिली या नहीं। मैंने तभी राजू भाई से कह दिया था कि वे निश्चिंत रहे, आखिरी रिजल्ट हमारे ही हक़ में जाएगा। लेकिन शूटिंग के बाद फिल्म जब एडिट टेबल पर पहुंची तो मुंबई में सबसे पहले राजूकेजी ने यही अंतरा आकर देखा और जब रिजल्ट उन्हें सही मिले, तो उनकी भी जान में जान आई। मनोज तिवारी और मोनालिसा पर हमने ये अंतरा दोपहर के दो बजे के बाद फिल्माया, लेकिन हमारी शूटिंग तो सुबह आठ बजे से जारी थी। इस दिन सुबह सवेरे मोनालिसा ने किया कौन सा कमाल और दूसरी हीरोइन लवी रोहतगी की किस बात पर होटल में मचा बवाल? जानने के लिए पढ़ते रहिए - कैसे बनी भोले शंकर?

पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

फिरंगियों का फेर...



भोले शंकर (18)- गतांक से आगे...




भोले शंकर की कामयाबी के बाद कई निर्माता मेरे साथ भोजपुरी फिल्म बनाना चाहते हैं। लेकिन, भोले शंकर का काम खत्म होने के साथ ही मैं जुट गया था दो हिंदी फिल्मों की स्क्रिप्ट तैयार करने में। अब ये काम पूरा हो तो मैं दूसरा कोई काम हाथ में लूं। इसीलिए, इधर मेकिंग लेखन भी थोड़ा सुस्त रहा। कल मिथुन दा का दोपहर में फोन आया। मेरे हैलो कहते ही बोले, "अरे कहां हैं शुक्ला जी, कितने दिनों से आपको फोन ट्राइ कर रहा हूं, लेकिन नंबर ही नहीं लग रहा। मेरे छोटे बेटे ने बताया कि भोले शंकर बहुत बड़ी हिट हो गई है।" मैंने दादा से माफी मांगी और बताया कि मैं इन दिनों दिल्ली में हूं और मुंबई वाला नंबर शायद नेटवर्क की समस्या की वजह से नहीं मिल पा रहा होगा। दादा से और भी तमाम बातें हुईं, उनका ज़िक्र मैं फिर कभी अलग से करने की कोशिश करूंगा। लेकिन, ये बातें ऐसी हैं कि मेरी आंखें उनके बड़प्पन से नम हो आई। आज सुबह पुराने साथी उमेश चतुर्वेदी से फोन पर बात हुई तो उन्होंने उलाहना दिया कि मेरा लेखन कम हो गया है। तो पेश है फिल्म भोले शंकर की मेकिंग की बाकी बची बातें।


लखनऊ के जिस इंस्टीट्यूट में हम लोग फिल्म भोले शंकर की शूटिंग कर रहे थे। उसी के पास एक बहुत बड़ा फॉर्म हाउस है। फॉर्म हाउस में खेती होती है और इसकी पूरी की पूरी उपज विदेश भेजी जाती है। और, इस खेती को नाम दिया गया है ऑर्गेनिक फार्मिंग। गांव देहात के लोगों को इसका मतलब समझा दिया जाए तो ज़ाहिर है हर कोई ठट्ठा मारकर हंसेगा। जी हां, रासायनिक खाद खरीदना अभी तीस साल पहले तक गांव के हर किसान के बस की बात नहीं होती थी। वो तो बस घूरे और गोबर की खाद से ही काम चलाता था। और अब गोबर की खाद से होने वाली खेती को नाम दे दिया गया है ऑर्गेनिक फार्मिंग। और विदेश में ऐसी खेती से होने वाली फसल की बड़ी पूछ है। खैर, इस फार्म हाउस का जिक्र यहां मैं कर रहा हूं उस गाने के लिए, जिसकी शूटिंग हमने यहां की। हुआ यूं कि आईआईएसई के जिन मामाजी की जिक्र मैंने पिछले लेख में किया था, उन्होंने ही मुझसे इस फार्म हाउस के गुणगान किए। उन्होंने ये भी कहा कि वो यहां शूटिंग की परमीशन चुटकियों में दिला देंगे। उन्होंने अपना वादा निभाया भी। उनके कहे मुताबिक हमने अगले दिन फार्म हाउस में डेरा डाल दिया। लोकेशन वाकई दिल फरेब थी और गाने के लिए एकदम मुफीद। ये गाना फिल्म भोले शंकर में उस जगह आता है जहां भोले अपनी एक गलती के लिए गौरी से माफी मांगने आता है और बदले में गौरी अपना दिल भोले को दे बैठती है।

कोरियोग्राफर रिक्की और कैमरामैन राजू केजी के साथ रात में बैठक हुई और तय हुआ कि सुबह आठ बजे से हम लोग शूटिंग शुरू कर देंगे। हीरोइन को तैयार होने में अमूमन वक्त ज़्यादा लगता है लिहाजा मोनालिसा पहले लोकेशन पर पहुंची। फार्म हाउस की ही एक सुंदर सी झोपड़ी को मोनालिसा का मेकअप रूम बना दिया गया। मनोज तिवारी को आठ बजे तक होटल से तैयार होकर पहुंचना था। मोनालिसा के तो आठ बजे तक तैयार हो जाने का मुझे पूरा भरोसा था, बस थोड़ी हिचक थी तो इस बात की कि मनोज आठ बजे पाएंगे या नहीं। मनोज की आदत रात में देर से सोने और सुबह थोड़ा देर से जागने की है, इसका मुझे अंदाज़ा था। और इसी आशंका के चलते मैंने शूटिंग सात बजे की बजाय आठ बजे से रखी, लेकिन मनोज आठ बजे तक होटल से ही निकल पाए। इसी बीच मोनालिसा का मेकअप मैन महेश भागते हुए आया कि मोना मुझे बुला रही हैं। मैंने सोचा पता नहीं कि क्या दिक्कत खड़ी हुई। तुरंत मोना के मेकअप रूम में पहुंचा तो उसका चेहरा उतरा हुआ था। मानसी की हेयरस्टाइल और बाबू के मेकअप ने उस दिन मोनालिसा को किसी अप्सरा की तरह सजा दिया था, लेकिन मोना के चेहरे की परेशानी बता रही थी कि उसे कोई दिक्कत है। मैंने सभी लोगों से बाहर जाने को कहा। तो मोनालिसा ने अपनी दिक्कत बताई। दरअसल ड्रेस डिज़ाइनर ने मोनालिसा के लिए जो ब्लाउज़ तैयार किया था, वो इतना बड़ा बना दिया था कि टुनटुन को भी ढीला पड़े। परेशानी की वजह जानकर मुझे एकदम से हंसी गई, लेकिन मोना एकदम से उदास हो गई। बोली, यही एक रोमांटिक गाना आपने मुझे फिल्म में दिया है और उसकी भी ड्रेस गड़बड़ है। मोना से ये बात सुनकर मैं सीरियस हुआ, लेकिन शहर से इतनी दूर ना तो दर्जी मिल सकता था और ना ही नया ब्लाउज़।


अब बारी ड्रेसमैन समीर के इम्तिहान की थी। मैंने समीर को अकेले में बुलाया। परेशानी की वजह समझाई और मोनालिसा से कहा कि वो थोड़ा इंतज़ार कर ले, मैं इंतज़ाम करता हूं। समीर ब्लाउज़ लेकर स्टोर रूम गया। बेचारे ने सुई धागे से 15 मिनट के भीतर ब्लाउज़ की फिटिंग दुरुस्त की। जिस काम के लिए पटेल ड्रेसवाला ने दो हफ्ते गंवाए, वो काम समीर मिनटों में कर लाया। लेकिन दाएं तरफ की आस्तीन में अब भी कुछ गड़बड़ थी तो कोरियोग्राफर रिक्की का अनुभव काम आया। रिक्की ने मोनालिसा के लिए नई स्टाइल सोच ली। जिसमें उसे दाहिने बाजू पर अपनी साड़ी पीछे की तरफ से लानी थी। तब तक मनोज तिवारी भी गए और शुरू हो गई गाने की शूटिंग। मैंने राजू केजी और रिक्की गुप्ता को स्टोरीबोर्ड समझाया और अपने कुछ मेहमानों से बातें करने लगा। गाने के दो अंतरे शूट हो भी नहीं पाए थे कि एकदम से फार्म हाउस में मुझे कुछ बेचैनी समझ में आने लगी। मैंने पता लगाया तो मालूम हुआ कि फार्म हाउस की मालकिन आने वाली है और फार्म हाउस के मैनेजर ने मामाजी को शायद दोपहर दो बजे तक का ही समय दिया था। मैंने खुद जाकर फार्म हाउस के मैनेजर से बातचीत की लेकिन वो मानने को तैयार नहीं हुए। उनका कहना था कि उनकी विदेशी मालकिन के कुछ विदेशी मेहमान आने वाले हैं और वो फार्म हाउस पर उस दिन लंच करने वाले हैं। इन फिरंगियों को हिंदुस्तानियों का आसपास दिखना शायद ठीक नहीं लगता और वो पूरी तसल्ली के साथ अकेले में ही मस्ती करना चाहते थे।

मेरी परेशानी ये थी कि मैं दूसरे अंतरे को बीच में आधा नहीं छोड़ सकता था। तीसरा अंतरा तो खैर मैं पहले ही दूसरी लोकशन पर करने वाला था, लेकिन समस्या ये थी की फार्म हाउस मैनेजर हमें ये अंतरा भी शूट नहीं करने दे रहा था। वो तुरंत पैकअप चाहता था तो मैंने समझाया कि भैया सौ लोग पूरे सामान के साथ एकदम से तो फार्म हाउस के बाहर नहीं निकल सकते, सब्र रखो, हम काम बंद कर चुके हैं, बस सामान निकलने में जितनी देर लगे। वो आश्वस्त रहें और शूटिंग से दूर भी तो मैंने एक प्रोडक्शन वाले को इनके साथ लगाया और कहा कि इन्हें लेकर गेट पर जाएं ताकि इन्हें सामान बाहर निकलता दिखता रहे। अब सुनिए कमाल की बात, फार्म हाउस मैनेजर को गेट पर खड़ा करके मैं भागा वहां जहां शूटिंग चल रही थी, मैंने रिक्की और राजूकेजी दोनों को समझाया कि जब तक उधर से सामान उठ रहा है आप लोग इधर फटाफट अंतरा पूरा कर लें। अब हो ये रहा था कि फार्म हाउस के एक कोने से लाइट्स और क्रेन वगैरह ट्रक में लोड हो रही थीं और दूसरे कोने पर हम ट्राली, रिफ्लेक्टर और कैमरा लेकर अंतरा निपटाने में लगे थे। और जब तक सामान हटते हटते लोग हम तक पहुंचे हम लोग अंतरा शूट कर चुके थे, गाने के दूसरे अंतरे में फिरंगियों के फेर ने परेशानी में डाला तो तीसरे अंतरे में सूरज देवता ने ली हमारी परीक्षा, लेकिन इस पर बात अगली बार, पढ़ते रहिए कैसी बनी भोले शंकर?

कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल
निर्देशक - भोले शंकर