दुबई मुशायरे में एक बेहद उम्दा शायर को सुनने का इत्तेफाक़ हुआ और यकीन मानिए जो भी मुशायरे में था, इन साहब की शायरी का कायल हुए बिना ना रह सका। आप भी गौर फरमाइए -
अज़्म बेहज़ाद
16.08.2007 - दुबई
सबको एहसासे तहफ्फुज़ ने हिरासां कर दिया
सब अपने सामने दीवारें चुनना चाहते हैं...
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कहां गए वो लहजे, दिल में फूल खिलाने वाले
आंखें देख के ख्वाबों की ताबीर बताने वाले
कहां गए वो रस्ते जिनमें मंज़िल पोशीदा थी
किधर गए वो हाथ मुसलसल राह दिखाने वाले
कहां गए वो लोग जिन्हें जुल्मत मंज़ूर नहीं थी
दिया जलाने की कोशिश में खुद जल जाने वाले
ये खलवत का रोना है जो बातें करती थीं
ये कुछ यादों के आंसू है दिल पिघलाने वाले
किसी तमाशे में रहते तो कब के गुम हो जाते
एक गोशे में रहकर अपना आप बचाने वाले
हमें कहां इन हंगामों में तुम खींचे फिरते हो
हम हैं अपनी तनहाई में रंग जमाने वाले
इस रौनक में शामिल सब चेहरे हैं खाली खाली
तनहाई में रहने वाले या तनहा रह जाने वाले
अपनी लय से ग़ाफिल रहकर हिज़्र बयां करते हैं
आहों से नावाकिफ़ हैं ये शोर मचाने वाले
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कितने मौसम सरगर्दां थे
मुझसे हाथ मिलाने में
मैंने शायद देर लगा दी
खुद से बाहर आने में
एक निग़ाह का सन्नाटा है
एक आवाज़ का बंजारापन
मैं कितना तन्हा बैठा हूं
कुरवत के वीराने में
बिस्तर से करवट का रिश्ता
टूट गया एक याद के साथ
ख्वाब सरहाने से उठ बैठा
तकिए को सरकाने में
आज उस फूल की खुशबू मुझमें
मैहम शोर मचाती है
जिसने बेहद उजलत बरती
खिलने और मुरझाने में
बात बनाने वाली रातें
रंग निखारने वाले दिन
किन रस्तों में छोड़ आया मैं
उमर का साथ निभाने में
...जारी
आपके ब्लाग पर अच्छे शायद की चुनिंदा रचनाएं पढने को मिलती रहती हैं। दुबई मुशायरा को आपने ब्लाग पर परोस कर हम पाठकों पर बहुत मेहरबानी की है। बहुत-बहुत बधाई।
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