गुरुवार, 22 नवंबर 2007

राजा हसन: ख़ालिस देसी आवाज़

राजा हसन ने मेरी फिल्म भोले शंकर के लिए जो गाना गाया है। उस पर ब्लॉगिंग भी शुरू हो चुकी है। लिंक यहां पेस्ट कर रहा हूं। फिल्ममेकिंग को अंदर से देखने की जितनी कोशिश अब तक की है, उसने कई सबक़ सिखाए हैं। कैमरे के सामने जगमगाने वाले चेहरों की काली करतूतें भी एक एक कर सामने आ रही हैं। इन की परत दर परत खोलने का समय जल्द ही आएगा। फिलहाल अपने भीतर के पत्रकार को लंबी छुट्टी पर भेजा हुआ है। जब एक फिल्मकार सोएगा, तो एक पत्रकार जागेगा। तब तक के लिए इस लिंक का आनंद लीजिए। राजा हसन के चाहने वालों को उनका मेरी फिल्म में गाया गाना निराश नहीं करेगा, ये मेरा वादा भी है और भरोसा भी। जय भोले शंकर।

http://www.rajahasan.com/?p=298

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2007

लागा सिनेमा में दाग


पंकज शुक्ल

पिछले हफ्ते जो दो फिल्में रिलीज़ हुईं, उनमें से एक ‘लागा चुनरी में दाग’ का शुरुआती कारोबार देखकर बड़े बड़े फिल्म पंडितों के होश फाख़्ता हैं। अपनी दिलरुबा यानी ऐश्वर्या राय से शुभ परिणय के बाद छोटे बच्चन की कतार से ये तीसरी फ्लॉप फिल्म हो सकती है। इनमें से ‘राम गोपाल वर्मा की आग’ में वो स्पेशल एपीयरेंस में थे जबकि ‘झूम बराबर झूम’ और ‘लागा चुनरी में दाग’ यशराज फिल्म्स की महात्वाकांक्षी फिल्मों में से रहीं। पहले दिन के शुरुआती शोज में महज 15 से 20 फीसदी का कलेक्शन करने वाली फिल्म ‘लागा चुनरी के दाग’ का कारोबार बाद में कुछ सुधरा तो है लेकिन फिल्म की ओपनिंग इतनी ठंडी रहेगी ये किसी ने सोचा तक नहीं था। नाकामी ये किसी फिल्म या किसी सितारे की नहीं, बल्कि एक सोच की है। सोच, जिसे महान निर्देशक बी आर चोपड़ा के छोटे भाई यश चोपड़ा की कंपनी यशराज फिल्म्स पानी दे रही है। ये सोच है सिर्फ बड़े सितारों को लेकर सुनी सुनाई सी कहानियों पर फिल्में बनाने की। ऐसा नहीं है कि यशराज फिल्म्स ने सिर्फ मसाला फिल्में ही इधर बनाईं, इन्होंने ‘काबुल एक्सप्रेस’ जैसी लीक से इतर फिल्म पर भी दांव लगाया लेकिन ऐसा दांव एक बार चूक जाने के बाद छोड़ देने के लिए नहीं होता।

सिनेमा में यशराज फिल्म्स के योगदान को कोई नकार नहीं सकता। लेकिन, इधर यशराज फिल्म्स के नए सिनेमा में योगदान को लेकर एक बहस शुरू हुई है। और ये बहस शुरू की है बाग़ी तेवरों वाले लेखक निर्देशक अनुराग कश्यप ने। अनुराग से पहली मुलाक़ात ‘शूल’ के समय मनोज बाजपेयी के साथ हुई थी और इस बात को देखकर हैरानी होती है कि इतनी ठोकरें खाने और इतनी परेशानी झेलने के बाद भी इस शख्स के भीतर की आग अभी चुकी नहीं है। ये शख्स फीनिक्स की तरह हर बार राख से उठ खड़ा होता है, अपने डैने फैलाए, एक नई उड़ान के लिए। बात यशराज फिल्म्स की इन दिनों चल रही है उनकी नई फिल्म ‘लागा चुनरी में दाग’ को लेकर। गुणी निर्देशक प्रदीप सरकार को यशराज फिल्म्स में काम करने का मोह ही ऐसी फिल्म बनवा सकता है, इस फिल्म को बनाने में कितनी उनकी चली और कितनी यशराज फिल्म्स के कर्णधारों की, कहा नहीं जा सकता।

यशराज फिल्म्स हिंदी सिनेमा का ऐसा बैनर है, जिसे हर दूसरा निर्देशक गाली देता है। डेढ़ दशक से ज़्यादा की फिल्म पत्रकारिता में मुझे ऐसा बिरला ही मिला, जिसने यशराज फिल्म्स की बड़े सितारों पर पकड़ को लेकर आहें ना भरी हों। लेकिन ये ही इकलौता बैनर भी है जिसने हिंदी सिनेमा का चेहरा बदलने का बीड़ा सबसे पहले उठाया। लेकिन क्या ये चेहरा महज ‘चक दे इंडिया’ जैसी इक्का दुक्का फिल्में बनाकर बदल सकता है। और वो भी तब जब इस फिल्म पर खुद यशराज फिल्म्स को ही ज़्यादा एतबार नहीं था। कम लोगों को ही ये बात पता होगी, कि अपनी फिल्में थिएटर में अपनी शर्तों पर रिलीज़ करने वाले यशराज फिल्म्स ने इस फिल्म को लेकर कोई चूं चां नहीं की। फिल्म कुछ अपनी थीम के चलते और कुछ शाहरुख खान के चलते करोड़ों का कारोबार कर चुकी है, लेकिन इस फिल्म ने एक बार फिर बता दिया है कि यशराज फिल्म्स की बाज़ार की नब्ज़ पर पकड़ ढीली हो रही है। यशराज फिल्म्स की कारोबारी समझ की कलई पहली बार ‘खोसला का घोसला’ से खुली थी, जब अपने ही क्रिएटिव हेड की कंपनी में आने से पहली बनाई गई फिल्म में इस कंपनी को दम नज़र नहीं आया।

यशराज फिल्म्स को हिंदी सिनेमा में काम करने वाले चंद लोग ऐसा बरगद मानते हैं जो अपने आस पास किसी नए पौधे को उगने नहीं देता। हर बड़े कलाकार को ये बैनर अपनी मुट्ठी में रखना चाहता है, वो चाहे अमिताभ बच्चन हों या फिर शाहरुख खान। सलमान खान और जॉन अब्राहम जैसे कुछ कलाकार हैं जो अपना अलग आशियाना बनाने की कूवत रखते हैं, लेकिन इनके इस बैनर में काम ना करने की अपनी वजहें हैं और इनमें से सबसे बड़ी है इन सितारों का मर्दानापन। ये जो भी बात सोचते हैं, उसे खुलकर कहते हैं। ‘लागा चुनरी में दाग’ बनते वक़्त तमाम बातें अभिषेक बच्चन के जेहन में भी आई होंगी, लेकिन वो कहने से कतराते रहे। फिल्म की हीरोइन अगर रानी मुखर्जी हों और फिल्म यशराज फिल्म्स की हो तो भला दूसरे के लिए कुछ कर दिखाने का मौका ही कहां बचता है। लेकिन जो बात लोगों को बार बार खाए जा रही है वो ये कि आखिर कब तक ये बैनर ऐसी फिल्में बनाता रहेगा।

बहस सिर्फ कथानक की ही नहीं, बहस इस बात की भी है कि आखिर सिनेमा को नए सितारे देने की ज़िम्मेदारी किसकी है। ऋतिक रोशन के बाद से हिंदी सिनेमा एक नए सितारे को तरस रहा है। और, गौरतलब बात ये है कि कपूर खानदान के नए चेहरे रनबीर को रुपहले परदे पर लाने का सेहरा बंध रहा है एक विदेशी कंपनी सोनी पिक्चर्स के सिर। राकेश रोशन अपने बेटे को ही प्रमोट करते रहेंगे। यशराज फिल्म्स को बच्चन परिवार और शाहरुख खान से आगे सोचने की फुर्सत नहीं है। रामगोपाल वर्मा भी घूम फिरकर इसी दायरे में आ जाते हैं। रवि चोपड़ा भी अपने ताऊ के रास्ते पर ही हैं। विधु विनोद चोपड़ा की दौड़ भी सीमित है तो फिर आगे आएगा कौन? अनिल कपूर की इस बात के लिए ताऱीफ़ करनी चाहिए कि इसकी शुरुआत उन्होंने ‘गांधी-माई फादर’ बनाकर की, लेकिन अगर ऐसी फिल्म को भी ऑस्कर में भेजने लायक ना माना जाए तो फिर हिंदी सिनेमा के दामन को दागदार होने से बचाएगा कौन?

शनिवार, 13 अक्तूबर 2007

कहानियों की भूलभुलैया

-पंकज शुक्ल

निर्देशक प्रियदर्शन की नई फिल्म भूलभुलैया देखते समय एक ख्याल बार बार मन में आता है और वो ये कि हिंदी फिल्मों के दर्शक अब वाकई नए के लिए तैयार हैं। पेड़ों के इर्द गिर्द नायक को नायिकाओं के साथ कमर मटकाते देखने में अब उन्हें ज़्यादा दिलचस्पी नहीं रही। शाहरुख खान की फिल्म चक दे इंडिया को भले इस नए चलन की शुरुआत का श्रेय दिया जाता हो लेकिन निर्देशक फज़ल ने इसकी शुरुआत मलयालम सिनेमा में कोई 14 साल पहले मनिचित्राताझु बनाकर कर दी थी। ये वही फिल्म जिस पर निर्देशक पी वासु ने पहले कन्नड़ में आप्तामित्रा नाम की फिल्म बनाई और फिर सदी के महानतम नायकों में से एक रजनीकांत को लेकर तेलुगू में सुपरहिट फिल्म चंद्रमुखी बनाई। प्रियदर्शन ने इसी कहानी को हिंदी में चित्रलेखा के नाम से पेश करने का ऐलान किया था और यही फिल्म अब भूलभुलैया के नाम से दर्शकों के सामने है।

भूलभुलैया उन दर्शकों के लिए ज़्यादा बड़ी भूलभुलैया है, जो प्रियदर्शन को बस कॉमेडी फिल्मों की वजह से जानते हैं। जिन लोगों ने प्रियदर्शन की हिंदी में शुरुआती फिल्में मसलन मुस्कुराहट, गर्दिश, विरासत, काला पानी और डोली सजाके रखना देखी हैं, उन्हें पता है कि प्रियदर्शन को जज्बात की रेत पर रिश्तों की रस्साकशी कराने में महारत हासिल है। कॉमेडी के करतब तो प्रियन ने काला पानी और डोली सजा के रखना की नाकामी के बाद दिखाने शुरू किए।
भूलभुलैया का कहानी एक ऐसे जोड़े की कहानी है, जो आधुनिक सोच विचारों का है और जिसे इन बातों के बावजूद अपने
पुश्तैनी महल में रहने से परहेज नहीं, कि ये महल अतृप्त आत्माओं का डेरा है। जो दर्शन भूल भुलैया को एक कॉमेडी फिल्म समझकर देखने पहुंचे, उनके लिए फिल्म की कहानी एक झटका है। लेकिन हंसाने के मसाले प्रियन ने एक ऐसी फिल्म में ढूंढ लिए हैं, जो एक प्रेम कहानी की तरह शुरू होकर, हॉरर, सस्पेंस और थ्रिलर तक का सफर बखूबी सफर करती है। इस जोड़े यानी सिद्धार्थ (शाइनी आहूजा) और अवनी (विद्या बालन) के सामने जब अजीबोगरीब घटनाएं होने लगती हैं, तो सिद्धार्थ अपने नजदीकी दोस्त आदित्य (अक्षय कुमार) को अमेरिका से महल में बुलवा लेता है। आदित्य पेशे से मनोचिकित्सक है और उसका काम ये पता लगाना है कि आखिर इस महल में भूतों के किस्से शुरू कैसे हुए? आदित्य को अपने मिशन में गुरुजी (विक्रम गोखले), राधा (अमिषा पटेल) आदि का अच्छा साथ मिलता है।

प्रियदर्शन की ये फिल्म इंटरवल के बाद भले थोड़ा लंबी लगती हो, लेकिन दर्शकों का मनोरंजन करने में ये कामयाब रहती है। पहले दिन सिनेमाहॉल पर लगी हाउसफुल की तख्ती इस बात की ताकीद करती है कि प्रयोगात्मक सिनेमा के लिए हिंदी सिनेमा के दर्शक अब तैयार हो चुके हैं। प्रियन की इस फिल्म में अगर किसी ने वाकई काबिले तारीफ काम किया है तो वो है विद्या बालन। पहले नई नवेली दुल्हन और फिर महल की दंतकथाओं के किरदार मंजुलिका के चोले में घुसकर विद्या बालन ने जो काम किया है वैसा हाल के दिनों में हिंदी फिल्मों की किसी अभिनेत्री ने शायद ही किया हो। अक्षय कुमार तो खैर इस तरह के किरदारों में महारत ही रखते हैं, सहारा असरानी, राजपाल यादव, मनोज जोशी और रसिका ने भी अच्छा दिया है। तकनीकी रूप से फिल्म दस में दस अंक पाती है। संगीत पहले से ही एफएम चैनलों पर धूम मचा रहा है। सप्ताहांत के लिए मनोरंजन के लिहाल से फिल्म बुरी नहीं है।

सोमवार, 1 अक्तूबर 2007

माफ़ीनामा !!!

ला हो, गूगल वालों का जिन्होंने अपने ही ब्लॉग पर वापस पहुंचने का नया रास्ता बना दिया, वरना हम तो वापस इस ब्लॉग पर आने की उम्मीद ही छोड़ बैठे थे। कहां तो हम कम से कम हर हफ्ते कुछ ना कुछ लिखने का इरादा ठाने बैठे थे और कहां पूरा महीना हो गया, यहां कुछ भी ना लिख पाए।

ख़ैर अब पासवर्ड भूलने की गलती ना होने पाए, इसके लिए इंतजाम कर लिया है, उम्मीद करता हूं कि ये इंतजाम पुख़्ता रहेगा। तो भइया शुरुआत करते हैं ज़िंदगी की नई भूल भुलैया से, जिसका नाम है सिनेमा। वैसे नई तो नहीं कहेंगे क्योंकि जोधपुर में दूसरी क्लास में गुलज़ार साहब की 'परिचय' ना दिखाए जाने पर घर में किया गया बाल हठ हमें अब भी याद है। फिर राज कपूर की 'बॉबी' , देवर फिल्म्स की 'हाथी मेरे साथी' और कुछ और फिल्में उस दौरान देखीं, जब शायद ठीक से निकर का नाड़ा बांधना भी नहीं सीख पाए थे।

फिर शहर से हम गांव आ गए और कोई चार साल के इंटरवल के बाद देखने को मिली 'शोले'। रिपीट रन में भी हाउस फुल। घटी दरों पर फिल्में दिखाने का चलन अब बड़े शहरों में नहीं रहा वरना इससे बढ़िया बिज़नेस फंडा दूसरा कोई नहीं। वापस शहर आए तो इतनी फिल्में देखीं कि आगे-पीछे सबका हिसाब बराबर हो गया। ग्रेजुएशन में तो बस हर दिन का यही एजेंडा रहा कि अखबार के कॉलम में छपने वाली फिल्मों के नामों में से कोई अनदेखी नहीं होनी चाहिए। यानि कि किताबी पढ़ाई कम और सिनेमा की कढ़ाई ज़्यादा होती रही। माफी घर वालों से भी मांगने का दिल करता है कि उनकी मेहनत की कमाई हमने पढ़ाई में कम और सिनेमा देखने में ज़्यादा खर्च की।

अब इसकी पाई पाई चुकाने का वक़्त आ चुका है। फीचर फिल्म बनाने का जो कीड़ा हम सालों से दबाए बैठे थे, उसने कूकून से बाहर आने का रास्ता पा लिया है। हौसला मिला तो दादा मिथुन चक्रवर्ती की हां, जो बस एक बार मनुहार करने पर रिश्तों को निभाने की ख़ातिर अपने करियर की पहली भोजपुरी फिल्म में काम करने के लिए हां कहे बिना नहीं रह सके। दादा लाजवाब हैं। घर पर बुलाते हैं तो बिल्कुल अपनों की तरह मिलते हैं। ना किसी सुपर स्टार सा गुरूर और ना ही किसी फिल्मी सितारे जैसा नख़रा। भगवान उनको और उनके घरवालों को बरकत बख्शे।

भोजपुरी सिनेमा के सुपरस्टार मनोज तिवारी ने भी अपनापन दिखाया और वोट फॉर खदेरन (मनोज तिवारी का किसी नेशनल न्यूज़ चैनल पर पहला शो बिहार चुनाव के दौरान हमारे ही खुराफ़ाती दिमाग की उपज रही) को याद करते हुए फिल्म के लिए हां कर दी। लेकिन सबसे मुश्किल काम अब तक का रहा फिल्म के लिए एक अदद हीरोइन तलाश करना। कितनी हसीनाओं ने अपने जलवे दिखाए, कुछ ने तो और भी ना जाने क्या क्या दिखाने का इशारा भी किया। लेकिन हमें चाहिए थी एक ऐसी लड़की, जो हुस्न की नुमाइश की बजाय अदाकारी का दम भरती हो। मुंबई जैसे शहर में हीरोइन्स की कोई कमी नहीं हैं, लेकिन ये मूक सिनेमा काल में होतीं तो शायद बेहतर होता। अदाकारी से किसी को कोई लेना देना नहीं। सब आएंगी, अपनी चंद बिंदास सी तस्वीरें लेकर। और भोजपुरी तो दूर हिंदी में भी एक संवाद बोलना हो तो पहले दो गिलास पानी पिएंगी।

ख़ैर, नाशिक जैसे छोटे शहर की एक लड़की ने हमारे हौसले पर पानी फिरने से बचाया। सुभाष घई जैसे पारखी की फिल्म किसना में एक छोटा रोल कर चुकी वृषाली भांबेरे सिनेमा के आसमान पर पहली कुंलाचे भर रही है। वृषाली की पहली भोजपुरी फिल्म श्रीमान ड्राइवर बाबू रिलीज़ के लिए तैयार है। मनोज तिवारी (अपनी फिल्म के भोले) की गौरी वो ही बनने जा रही है। वृषाली मुंबइया नस्ल की नहीं है। वो अपने हुनर के बूते कुछ करना चाहती है। पिता मराठी के लेखक रहे हैं।

शुरुआती टीम बन चुकी है। यशराज फिल्म्स के दो और महारथी सिनेमैटोग्राफर राजू केजी और एसोसिएट डायरेक्टर मनोज सती भी कंधे से कंधा मिलाने को तैयार हैं। के सी बोकाडिया के गुरबत के दिनों के साथी रहे मुकेश शर्मा भी साथ हैं। गुणी संगीतकार धनंजय मिश्रा ने अपना बाजा कस लिया है, पसीना पसीना हैं वो कि हमारे जैसा कोई पागल भोजपुरी में भी संगीत को लेकर इतनी मेहनत उनसे करा सकता है, लेकिन फिल्म के गीतों का जो शुरुआती ख़ाका बना है, वो मन के तार हिला देने वाला है। बाकी सब भोले शंकर के हाथों में हैं...।

जारी...

शुक्रवार, 31 अगस्त 2007

...हुनर दिखाया तो दस्ते हुनर भी जाएगा (दुबई मुशायरा- 3)

आज की शाम मंज़र भोपाली साहब के नाम!

मंज़र भोपाली
16.08.2007 - दुबई

वक्त के तकाजों पर ग़र हम जिए होते
क्यूं हमारे होठों पर मर्सिए होते

आपकी जगह होते हम जो बागबां अब तक
हमने सारे फूलों में रंग भर दिए होते

इज़्ज़तों से से बढ़कर हमको जान प्यारी है
वर्ना हमने जिल्लत के घूंट क्यूं पिए होते

सितमगरों का ये फरमान, ये घर भी जाएगा
ग़र मैं झूठ ना बोला, तो ये सिर भी जाएगा

बनाइए ना किसी के लिए भी ताजमहल
हुनर दिखाया तो दस्ते हुनर भी जाएगा

ये शहर वो है वफ़ाओं को मानता ही नहीं
यहां तो रायगा ख़ून ए ज़िगर भी जाएगा

ये मांएं चलती हैं बच्चों के पाओं से जैसे
उधऱ ही जाएंगी, बच्चा जिधर भी जाएगा

------------------------------------------------------------------------------------------------

उस घर के किसी काम में बरक़त नहीं होती
जिस घर में भी मां बाप की इज्ज़त नहीं होती

हम मारे गए तेरी मोहब्बत के भरोसे
दुश्मन कोई होता तो ये हालत नहीं होती

इस क़ातिले आलम से ना रख अमन की उम्मीद
जल्लाद की आंखों में मुरव्वत नहीं होती

लगता है मुझे यूं तुझे छूना भी गुनाह है
जबतक तेरी आंखों की इजाज़त नहीं होती


कोई भी रुत हो सफ़र को निकलना पड़ता है
शिकम के वास्ते कांटों पर चलना पड़ता है

ज़रा सा वक़्त गुजर जाए गफ़लतों में अगर
तो अच्छे अच्छों को फिर हाथ मलना पड़ता है

ये ज़िंदगी की हक़ीक़त नसीब है सबका
कि शाम होते ही सूरज को ढलना पड़ता है

जारी...

दीपिकाएं बुझती नहीं हैं.....

शायद ज़ी न्यूज़ की तत्कालीन संपादक अलका सक्सेना जी ने वो कॉल मुझे मॉरीशस से की थी, बस दो लाइनें और एक सवाल। “हम लोग यहां मार्केटिंग और सेल्स की टीम के साथ हैं। तुमने आज तक के मूवी मसाला से टक्कर के लिए जो बोले तो बॉलीवुड का कॉन्सेप्ट तैयार किया, वो अच्छा है। कितने दिन की नोटिस पर काम शुरू हो सकता है?” अलका जी जानती थी कि मेरा जवाब क्या होगा, लेकिन इसी भरोसे के साथ उनका बड़प्पन भी छुपा था और वो कि हर फैसला अपने सहयोगियों को भरोसे में लेने के बाद लेना। मैंने कहा कि वर्किंग हैंड्स मिलने के दो दिन बाद।

वो लौटीं और अगले दिन मेरी डेस्क पर एक बेहद खूबसूरत लेकिन घरेलू सी लगने वाली लड़की पहुंची। नाम-दीपिका तिवारी। परिचय- ज़ी सिने स्टार्स की खोज की फाइनलिस्ट। ख्वाहिश- मुट्ठी बढ़ाकर जल्द से जल्द आसमान समेट लेना। बोले तो बॉलीवुड की वो सबसे कामयाब एंकर बनी। उसके फैन्स भी खूब थे। खाड़ी देशों से अक्सर उसकी तारीफ के ख़त आते। मेहनत भी उसने खूब की और काम सीखने की लगन ने उसे जल्द ही एक अच्छा रिपोर्टर और कॉपी राइटर बना दिया।

दो साल पहले का अपना जन्मदिन मुझे अब भी याद है जब उसने मुझसे बोले तो बॉलीवुड की पूरी टीम को फिल्म दिखाने को कहा। मैंने दिखाई भी और अगले दिन वो पूरी टीम से चंदा करके मेरे लिए एक सुंदर सा पुलोवर बतौर बर्थडे गिफ्ट खरीद लाई। फिर पता नहीं उसे क्या हुआ, काम में उसका मन नहीं लगता। मैंने एक दिन डांटा तो एचआर तक शिकायत कर आई। फिर लौटकर माफी भी मांगी। शायद जो ख्वाब उसने देखे थे, उनमें रंग नहीं उतर पा रहे थे। एक दिन आकर बताया कि उसे किसी से प्यार हो गया है। और वो दोनों शादी करने वाले हैं। लड़के का नाम भी बताया। और फिर दो दिन बाद ही रात करीब 11 बजे रोते हुए फोन किया कि सर मुझे ले जाइए। उसका अपने ब्वॉय फ्रेंड से झगड़ा हो गया था और वो बारिश में नोएडा की किसी सड़क पर अकेली खड़ी थी। मैंने समझाया कि प्यार में फैसले प्यार से ही लिए जाते हैं, गुस्से में नहीं। किसी तरह दोनों में समझौता हुआ।

...लेकिन इस बार दीपिका का फोन नहीं आया। बस ख़बर आई कि वो दुनियादारी से हार चुकी है।

दीपिका, दूसरी लड़कियों के लिए एक मिसाल बनकर उभरी थी। लेकिन इससे पहले कि उसकी रौशनी फैल पाती, उसे ग्रहण लग गया। ग्रहण जल्द से जल्द ऐश की ज़िंदगी जीने का। इसीलिए उसने फिर से मुंबई की राह पकड़ी, फिर वापस दिल्ली लौटी। लेकिन इस बार उसके जीने का फलसफा बदला हुआ था। ज़िंदगी उसके लिए एक स्टेशन नहीं ट्रेन बन चुकी थी। वो हर फासला जल्द से जल्द पूरा कर लेना चाहती थी, बिना ये देखे कि आगे पटरियां हैं भी या नहीं। गाड़ी ने हिचकोले खाए, लेकिन वो नहीं संभली। वो अब ग्लैमर की दुनिया से दूर रहकर अपनी खुद की दुनिया बसाने को बेताब थी। वो हार्डकोर न्यूज़ एंकर बनना चाहती थी, लेकिन ग्लैमर का ठप्पा उससे उतरा नहीं। वो बरखा दत्त बनना चाहती थी, लेकिन दुनिया ने उसे दीपिका तिवारी से ऊपर उठने नहीं दिया।

दीपिका हारी नहीं, उसे हरा दिया गया। दीपिकाएं बुझती नहीं हैं, या तो तेज़ हवा का कोई झोंका उन्हें विदा कर देता है, या फिर तेल साथ छोड़ देता है। और पीछे अंधेरे में रह जाता है तो बस एक सवाल? काश, दीपिका ने फिर फोन किया होता? काश, कोई तो होता ऐसा जिससे वो अपना हर दुख कह पाती? तब शायद दीपिका की रौशनी आज भी कोई कोना रौशन किए होती।

दीपिका तुम जहां भी रहो, जगमगाती रहो...

शुक्रवार, 24 अगस्त 2007

दुबई मुशायरा (2)

दुबई मुशायरे में एक बेहद उम्दा शायर को सुनने का इत्तेफाक़ हुआ और यकीन मानिए जो भी मुशायरे में था, इन साहब की शायरी का कायल हुए बिना ना रह सका। आप भी गौर फरमाइए -

अज़्म बेहज़ाद
16.08.2007 - दुबई

सबको एहसासे तहफ्फुज़ ने हिरासां कर दिया
सब अपने सामने दीवारें चुनना चाहते हैं...
-------------------------------------------

कहां गए वो लहजे, दिल में फूल खिलाने वाले
आंखें देख के ख्वाबों की ताबीर बताने वाले

कहां गए वो रस्ते जिनमें मंज़िल पोशीदा थी
किधर गए वो हाथ मुसलसल राह दिखाने वाले

कहां गए वो लोग जिन्हें जुल्मत मंज़ूर नहीं थी
दिया जलाने की कोशिश में खुद जल जाने वाले

ये खलवत का रोना है जो बातें करती थीं
ये कुछ यादों के आंसू है दिल पिघलाने वाले

किसी तमाशे में रहते तो कब के गुम हो जाते
एक गोशे में रहकर अपना आप बचाने वाले

हमें कहां इन हंगामों में तुम खींचे फिरते हो
हम हैं अपनी तनहाई में रंग जमाने वाले

इस रौनक में शामिल सब चेहरे हैं खाली खाली
तनहाई में रहने वाले या तनहा रह जाने वाले

अपनी लय से ग़ाफिल रहकर हिज़्र बयां करते हैं
आहों से नावाकिफ़ हैं ये शोर मचाने वाले

--------------------------------
कितने मौसम सरगर्दां थे
मुझसे हाथ मिलाने में

मैंने शायद देर लगा दी
खुद से बाहर आने में

एक निग़ाह का सन्नाटा है
एक आवाज़ का बंजारापन

मैं कितना तन्हा बैठा हूं
कुरवत के वीराने में

बिस्तर से करवट का रिश्ता
टूट गया एक याद के साथ

ख्वाब सरहाने से उठ बैठा
तकिए को सरकाने में

आज उस फूल की खुशबू मुझमें
मैहम शोर मचाती है
जिसने बेहद उजलत बरती
खिलने और मुरझाने में

बात बनाने वाली रातें
रंग निखारने वाले दिन
किन रस्तों में छोड़ आया मैं
उमर का साथ निभाने में

...जारी

गुरुवार, 23 अगस्त 2007

दुबई मुशायरा

पहले तो इस बात की माफ़ी कि अरसे से यहां कुछ लिख नहीं पाया। दरअसल, पहली फिल्म की बात फाइनल होने के बाद से उसी के काम में लगा रहा। हिंदी फिल्म अब अगले साल होली के आसपास शुरू होगी, पहले एक भोजपुरी- मिथुन चक्रवर्ती और मनोज तिवारी के साथ। पिछले हफ्ते दुबई में था हिंदी फिल्म के लिए कुछ रिसर्च करने और लोकेशन देखने के लिए, वहीं एक बेहतरीन मुशायरा सुनने को मिला। अगले एक दो दिन तक उसी मुशायरे की शायरी आपतक पहुंचाने की कोशिश रहेगी।

राहत इंदौरी
16.08.2007 - दुबई


सरहदों पर बहुत तनाव है क्या
कुछ पता करो चुनाव है क्या

खौफ़ बिखरा है दोनों सम्तों में
तीसरी सम्त का दबाव है क्या

सिर्फ खंजर ही नहीं आंखों में प्यार भी है
ऐ खुदा दुश्मन भी मुझे खानदानी चाहिए

मैं अपनी खुश्क़ आंखों से लहू छलका दिया
एक समंदर कह रहा था मुझको पानी चाहिए

राहत इंदौरी ने मुशायरे में कुछ फुटकर शेर भी पढ़े। एक झलक उनकी भी।

किसने दस्तक दी ? कौन है ?
आप तो दिल में हैं, बाहर कौन है ?

शाखों से टूट जाएं वो पत्थर नहीं हैं हम
आंधियों से कह दो ज़रा औकात में रहें

खुश्क़ दरियाओं में थोड़ी रवानी और है
रेत के नीचे थोड़ा पानी और है...

उस आदमी को बस एक धुन सवार रहती है..
बहुत हसीन है दुनिया, इसे ख़राब कर दूं

मुझमें कितने राज़ हैं बतला दूं क्या
बंद एक मुद्दत से हूं खुल जाऊं क्या

और चलते चलते मज़ाहिया शायर सागर खय्यामी की एक भौं भौं...

सागर खय्यामी
16.08.2007 - दुबई


ये बोला दिल्ली के कुत्ते से गांव का कुत्ता
कहां से अदा सीखी तूने दुम दबाने की

वो बोला दुम दबाने को कायरी न समझ
जगह कहां है दुम तलक हिलाने की

सोमवार, 23 जुलाई 2007

कीमत क़लम की....?

मैं एक आम पत्रकार बनने से पहले फिल्म पत्रकार और फिर फिल्म समीक्षक कैसे बना, इसका भी एक दिलचस्प वाक्या है। अमर उजाला का जब कानपुर संस्करण खुला तो मैंने वहां बतौर प्रशिक्षु पत्रकार पूर्णकालिक पत्रकारिता को पेशा बनाया। इससे पहले दैनिक जागरण के फिल्मी पन्नों पर गाहे बेगाहे लिखा करता था। इसी बीच सुनील शेट्टी का एक इंटरव्यू मैंने किया। इंटरव्यू कोई खास नहीं था लेकिन पेशागत ईमानदारी के चलते इसे पहले अमर उजाला के फीचर विभाग को भेजा गया। वहां से सखेद रचना वापस आई और मैंने उसे जैसे का तैसा दैनिक जागरण के फीचर सेक्शन में फिल्म प्रभारी भाई प्रवीण श्रीवास्तव को दे दिया। वहां ये इंटरव्यू छपा तो कानपुर से लेकर मेरठ तक में हल्ला हो गया।
सफाई मांगी गई जो मैंने दी भी। फिर तय हुआ कि कानपुर में मेरा विकास नहीं हो सकता लिहाजा राजुलजी मुझे अपने साथ पहले रामपुर और फिर मुरादाबाद ले आए। वहीं मेरे इस सुझाव को मान्यता मिली कि अमर उजाला को भी साप्ताहिक फिल्म समीक्षाएं छापनी चाहिए। इस लिहाज से अमर उजाला का मैं पहला फिल्म समीक्षक बना।
खैर यहां जिक्र अपने सफरनामे का नहीं बल्कि ऐसी और एक बात का, जिसका जिक्र इस ब्लॉग के नाम के लिहाज से करने का मन कर रहा है। फिल्म समीक्षकों और फिल्म पत्रकारों की निर्देशक और निर्माता काफी खातिरदारी करते हैं। ऐसे ही एक दिन मेरे कुछ चंद करीबी शुभचिंतकों में से एक महेश भट्ट साहब का फोन आया। उन दिनों मैं अमर उजाला के फिल्म साप्ताहिक रंगायन का प्रभारी था और मेरी लिखी फिल्म समीक्षाएं कम से कम दिल्ली-यूपी और पंजाब टेरिटेरीज़ में फिल्मों की किस्मत तय करने लगी थीं। ऐसा मेरा नहीं बल्कि तमाम फिल्म वितरकों का मानना रहा, जिनमें से कुछ ने मेरी फिल्म समीक्षाओं का बुरा मानकर मालिकों तक शिकायत करने में कसर नहीं छोड़ी। इनमें सुभाष घई की फिल्म वितरण कंपनी भी शामिल रही और ये बात ताल को औसत से कमतर बताने के बाद हुई।
ख़ैर, बात भट्ट साहब की हो रही थी। उन दिनों शायद उनकी एक रिलीज़ होने वाली थी। वो दिल्ली में थे और सुबह सुबह एक दिन दफ़्तर पहुंचते ही उनका फोन आया। मिलने के इसरार से ज़्यादा ज़ोर इस बात पर था कि फिल्म को लेकर कुछ ऐसा लिखा जाए, जो मीडिया में हलचल बन जाए। इसके लिए अलहदा प्रस्ताव भी रखे गए। फिल्म पत्रकारिता के दौरान ये पहला मौका था ऐसा कोई प्रस्ताव मेरे सामने मेरी कलम की ताक़त के चलते आया था। ये उपलब्धि थी, या मेरे व्यक्तित्व को आंकने की भूल, आज तक समझ नहीं पाया। तब भी पहले पहल तो समझ ही नहीं आया कि क्या कहा जाए? और क्या प्रतिक्रिया दी जाए? दिल्ली जैसे शहर में 15 हज़ार की तनख्वाह कुछ नहीं होती, और मन भी तरह तरह के प्रलोभनों के पीछे बुद्धि का पगहा तुड़ाकर भागने को तैयार सा दिखता था। लेकिन, दिल की ऐसी किसी तमन्ना को मैंने धीरज की घुट्टी पिलाकर समझाया और भट्ट साहब को साफ साफ कह दिया कि ऐसी किसी सेवा की ज़रूरत नहीं है। हीरोइन की बोल्डनेस पर लेख बनता था सो मैंने लिखा। और फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हलचल मचाने काबिल थी, वो भी फिल्म समीक्षा में लिखा। वो दिन है और आज का दिन है, भट्ट साहब ने किसी भी काम के लिए कभी मना नहीं किया। उनके दिल में मेरे लिए जो इज्जत इस वाकये के बाद बनी, उसका राज़ कम लोगों की ही पता है।
महेश भट्ट जैसा निर्माता अगर अपना काम छोड़कर रात 12 बजे ज़ी न्यूज़ के लिए मुंबई में उसके लोअर परेल स्टूडियो जाकर एंकरिंग करता है, तो ये इन्हीं रिश्तों का नतीजा है। और वो तब जब मैं अपने गांव में बैठकर सारी चीजें को-ऑर्डिनेट कर रहा था। भट्ट साहब ने न सिर्फ मेरा आग्रह माना बल्कि एंकरिंग ख़त्म कर रात डेढ़ बजे मुझे फोन भी किया और वो सिर्फ ये बताने के लिए ये काम उन्होंने ज़ी न्यूज़ के लिए या किसी मीडिया टायकून के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ पंकज शुक्ल के लिए किया।
ये उनका बड़प्पन है। अपने गुरु के निधन के बाद अज्ञातवास में जाने के बाद भी भट्ट साहब से जिन चंद लोगों का लगातार संपर्क बना रहा, उनमें मेरी भी गिनती होती रही। इसका फायदा उठाने के लिए ज़ी न्यूज़ के तत्कालीन संपादक श्री राजू संथानम ने काफी ज़ोर दिया। वो खुद भी इससे पहले भट्ट साहब से मिलने गए थे और तब भट्ट साहब ने उनसे एक बात ही कही थी कि ज़ी न्यूज़ में वो अगर किसी को करीब से जानते हैं, तो वो है पंकज शुक्ल। शायद ये बात किसी संपादक के गले नहीं उतरेगी कि उसके सामने उससे कद में बड़ा कोई शख्स उसके ही जूनियर की इतनी तारीफ करे। मीडिया में काम करने वालों के तमाम राज़ ऐसे होते हैं, जिन पर नौकरी के दौरान पर्दा उठाने की फुर्सत नहीं मिलती। इन दिनों जिस फिल्म की कहानी पर मैं काम कर रहा हूं, उसे लिखते समय अक्सर भट्ट साहब का अक्स सामने घूमने लगता है। इस कहानी का मूल विचार जब मैंने उनके सामने रखा था, तो वो चौंक पड़े थे। अब ये कहानी धीरे धीरे शक्ल ले रही है। परदे पर कब आएगी? आएगी भी या नहीं, सब कुछ समय के हाथ है? इंसान का काम है कोशिश करते जाना, और उससे मैंने अब तक तो कभी मुंह नहीं मोड़ा?

बाकी फिर कभी...

ख़बरें जो स्याही तक नहीं पहुंचीं

नमस्कार, सत श्री अकाल, आदाब और...माफ़ कीजिएगा, अंग्रेजी में ऐसा कोई भाव शब्द नहीं है जो किसी भी समय बिना घड़ी के सहारे बोला जा सके...वहां सब कुछ वक़्त से तय होता है।

ख़ैर, शुक्रिया उस घड़ी का जब हम 14 घंटे रोज़ की गुलामी से मुक्त हुए। वरना अभी रात के 12 बजकर 8 मिनट पर कल के बुलेटिन्स की प्लानिंग ही सपने में घूम रही होती। वैसे गुलामी का भी अपना एक नशा है। ये सिर पर सवार हो तो दुनिया में कुछ और नज़र ही नहीं आता।

अब मुद्दे की बात। हम यहां हैं कुछ ऐसी ख़बरों को खंगालने के लिए, जो हमारे आपके करियर में कभी ना कभी हाथ ज़रूर लगती हैं, लेकिन जिन्हें टीवी पर चलाना या अख़बार में छापना संपादकों के नीति नियंताओं को ठीक नहीं लगता।

अमर उजाला अगर एम एस सुब्बा पर 13 साल पहले मेरी डेढ़ महीने की इनवेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग के बाद लिखी ख़बर को छाप चुका होता तो शायद वो आज भारत ही छोड़ चुके होते। फुल पेज लॉटरी के विज्ञापन की मजबूरी कहें या एक क्षेत्रीय अखबार का लैक ऑफ कॉन्फीडेंस, वो ख़बर मुरादाबाद से बरेली, बरेली से मेरठ और मेरठ से आगरा के बंडलों में कहीं दम तोड़ गई। वो तो भला हो भावदीप कंग का जो हमें रास्ता दिखा गईं। प्रियंका और रॉबर्ट वढेरा के मोहब्बतनामे का पहला पन्ना ख़ाकसार ने मुरादाबाद में बैठकर खोला था, जब दोनों नैनीताल से लौटते वक़्त ज़रा देर के लिए मुरादाबाद में रुके थे और हमारे कुछ ख़ाकी के भाइयों ने ये किस्सा हमारे कान में डाल दिया। और इस किस्से को सुनने के लिए दिल्ली से मुरादाबाद आने वालों में सबसे सही सलाह उन्होंने ही दी।

ऐसी तमाम ख़बरें आज भी हमारे साथी करते हैं लेकिन उन्हें लोगों के सामने लाने में कहीं ना कहीं कोई ना कोई रुकावट आ ही जाती है। नौकरी के नौ काम दसवां काम जी हुजूरी, ये बात पापा ने सिखाई तो कई बार, लेकिन समझ में बहुत देर से आई। इतनी देर से कि अब उसे दुरुस्त करना मुमकिन नहीं।

ऐसा नहीं होता तो बहुत कुछ हो चुका होता। हमारे न्यूज़ीलैंड जाने से कारोबारी राजेशजी हमसे नाराज़ ना होते। हम घर जैसा अमर उजाला ना छोड़ते। जी हुजूरी नहीं करना ही शायद वजह रही होगी कि बीएजी में अंजीत अंजुम जी को हमारी भाषा और हमारी स्क्रिप्ट पसंद नहीं आई। अगर हम भी दाएं-बाएं रहने की बाज़ीगरी सीख जाते तो ज़ी न्यूज़ में महान संपादक राजू संथानम हम पर पॉलीटिक्स करने का इल्जाम ना लगाते। वैसे ये बात भी अब अचंभा नहीं लगती कि एक हिंदी ना जानने वाला पत्रकार भी हिंदी चैनल का संपादक बन सकता है। और बिना एक भी कॉपी लिखे या एक भी हेडलाइन बताए कोई संपादक मालिक से पगार ले सकता है, ये देखना भी किसी ख़बर से कम नहीं है। लेकिन ये ज़माने की बलिहारी है। सियासी रकम से सीडी (असली या नकली ये जानने का काम एक बार भाई रजत अमरनाथ कर चुके हैं) बनाने वाले अब चैनलों के मालिक हैं और यहां तक तय करते हैं कि पंजाब में पीलिया से कुत्ते के मरने की ख़बर चैनल पर चलेगी या नहीं।

बाकी फिर कभी...